लोमहर्षणने कहा - इसके बाद तीर्थका सेवन करनेवाले उत्तम द्विजको रामकुण्ड नामक स्थानमें जाना चाहिये, जहाँ उद्दीप्त तेजस्वी विप्र - वीर राम ( परशुराम ) - ने बलपूर्वक क्षत्रियोंका संहारकर पाँच कुण्डोंको स्थापित किया था । पुरुषसिंह ! हमलोगोंने ऐसा सुना है कि परशुरामने उन ( कुण्डों ) - को रक्तसे भरकर उससे अपने पितरों एवं प्रपितामहोंका तर्पण किया था । द्विजोत्तमो ! उसके बाद उन प्रसन्न पितरोंने परशुरामसे कहा था कि महाबाहु भार्गव राम ! परशुराम ! विभु ! तुम्हारी इस पितृभक्ति और पराक्रमसे हम सब तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हैं ॥१ - ४॥
महायशस्विन् ! तुम्हारा कल्याण हो । तुम वर माँगो । क्या चाहते हो ? पितरोंके इस प्रकार कहनेपर प्रभावशालियोंमें श्रेष्ठ रामने आकाशमें स्थित पितरोंसे हाथ जोड़कर कहा - यदि आपलोग मेरे ऊपर प्रसन्न हैं तथा मुझपर आप सबकी दया है तो आप पितरोंके प्रसादसे मैं पुनः तपसे पूर्ण हो जाऊँ । रोषसे अभिभूत होकर मैंने जो क्षत्रियोंका विनाश किया है, आपके तेजद्वारा मैं उस पापसे मुक्त हो जाऊँ एवं ये कुण्ड संसारमें विख्यात तीर्थस्वरुप हो जायँ ॥५ - ८॥ 
परशुरामके इस प्रकारके मङ्गलमय वचन कहनेपर उनके परम प्रसन्न पितरोंने हर्षपूर्वक उनस्से कहा - ' पुत्र ! पितृभक्तिसे तुम्हारा तप विशेषरुपसे बढ़े । क्रोधसे अभिभूत होनेके कारण तुमने क्षत्रियोंका जो विनाश किया है उस पापसे तुम मुक्त हो; क्योंकि ये क्षत्रिय अपने कर्मसे ही मारे गये हैं । तुम्हारे ये कुण्ड निः संदेह तीर्थके गुणोंको प्राप्त करेंगे । जो इन कुण्डोंमें स्त्रान कर अपने पितरोंका तर्पण करेंगे, उन्हें ( उनके ) पितृगण मनकी इच्छाके अनुसार वर देंगे, उनकी मनोऽभिलषित कामनाएँ पूर्ण करेंगे एवं उन्हें स्वर्गमें शाश्वत निवास प्रदान करेंगे । ' विप्रो ! इस प्रकार वर देकर परशुरामके पितर उनसे अनुमति लेकर प्रसन्नतापूर्वक वहीं अन्तर्हित हो गये । इस प्रकार महात्मा परशुरामके ये रामहद परम पवित्र हैं ॥९ - १४॥
श्रद्धालु पवित्रकर्मा व्यक्ति ब्रह्मचर्यपूर्वक परशुरामजीके हदोंमें स्त्रान करनेके बाद परशुरामका अर्चन कर प्रचुर सुवर्ण प्राप्त करता है । ब्राह्मणो ! तीर्थसेवी जितेन्द्रिय मनुष्य वंशमूलक नामक तीर्थमें जाकर उसमें स्त्रन करनेके अपने वंशकी सिद्धि प्राप्त करता है । तीनों लोकोंमें विख्यात कायशोधन नामक तीर्थमें जाकर उसमें स्त्रान करनेसे मनुष्यको निस्संदेह शरीरकी शुद्धि प्राप्त होती है और वह शुद्धदेही मनुष्य उस स्थानको जाता है, जहाँसे वह पुनः नहीं लौटता ( जन्म - मरणके चक्करमें नहीं पड़ता ) । तीर्थपरायण सिद्ध पुरुष तीर्थोंमें तबतक भ्रमण करने रहते हैं, जबतक वे उस कायशोधन नामक तीर्थमें नहीं पहुँचते ॥१५ - १८॥
