( स्थाणुतीर्थमें जाने तथा स्थाणुवटके दर्शनसे मुक्तिप्राप्ति होनेकी बात सुननेके बाद ) ऋषियोंने पूछा - महामुने ! आप स्थाणुतीर्थ एवं स्थाणुवटके माहात्म्य तथा सांनिहत्य सरोवरकी उत्पति और इन्द्रद्वारा उसके धूलसे भरे जानेके कारणका वर्णन करें । ( इसी प्रकार ) लिङ्गोंके दर्शनसे होनेवाले पुण्य तथा स्पर्शसे होनेवाले फल और सरोवरके माहात्म्यका भी पूर्णतः वर्णन करें ॥१ - २॥ 
लोमहर्षणजी बोले - मुनियो ! आप लोग महान् वामनपुराणको श्रवण करें, जिसका श्रवण कर मनुष्य वामनभगवानकी कृपासे मुक्ति पा लेता है । ( एक समय ) ब्रह्माके पुत्र सनत्कुमार महात्मा बालखिल्य आदि ऋषियोंके साथ स्थाणुवटके पास बैठे हुए थे । महर्षि मार्कण्डेयने उनके निकट जाकर नम्रतापूतर्वक सरोवरके माहात्म्य, उसके विस्तार और स्थितिके विषयमें पूछा - ॥३ - ५॥ 
मार्कण्डेयजीने कहा ( पूछा ) - सर्वशास्त्रविशारद महाभाग ब्रह्मपुत्र ( सनत्कुमार ) ! आप मुझसे सभी पापोंके नष्ट करनेवाले सरोवरके माहात्म्यको कहिये । द्विजश्रेष्ठ ! स्थाणुतीर्थके पास कौन - कौन - से तीर्थ दृश्य हैं और कौन - कौन से अदृश्य और कौन - से लिङ्ग अत्यन्त पवित्र हैं, जिनका दर्शन कर मनुष्य मुक्ति प्राप्त करता है । मुने ! आप स्थाणुवटके दर्शनसे होनेवाले पुण्य तथा उसकी उत्पत्तिके विषयमें भी कहिये - बताइये । इनकी प्रदक्षिणा करनेसे होनेवाले पुण्य, तीर्थमें स्त्रान करनेसे मिलनेवाले फल एवं गुप्त तीर्थों तथा प्रकट तीर्थोंके दर्शनसे मिलनेवाले पुण्यका भी वर्णन करें । प्रभो ! सरोवरके मध्यमें देवाधिदेव स्थाणु ( शिव ) किस प्रकार स्थित हुए और किस कारणसे इन्द्रसे इस तीर्थको पुनः धूलिसे भर दिया ? आप स्थाणुतीर्थका माहात्म्य, चक्रतीर्थका फल एवं सूर्यतीर्थ तथा सोमतीर्थका माहात्म्य - इन सबको मुझसे कहिये । महाभाग ! सरस्वतीके निकट शंकर तथा विष्णुके जो - जो गुप्त स्थान हैं उनका भी आप विस्तारपूर्वक वर्णन करें । देव ! देवाधिदेवके कृपासे आपको सब विदित हैं ॥६ - १३॥ 
लोमहर्षणने कहा ( उत्तर दिया ) - मार्कण्डेयके वचनको सुनकर ब्रह्मस्वरुप महामुनिका मन उस तीर्थके प्रति अत्यन्त भक्ति - प्रवण होनेसे गदगद हो गया । उन्होंने आसनसे उठकर भगवान् शंकरको प्रणाम किया तथा प्राचीनकालमें ब्रह्मासे इसके विषयमें जो कुछ सुना था उन सबका वर्णन किया ॥१४ - १५॥
सनत्कुमारने कहा - मैं कल्याणकर्ता, वरदानी महादेव ईशानको नमस्कार कर ब्रह्मासे कहे हुए तीर्थकी उत्पत्तिके विषयमें वर्णन करुँगा । प्राचीन कालमें जब महाप्रलय हो गया और सर्वत्र केवल जल - ही - जल हो गया एवं उसमे समस्त चर - अचर जगत् नष्ट हो गया, तब प्रजाओंके बीजस्वरुप एक ' अण्ड ' उत्पन्न हुआ । ब्रह्मा उस अण्डमें स्थित थे । उन्होंने उसमें अपने सोनेका उपक्रम किया । फिर तो वे हजारों युगोंतक सोते रहे । उसके बाद जगे । ब्रह्मा जब सोकर उठे, तब उन्होंने संसारको शून्य देखा । ( जब उन्होंने संसारमें कुछ भी नहीं देखा ) तब रजोगुणसे आविष्ट हो गये और सृष्टिके विषयमें विचार करने लगे ॥१६ - १९॥ 
