११९. नंगुट्ठ जातकामध्यें (क्रमांक १४४) अग्नीला भगवान् म्हटलें आहे.१  ग्वाल्हेर संस्थानांत पवाया (प्राचीन पद्मावती) गांवीं मणिभद्राची शिरोभग्न मूर्ति सांपडली तिच्या आधारपीठावर जो लेख आहे, त्यावरून मणिभद्रालाहि भगवान् म्हणत असत असें दिसून येतें.२  तेहां अग्नीचे जे पूजक त्यांना अग्निभागवत, मणिभद्राचे जे पूजक त्यांना मणिभद्रभागवत, व अशा रीतीनें, वर दिलेल्या निद्देसांतील उतार्‍यांत ज्यांना वतिक (व्रतिक) म्हटलें आहे, त्या सर्वांना त्या त्या देवतांचे भागवत म्हणत, असें अनुमान करणें असांप्रत होणार नाहीं.
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१ सो एकदिवसं पच्चन्तगामके गोदक्खिणं लभित्वा तं गोणं अस्समपदं नेत्वा चिन्तेसि – अग्गिं भगवन्तं गोणमंसं खादापेस्सामीति |…. अयं अग्गि भगवा अत्तनो सन्तकंपि रक्खितुं न सक्कोति |

( २ राज्ञ: स्वामिशिवनंदिस्य संवत्सरे चतुर्थे... मणिभद्रभक्ता गर्भ-सुखिताः भगवतो मणिभद्रस्य प्रतिमा प्रतिष्ठापयन्ति | गौष्ठयं भगवा आयु बलं वाचं कल्याणाभ्युदयं च प्रीतो दिशतु | ब्राह्मणस्य गोतमस्य क्रमारस्य ब्राह्मणस्य रुद्रदासस्य शिवत्राताये संभूतस्य जीवस्य खंजबलस्य शिवनेमिस्य शिवभद्रस्य कुमकस्य धनदेवस्य...|
श्रीयुत मो. ब. गर्दे यांच्या लेखांतून हा उतारा घेतला आहे. (Archaeological Survey of India,  Annual Report 1915-16, pp. 105-6 पहा.) मणिभद्राच्या भक्तांत दोघे ब्राह्मण होते, हें लक्ष्यांत ठेवण्याजोगें आहे. )
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१२०. आतां प्रश्न असा येतो कीं, हे अग्निभागवतादिक सर्व भागवत मागें पडून एक तेवढे वासुदेवभागवत पुढें आले कसे ? याचें उत्तर सोपें आहे. शकांचें कुलदैवत महादेव असल्यामुळें शकांच्या वेळीं तो सर्वश्रेष्ठ देव बनला. त्याचप्रमाणें गुप्त राजांचें कुलदैवत वासुदेव असल्याकारणानें गुप्त राजांच्या वेळीं तो जगन्नियंता झाला.

१२१. वर सांगण्यांत आलेंच आहे कीं, वासुदेव कृष्णाचें अस्तित्व वेदकालापासून होतें, व मध्यहिंदुस्थानांत विभूतिरूपानें त्याची पूजा होत असे. मेगस्थेनेस याच्या म्हणण्याप्रमाणें वासुदेव हिन्दुस्थानचा हेराक्लेस असून त्याची पूजा सौरसेनी लोकांत चालू होती. ह्या लोकांच्या दोन मुख्य शहरांपैकीं एक मथुरा असे.१  आजकाल जशी बलदायक अशा दृष्टीनें मारुतीची पूजा होते, तशी त्या काळीं वासुदेवाची पूजा होत असावी. याचसाठीं मेगस्थेनेस यानें त्याला हेराक्लेस म्हटलें आहे. ग्रीक लोकांना हा हेराक्लेस येथें सांपडल्यामुळें हेलियोदोरासारख्यानें त्याची पूजा आरंभली असली तर त्यांत आश्चर्य कोणतें ? पण ह्यावरून वासुदेवाचा एक स्वतंत्र पंथ होता हें मात्र मुळींच सिद्ध होत नाहीं.
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१ Vaishnavism etc. p.13
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१२२. गुप्त राजे शकांचे शत्रु होते. कां कीं, शकांचें राज्य मोडून त्यांना आपलें राज्य स्थापन करावयाचे होतें. अर्थात् शकांच्या महेश्वरदेवाला त्यांनी आपलें कुलदैवत केलें नाहीं. पण तशाच तर्‍हेचें कोणतें तरी बळकट एकद्देशीय कुलदैवत त्यांना पाहिजे होतें;  व तें त्यांस वासुदेवामध्यें सांपडलें. त्यांचा कुलदेव वासुदेव झाल्याबरोबर ब्राम्हणांनी त्याची महती वाढवण्यासाठीं आपलें सामर्थ्य खर्चण्यास आरंभ केला.

१२३. गुप्त राजे सर्वांना समानतेनें वागवणारे होते. अर्थात् सर्वत्र पसरलेल्या महादेवाचाच नव्हे, तर महादेवाच्या लिंगाचाहि त्यांनी उच्छेद केला नाहीं. महादेवाचे परमभक्त जे वाकाटक राजे त्यांच्या वंशांतील दुसर्‍या रुद्रसेनाला दुसर्‍या चंद्रगुप्तानें आपली मुलगी प्रभावती ही दिली होती.१ या त्यांच्या वर्तनामुळें महादेव मूर्तिरूपानें किंवा लिंगरूपानें, जशाचा तसाच कायम राहिला. पण ते स्वत: वासुदेवाचे भक्त असल्याकारणानें त्या देवाचीहि महती एकसारखी वाढत गेली. वासुदेवाला जर गुप्तांनी आपला कुलदेव केलें नसतें, तर आजला वासुदेवाचा मागमूसहि राहिला नसता; आणि पांच-रात्रादिक प्रकरणांत जो एकांतिक धर्म प्रतिपादला आहे, तो पण उद्‍भवला नसता. विविधरूपानें एक तेवढी महादेवाची पूजा शिल्लक राहिली असती.
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१ Political History of Ancient India, pp. 346-47.
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१२४. शकांच्या पडत्या काळांत जसें महादेवाचें रूपांतर लिंगांत झालें, तसेंच गुप्तांच्या उतरत्या काळांत वासुदेवाचें रूपांतर व्यभिचारी गोपालांत झालें. या राजांची जसजशी चैन वाढत गेली तसतसें वासुदेवालाहि चैनी व व्यभिचारी बनवण्यांत आलें. कोणी म्हणतात कीं, वासुदेवाचें हें रूपांतर बरेंच आधुनिक आहे. परन्तु गुप्तांच्या समकालीन कालिदासाच्या ‘बर्हेणेव स्फुरितरुचिना गोपवेशस्य विष्णो:’२ या वचनावरून त्यांच्याच काळीं वासुदेवाला चैनी गोपाळाचें स्वरूप येत गेलें असें सिद्ध होतें.
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२ मेघदूत, श्लोक १५.
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