मनको नियन्त्रित करनेवाला मनुष्य उस तीर्थमें शरीरको धोकर ( प्रक्षालित कर ) उस परम पदको प्राप्त करता है, जहाँसे उसे पुनः परावर्तित नहीं होना पड़ता । विप्रवरो ! उसके बाद तीनों लोकोंमें विख्यात लोकोद्धार नामके तीर्थमें जाना चाहिये, जहाँ सर्वसमर्थ विष्णुने समस्त लोकोंका उद्धार किया था । तीर्थका स्मरण करनेमें तत्पर मनुष्य लोकोद्धार नामके तीर्थमें जाकर उसमें स्त्रान करनेसे शाश्वत लोकोंका दर्शन प्राप्त करता है । वहाँ विष्णु एवं देवोंको प्रणामद्वारा प्रसन्न कर फिर मुक्तिका फल प्राप्त करे । तदनन्तर अनुत्तम शालग्राम एवं श्रीतीर्थमें जाना चाहिये । वहाँ स्त्रान करनेवालोंको भगवती ( लक्ष्मी ) अपने निकट निवास प्रदान करती हैं ॥१९ - २३॥
फिर त्रैलोक्यप्रसिद्ध कपिलाहद नामक तीर्थमें जाकर उसमें स्त्रान करनेके पश्चात् देवता तथा पितरोंकी पूजा करनेसे मनुष्यको सहस्त्र कपिला गायोंके दानका फल प्राप्त होता है । वहाँपर स्थित ऋषियोंसे पूजित कापिल शरीरधारी महादेव शिवका दर्शन करनेसे मुक्तीकी प्राप्ति होती है । स्थिर अन्तः करणवाला एवं उपवास - परायण व्यक्ति सूर्यतीर्थमें जाकर स्त्रान करनेके बाद पितरोंका अर्चन करनेसे अग्निष्टोम यज्ञका फल प्राप्त करता है एवं सूर्यलोकको जाता है ॥२४ - २७॥
तीनों लोकोंमें विख्यात हजारों किरणोंवाले सूर्यदेव भगवानका दर्शन करनेसे मनुष्य ज्ञानसे युक्त होकर मुक्तिको प्राप्त करता है । तीर्थसेवन करनेवाला मनुष्य क्रमानुसार भवानीवनमें जाकर वहाँ ( भवानीका ) अभिषेक करनेसे सहस्त्र गोदानका फल प्राप्त करता है । प्राचीन कालमें अमृत - पान करते हुए ब्रह्माके उद्गार ( डकार ) - से सुरभिकी उत्पत्ति हुई और वह पाताल लोकमें चली गयी । उस सुरभिसे लोकमाताएँ ( सुरभिकी पुत्रियाँ ) ( गायें ) उत्पन्न हुई । उनसे समस्त पाताल लोक व्याप्त हो गया ॥२८ - ३१॥
पितामहके यज्ञ करते समय दक्षिणके लिये लायी गयी एवं ब्रह्माके द्वारा बुलायी ये गायें विवरके कारण भटकने लगीं । उस विवरके द्वारपर स्वयं गणपति भगवान् स्थित हैं । जितेन्द्रिय मनुष्य उनका दर्शन करके समस्त कामनाओंको प्राप्त करता है । मुक्तिके आश्रयस्वरुप देवीके संगिनीतीर्थमें जाकर स्त्रान करनेसे मनुष्यको सुन्दर रुपकी प्राप्ति होती है तथा वह स्त्रानकर्त्ता पुरुष पुत्र - पौत्रसमन्वित होकर अनन्त ऐश्वर्यको प्राप्त करता है और विपुल भोगोंका उपभोग कर परम पदको प्राप्त करता है ॥३२ - ३५॥
ब्रह्मावर्त्त नामक तीर्थमें स्त्रान करनेसे मनुष्य निः संदेह ब्रह्मज्ञानी हो जाता है एवं वह निज इच्छाके अनुसार अपने प्राणोंका परित्याग करता है । हे विप्रश्रेष्ठो ! संगिनीतीर्थके बाद द्वारपाल रन्तुकके तीर्थमें जाय । उन महात्मा यक्षेन्द्रका तीर्थ सरस्वती नदीमें है । वहाँ स्त्रान करके उपवास - व्रतमें निरत परमज्ञानी व्यक्ति यक्षके प्रसादसे इच्छित फल प्राप्त करता है । हे विप्रवरो ! फिर मुनियोंद्वारा प्रशंसा - प्राप्त ब्रह्मावर्त्त तीर्थमें जाना चाहिये । ब्रह्मावर्त्तमें स्नान करनेसे मनुष्य निश्चय ही ब्रह्मको प्राप्त करता है ॥३६ - ३९॥