रजोगुणको सृष्टिकारक तथा सत्त्वगुणको स्थितिकारक माना गया है । उपसंहार करनेके समयमें तमोगुणकी प्रवृत्ति होती है । परंतु भगवान् वास्तवमें व्यापक एवं गुणातीत हैं । वे पुरुष नामसे कहे जाते हैं । जीव नामसे निर्दिष्ट सारे पदार्थ उन्हीसे ओतप्रोत हैं । वे ही ब्रह्मा हैं, वे ही विष्णु हैं और वे ही सनातन महेश्वर हैं । मोक्षके ज्ञानी जिस प्राणीने उन महान् आत्माको समझ लिया, उसने सब कुछ जान लिया । जिस मनुष्यका अनन्त ( बहुमुखी ) चित्त उन परमात्मामें ही भलीभाँति स्थित है, उनके लिये सारे तीर्थ एवं आश्रमोंसे क्या प्रयोजन ? ॥२० - २३॥ 
यह आत्मरुपी नदी शील और समाधिसे युक्त हैं । इसमें संयमरुपी पवित्र तीर्थ है, जो सत्यरुपी जलसे परिपूर्ण है । जो पुण्यात्मा इस ( नदी ) - में स्त्रान करता है, वह पवित्र हो जाता है, ( पिये जानेवाले सामान्य ) जलसे अन्तरात्माकी शुद्धि नहीं होती । इसलिये पुरुषका मुख्य कर्तव्य है कि वह आत्मज्ञानरुपी सुखमें प्रविष्ट रहे । महात्मा लोग उसीको ' ज्ञेय ' कहते हैं । शरीर धारण करनेवाला देही जब उस्से पा लेता है, तब सभी इच्छाओंको छोड़ देता है । ब्राह्मणके लिये एकता, समता, सत्यता, मर्यादामें स्थिति, दण्ड - विधानका त्याग, क्रोध न करना एवं ( सांसारिक ) क्रियाओंसे विराग ही धन हैं । द्विजोत्तम ! मैंने थोड़ी मात्रामें तुमसे यह जो ज्ञानके विषयमें कहा है, इसे जानकर तुम निः संदेह परम ब्रह्मको प्राप्त करोगे । अब तुम परमात्मा ब्रह्मकी उत्पत्तिके विषयमें सुनो । उस नारायणके विषयमें लोग इस श्लोकका उदाहरण दिया करते हैं - ॥२४ - २८॥ 
' आप ' ( जल ) ही को ' नार ', ( एवं परमात्मा ) को ' तनु ' - ऐसा हमने सुन रखा है । वे ( परमात्मा ) उसमें शयन करते हैं, जिससे वे ( शब्दव्युत्पत्तिसे ) ' नारायण ' शब्दसे स्मरण किये गये हैं । जलमें सोनेके बाद जाग जानेपर उन्होंने जगतको अपनेमें प्रविष्ट जानकर अण्डको तोड़ दिया, उससे ' ॐ ' शब्दकी उत्पत्ति हुई । इसके बाद उससे ( पहली बार ) भूः, दूसरी बार भुवः एवं तीसरी बार स्वः की उत्पत्ति ( ध्वनि ) हुई । इन तीनोंका नाम क्रमशः मिलकर ' भूर्भुवः स्वः ' हुआ । उस सविता देवताका जो वरेण्य तेज है, वह उसीसे उत्पन्न हुआ । अण्डसे जो तेज निकला, उसने जलको सुखा दिया ॥२९ - ३२॥ 
तेजसे जलके सोखे जानेपर शेष जल कललकी आकृतिमें बदल गया । कललसे बुदबुद हुआ और उसके बाद वह कठोर हो गया । कठोर हो जानेके कारण वह बुदबुद भूतोंको धारण करनेवाली धरणी बन गया । जिस स्थानपर अण्ड स्थित था, वहीं संनिहित नामका सरोवर है । तेजके आदिमें उत्पन्न होनेके कारण उसे ' आदित्य ' नामसे कहा जाता है । फिर सारे संसारके पितामह ब्रह्मा अण्डके मध्यमें उत्पन्न हुए । उस अण्डका उल्ब ( गर्भका आवरण ) मेरु पर्वत हैं एवं अन्य पर्वत उसके जरायु ( झिल्ली ) माने जाते हैं । समुद्र एवं सहस्त्रों नदियाँ गर्भके जल हैं । ब्रह्माके नाभि - स्थानमें जो विशाल निर्मल जल राशि है, उस स्वच्छ श्रेष्ठ जलसे महान् सरोवर भरा - पूरा है ॥३३ - ३७॥ 