हे विप्रश्रेष्ठो ! उसके बाद श्रेष्ठ सुतीर्थक नामके स्थानपर जाना चाहिये । उस स्थानमें देवताओंके साथ पितृगण नित्य स्थित रहते हैं । पितरों वें देवोंकी अर्चनामें लगा रहनेवाला व्यक्ति वहाँ स्त्रानकर अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है तथा शाश्वत पितरोंको प्रसन्न करता है । धर्मज्ञ ! उसके बाद क्रमानुसार कामेश्वर तीर्थके अम्बुवनमें जाकर श्रद्धापूर्वक स्त्रान करनेसे मनुष्य सभी व्याधियोंसे छूटकर निश्चय ही ब्रह्मकी प्राप्ति करता है । उसी स्थानमें स्थित मातृतीर्थमें भक्तिपूर्वक स्त्रान करनेसे मनुष्यकी प्रजा ( संतति ) - की नित्य वृद्धि होती है तथा उसे अनन्त लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है । उसके बाद नियत आहार करनेवाला एवं जितेन्द्रिय व्यक्ति शीतवन नामक तीर्थमें जाय । हे महाविप्रो ! वहाँ दण्डक नामक एक महान् तीर्थ हैं; वह अत्यन्त दुर्लभ है । द्विजोत्तमो ! वह दण्डक नामका महान् तीर्थ दर्शनमात्रसे मनुष्यको पवित्र कर देता है ॥४० - ४५॥
उस तीर्थमें केशोंका मुण्डन करानेसे मनुष्य अपने पापोंसे मुक्त हो जाता है । वहाँ स्वानुलोमायन नामका एक दूसरा महान् तीर्थ है । हे द्विजोत्तमो ! वहाँ तीर्थ - सेवन करनेमें तत्पर परमज्ञानी विद्वान् लोग रहते हैं । त्रिलोकविख्यात उस तीर्थमें वे प्राणायामोंके द्वारा अपने लोमोंका परित्याग करते हैं और वे पवित्रात्मा विप्रगण परम गतिको प्राप्त करते हैं । वहींपर परम प्रसिद्ध दशाश्वमेधिक तीर्थ है । भक्तिपूर्वक उसमें स्त्रान करनेसे पूर्वोक्त फलकी ही प्राप्ति होती है । फिर श्रद्धालु मनुष्यको लोक - प्रसिद्ध मानुषतीर्थमें जाना चाहिये । उस तीर्थका दर्शन करनेसे ही पापोंसे मुक्ति हो जाती है ॥४६ - ५०॥
पूर्वकालमें व्याधद्वारा बाणसे विद्ध कृष्णमृग ( काला हरिण ) उस सरोवरमें स्त्रानकर मनुष्यत्वको प्राप्त हुए थे । उसके बाद उन सभी व्याधोंने उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे पूछा - द्विजोत्तमो ! हम लोगोंद्वारा बाणसे पीडित मृग इस मार्गसे जाते हुए सरोवरमें निमग्न होकर कहाँ चले गये ? उनके पूछनेपर उन्होंने उत्तर दिया - हम द्विजोत्तम वे ( कृष्ण ) मृग ही थे । इस तीर्थके माहात्म्यसे हम सब मनुष्य बन गये हैं । अतएव मत्सरसे रहित होकर श्रद्धापूर्वक इस तीर्थमें स्त्रान करनेसे तुम लोग निः संदेह समस्त पापोंसे विनिर्मुक्त हो जाओगे । फिर स्त्रन करनेसे शुद्ध - देह होकर वे सभी ( व्याध ) स्वर्ग चले गये । द्विजोत्तमो ! जो श्रद्धापूर्वक मानुषतीर्थके इस माहात्म्यको सुनते हैं, वे भी परम गतिको प्राप्त करते हैं ॥५१ - ५६॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें पैंतीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥३५॥
 

Comments
आमच्या टेलिग्राम ग्रुप वर सभासद व्हा. इथे तुम्हाला इतर वाचक आणि लेखकांशी संवाद साधता येईल. telegram channel

Books related to वामन पुराण Vaman Puran


चिमणरावांचे चर्हाट
नलदमयंती
सुधा मुर्ती यांची पुस्तके
झोंबडी पूल
अश्वमेध- एक काल्पनिक रम्यकथा
सापळा
श्यामची आई
गांवाकडच्या गोष्टी
खुनाची वेळ
अजरामर कथा
लोकभ्रमाच्या दंतकथा
मराठेशाही का बुडाली ?
कथा: निर्णय
शिवाजी सावंत
मृत्यूच्या घट्ट मिठीत