उस सरोवरके मध्यमें स्थाणुके आकारका महान् विशाल एक वटवृक्ष है । ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यये तीनों वर्ण उससे निकले और द्विजोंकी शुश्रूषा करनेके लिये उसीसे शूद्रोंकी भी उत्पति हुई । ( इस प्रकार चारों वर्णोंकी सृष्टि सरोवरके मध्यमें स्थाणुरुपसे स्थित वटवृक्षसे हुई । ) उसके बाद सृष्टिकी चिन्ता करते हुए अव्यक्तजन्मा ब्रह्माके मनसे सनकादि महर्षियोंकी उत्पत्ति हुई । फिर प्रजाकी इच्छासे चिन्तन कर रहे मतिमान् ब्रह्मासे सात ऋषि उत्पन्न हुए । वे प्रजापति हुए । रजोगुणसे मोहित होकर ब्रह्माने जब पुनः चिन्तन किया, तब तप एवं स्वाध्यायमें परायण बालखिल्य ऋषियोंकी उत्त्पति हुई ॥३८ - ४१॥
वे सर्वदा स्त्रान ( शुद्धि ) करनेमें निरत तथा देवताओंकी पूजा करनेमें विशेषरुपसे लगे रहते तथा उपवासों एवं तीव्र व्रतोंसे अपने शरीरको सुखाये जा रहे थे । अग्निहोत्रसे युक्त होकर वानप्रस्थकी विधिसे वे उत्कृष्ट तपस्या करते और अपने शरीर सुखाते जाते थे । वे लोग अत्यन्त दुर्बल एवं कंकाल - काय होकर सहस्त्र दिव्य वर्षोंतक देवेशकी उपासना करते रहे; परंतु भगवान् शंकर प्रसन्न न हुए । उसके बहुत दिनोंके बाद उमाके साथ भगवान् शंकर आकाश - मार्गसे भ्रमण कर रहे थे । धार्मिक कार्योंको करनेवाली उमा ( बालखिल्योंकी ) इस प्रकारकी दशा ( कंकालमात्र ) देखकर दुःखी हो गयीं और दुःखी होकर देवदेवेश शंकरको प्रसन्नकर कहने लगीं - देव ! देवदारु - वनमें रहनेवाले वे मुनिगण क्लेश उठा रहे हैं । देव ! मेरे ऊपर दया करें । आप उनके क्लेशका विनाश करें । देव ! वैदिक धर्ममें निष्ठा रखनेवाले इन ( तपस्वियों ) - के कौन ऐसा अनन्त दुष्कृत है, जिससे ये कङ्कालमात्र होनेपर भी अबतक शुद्ध नहीं हुए ? अन्धकको मार गिरानेवाले, चन्द्रमाकी मनोहर किरणोंसे सुशोभित सिरवाले पिनाकधारी शंकरजी उमाकी बातको सुनकर हँसते हुए बोले - ॥४२ - ४८॥ 
श्रीमहादेवजी बोले - देवि ! धर्मकी गति गहन होती हैं । तुम उसे तत्त्वतः नहीं जानती । ये लोग न तो धर्मज्ञ हैं और न कामशून्य । ये क्रोधसे मुक्त भी नहीं हैं और विचाररहित हैं । यह सुनकर उमादेवीने कहा - नहीं, व्रत धारण करनेवाले इन लोगोंको ऐसा मत कहिये; ( प्रत्युत ) देव ! आप अपनेको प्रकट करें । निश्चय ही मुझे बड़ा कौतूहल है । उमाके ऐसा कहनेपर शंकरने मुस्कुराकर देवीसे इस प्रकार कहा - अच्छा, तुम यहाँ रुको । ये मुनिश्रेष्ठ जहाँ घोर तपस्याकी साधना कर रहे है, वहाँ जाकर मैं इनकी चेष्टा कैसी है, उसे दिखलाता हूँ ॥४९ - ५२॥
जब महात्मा शंकरने देवी उमासे इस प्रकार कहा तब उमादेवी प्रसन्न हो गयीं और भुवनोंके पालन करनेवाले भुवनेश्वर शिवसे बोलीं - अच्छा, जिस स्थानपर लकड़ी और मिट्टीके ढेलेके समान निश्चेष्ट, अग्निहोत्री एवं अध्ययनमें लगे हुए मुनिगण रहते हैं, उस स्थानपर आप जायँ । ( फिर उमाद्वारा इस प्रकार प्रेरित किये जानेपर शंकरजी मुनिमण्डलीकी ओर जानेके लिये प्रस्तुत हो गये ) फिर शंकरने उस मुनिमण्डलीको देखकर वनमाला धारण कर लिया । तब वे सर्वाङ्गसुन्दर ( पर ) नग्न - सुडौल देह धारण कर युवाके रुपमें हो गये और भिक्षा - पात्र हाथमें लेकर मुनियोंके सामने भिक्षाके लिये भ्रमण करते हुए ' भिक्षा दो ' यह कहते हुए एक आश्रमसे दूसरे आश्रममें जाने लगे ॥५३ - ५६॥ 
एक आश्रममे दूसरे आश्रममें घूम रहे उन नग्न युवाको देखकर ब्रह्मवादियोंकी स्त्रियाँ उत्सुकताके साथ स्वभावस्वश उनके रुपसे मोहित हो गयीं और परस्परमें कहने लगीं - आओ, भिक्षुकको देखा जाय । आपसमें इस प्रकिआर कहकर बहुत - सा मूल - फल लेकर मुनिपत्नियोंने उन देवसे कहा - आप भिक्षा ग्रहण करें । उन्होंने भी अत्यन्त आदरसे उस भिक्षापात्रको फैलाकर ( सामने दिखाकर ) कहा - तपोवनवासिनियो ! ( भिक्षा ) दो, दो ! आप सबका कल्याण हो । पार्वतीजी वहाँ हँसते हुए शंकरको देख रही थीं । कामातुर मुनिपत्नियोंने उस नग्न युवाको भिक्षा देकर उनसे पूछा - ॥५७ - ६०॥ 
मुनिपत्नियोंने पूछा - तापस ! आप किस व्रतके विधानका पालन कर रहे हैं, जिसमें वनमालासे विभूषित हदयहारी तपस्वीका सुन्दर स्वरुप धारण कर नग्न - मूर्ति बनना पड़ा है ? आप हमारे हदयके आनन्दप्रद तापस हैं, यदि आप मानें तो हम भी आपकी मनोऽनुकूल प्रिया हो सकती हैं । उन्होंने तपस्विनीयोंके इस प्रकार कहनेपर हँसते हुए कहा - यह व्रत ऐसा है कि इसका कुछ भी रहस्य प्रकट नहीं किया जा सकता । सौभाग्यशालिनियो ! जहाँ बहुत - से सुननेवाले हों वहाँ इस व्रतकी व्याख्या नहीं की जा सकती । इसलिये यह जानकर आप सभी चली जायँ । उनके ऐसा कहनेपर उन्होंने मुनिसे कहा - मुने ! हम सब ( यह जाननेके लिये ) एकान्तमें चलेंगी; ( क्योंकि ) हमें महान् कौतूहल हो रहा हैं ॥६१ - ६४॥ 
यह कहकर उन सभीने उनको अपने कोमल हाथोमसे पकड़ लिया । कुछ कामसे आतुर होकर कण्ठसे लिपट गयीं और कुछने भुजाओंमें बाँध लिया; कुछ स्त्रियोंने उन्हें घुटनोंसे पकड़ लिया; कुछ सुन्दरी स्त्रियां उनके केश छूने लगीं; और कुछ उनकी कमरसे लिपट गयीं एवं कुछने उनके पैरोंको पकड़ लिया । मुनियोंने आश्रममें अपनी स्त्रियोंकी अधीरता देख ' मारो - मारो ' - इस प्रकार कहते हुए हाथोंमे डंडा और पत्थर लेकर शिवके लिङ्गको ही उखाड़कर फेंक दिया । लिङ्गके गिरा दिये जानेपर भगवान् शंकर अन्तर्हित हो गये ॥६५ - ६८॥ 
वे भगवान् रुद्र उमादेवीके साथ कैलास पर्वतपर चले गये । देवदेव शंकरके लिङ्गके गिरनेपर प्रायः समस्त चर - अचर जगत् नष्ट हो गया । इससे आत्मनिष्ठ महर्षियोंको व्याकुलता हुई । इसी प्रकार देवके ( भी ) व्याकुल हो जानेपर एक अत्यन्त बुद्धिमान् श्रेष्ठ मुनिने कहा - हम उन महात्मा तापसके सद्भाव ( सदाशय ) - चेष्टा ( रहस्य ) समझ सकेंगे । ऐसा कहनेपर सभी ऋषि अत्यन्त लज्जित हो गये ॥६९ - ७२॥ 
फिर, वे लोग देवताओंसे उपासित ब्रह्माके लोकमें गये । वहाँ देवेश ( ब्रह्मा ) - को प्रणाम कर लज्जासे मुख नीचा कर खड़े हो गये । उसके बाद ब्रह्माने उन्हें दुःखी देखकर यह वचन कहा - अहो, क्रोध करनेसे तुम सबका मन कलुषित हो गया है, इसलिये मूढ हो गये हो । मूढ बुद्धिवालो ! तुम सब धर्मकी कोई वास्तविक क्रिया नहीं जानते । अप्रिय कर्म करनेवाले तापसो ! धर्मके सारभूत रहस्यको सुनो, जिसे जानकर बुद्धिमान् मनुष्य शीघ्र ही कर्मका फल प्राप्त करता है । हम सबके इस शरीरमें रहनेवाला जो नित्य विभु ( परमेश्वर ) है, वह आदि - अन्त - रहितं एवं महा स्थाणु है । ( विचार करनेपर ) वह ( देही ) इस शरीरसे अलग प्रतीत होता है । जिस प्रकार उज्ज्वल वर्णकी मणि भी आश्रयके प्रभावसे उसी रुपकी भासती है, उसी प्रकार आत्मा भी मनसे संयुक्त होकर मनके भेदका आश्रय कर कर्मोंसे ढक जाता है । उसके बाद कर्मवश वह स्वर्गीय तथा नारकीय भोगोंको भोगता रहता है । बुद्धिमान् व्यक्तिको चाहिये कि ज्ञान तथा योग आदि उपायोंद्वारा मनका शोधन करे ॥७३ - ७९॥ 
मनके शुद्ध होनेपर अन्तरात्मा अपने - आप निर्मल हो जाता है । जिसका मन शुद्ध नहीं है, ऐसा पुरुष शरीरको सुखानेवाले क्लेशोंके द्वारा शुद्ध नहीं होता । पापोंसे बचनेके लिये ही ( धर्म्य ) क्रियाओंका विधान हुआ है, अतः अत्यन्त पापपूर्ण शरीर ( स्वतः ) शीघ्र शुद्ध नहीं होता । इसीलिये लोकमें सत्पथ - शास्त्रविहित क्रियाओंका यह मार्ग प्रवर्तित हुआ है । किसी दिव्यद्रष्टा लोक - स्वामीने उत्तम भाग्यवालोंके निमित्त मोह - माहात्म्यके प्रतीकस्वरुप इस वर्णाश्रम - विभागका निर्माण किया है ॥८० - ८३॥ 
आप लोग आश्रममें रहते हुए भी क्रोध तथा कामके वशीभूत हैं । ज्ञानियोंके लिये घर ही आश्रम है और अयोगियों ( अज्ञानियों ) - के लिये आश्रम भी अनाश्रम है । कहाँ समस्त कामनाओंका त्याग और कहाँ समस्त कामनाओंका त्याग और कहाँ नारीमय यह भ्रम - जाल । ( कहाँ तप और ) कहाँ तो इस प्रकारका क्रोध, जिससे तुम लोग अपने आत्मा ( शिव ) - को नहीं पहचान पाते । क्रोधी पुरुष लोकमें जो सदा यज्ञ करता है, जो दान देता है अथवा जो तप या हवन करता है, उसका कोई फल उसे नहीं मिलता । उस क्रोधीके सभी फल व्यर्थ हैं ॥८४ - ८६॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें तैंतालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥४३॥
 

Comments
आमच्या टेलिग्राम ग्रुप वर सभासद व्हा. इथे तुम्हाला इतर वाचक आणि लेखकांशी संवाद साधता येईल. telegram channel

Books related to वामन पुराण Vaman Puran


चिमणरावांचे चर्हाट
नलदमयंती
सुधा मुर्ती यांची पुस्तके
झोंबडी पूल
अश्वमेध- एक काल्पनिक रम्यकथा
सापळा
श्यामची आई
गांवाकडच्या गोष्टी
खुनाची वेळ
अजरामर कथा
लोकभ्रमाच्या दंतकथा
मराठेशाही का बुडाली ?
कथा: निर्णय
शिवाजी सावंत
मृत्यूच्या घट्ट मिठीत