पुलस्त्यजी बोले - नारदजी ! तत्पश्चात् शिवजीको अपने करतलमें भयंकर कपालके सट जानेसे बड़ी चिन्ता हुई । उनकी इन्द्रियाँ व्याकुल हो गयीं । उन्हें बड़ा संताप हुआ । उसके बाद कालिखके समान नीले रंगकी, रक्तवर्णके केशवाली भयंकर ब्रह्महत्या शंकरके निकट आयी । उस विकराल रुपवाली स्त्रीको आयी देखकर शंकरजीने पूछा - ओ भयावनी स्त्री ! यह बतलाओ कि तुम कौन हो एवं किसलिये यहाँ आयी हो ? इसपर उस अत्यन्त दारुण ब्रह्महत्याने उनसे कहा - मैं ब्रह्महत्या हूँ; हे त्रिलोचन ! आप मुझे स्वीकार करें - इसलिये यहाँ आयी हूँ ॥१ - ४॥ 
ऐसा कहकर ब्रह्महत्या संतापसे जलते शरीरवाले त्रिशूलपाणि शिवके शरीरमें समा गयी । ब्रह्महत्यासे अभिभूत होकर श्रीशंकर बदरिकाश्रममें आये; किंतु वहाँ नर एवं नारायण ऋषियोंके उन्हें दर्शन नहीं हुए । धर्मके उन दोनों पुत्रोंको वहाँ न देखकर वे चिन्ता और शोकसे युक्त हो यमुनाजीमें स्नान करने गये; परंतु उसका जल भी सूख गया । यमुनाजीको निर्जल देखकर भगवान् शंकर सरस्वतीमें स्नान करने गये; किंतु वह भी लुप्त हो गयी ॥५ - ८॥
फिर पुष्करारण्य, धर्मारण्य और सैन्धवारण्यमें जाकर उन्होंने बहुत समयतक स्नान किया । उसी प्रकार वे नैमिषारण्य तथा सिद्धपुरमें भी गये और स्नान किये; फिर भी उस भयंकर ब्रह्महत्याने उन्हें नहीं छोड़ा । जीमूतकेतु शंकरने अनेक नदियों, तीर्थों, आश्रमों एवं पवित्र देवायतनोंकी यात्रा की; पर योगी होनेपर भी वे पापसे मुक्ति न प्राप्त कर सके । तत्पश्चात् वे खिन्न होकर कुरुक्षेत्र गये । वहाँ जाकर उन्होंने गरुडध्वज चक्रपाणि ( विष्णु ) - को देखा और उन शङ्ख - चक्र - गदाधारी पुण्डरीकाक्ष ( श्रीनारायण ) - का दर्शनकर वे हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे - ॥९ - १३॥
भगवान् शंकर बोले - हे देवताओंके स्वामी ! आपको नमस्कार है । गरुडध्वज ! आपको प्रणाम है । शङ्ख - चक्र - गदाधारी वासुदेव ! आपको नमस्कार हैं । निर्गुण, अनन्त एवं अतर्कनीय विधाता ! आपको नमस्कार है । ज्ञानाज्ञानस्वरुप, स्वयं निराश्रय किंतु सबके आश्रय ! आपको नमस्कार है । रजोगुण, सनातन, ब्रह्ममूर्ति ! आपको नमस्कार है । नाथ ! आपने इस सम्पूर्ण चराचर विश्वकी रचना की है । सत्त्वगुणके आश्रय लोकेश ! विष्णुमूर्ति, अधोक्षज, प्रजापालक, महाबाहु, जनार्दन ! आपको नमस्कार है । हे तमोमूर्ति ! मैं आपके अंशभूत क्रोधसे उत्पन्न हूँ । हे महान् गुणवाले सर्वव्यापी देवेश ! आपको नमस्कार है ॥१४ - १८॥ 
जगन्नाथ ! आप ही पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि, वायु, बुद्धि, मन एवं रात्रि हैं; आपको नमस्कार है । ईश्वर ! आप ही धर्म, यज्ञ, तप, सत्य, अहिंसा, पवित्रता, सरलता, क्षमा, दान, दया, लक्ष्मी एवं ब्रह्मचर्य हैं । हे ईश ! आप अङ्गोंसहित चतुर्वेदस्वरुप, वेद्य एवं वेदपारगामी हैं । आप ही उपवेद हैं तथा सभी कुछ आप ही हैं; आपको नमस्कार है । अच्युत ! चक्रपाणि ! आपको बारंबार नमस्कार है । मीनमूर्तिधारी ( मत्स्यावतारी ) माधव ! आपको नमस्कार है । मैं आपको लोकमें दयालु मानता हूँ । केशव ! आप मेरे शरीरमें स्थित ब्रह्महत्यासे उत्पन्न अशुभको नष्ट कर मुझे पाप - बन्धनसे मुक्त करें । बिना विचार किये कार्य करनेवाला मैं दग्ध एवं नष्ट हो गया हूँ । आप साक्षात् तीर्थ हैं, अतः आप मुझे पवित्र करें । आपको बारंबार नमस्कार है ॥१९ - २३॥ 
पुलस्त्यजीने कहा - भगवान् शंकरद्वारा इस प्रकार स्तुत होनेपर चक्रधारी भगवान् विष्णु शंकरकी ब्रह्महत्याको नष्ट करनेके लिये उनसे वचन बोले - ॥२४॥
भगवान् विष्णु बोले - महेश्वर ! आप ब्रह्महत्याको नष्ट करनेवाली मेरी मधुर वाणी सुनें । यह शुभप्रद एवं पुण्यको बढ़ानेवाली है । 
यहाँसे पूर्व प्रयागमें मेरे अंशसे उत्पन्न ' योगशायी ' नामस्से विख्यात देवता हैं । वे अव्यय - विकाररहित पुरुष हैं । वहाँ उनका नित्य निवास है । वहींसे उनके दक्षिण चरणसे ' वरणा ' नामसे प्रसिद्ध श्रेष्ठ नदी निकली है । वह सब पापोंको हरनेवाली एवं पवित्र है । वहीं उनके वाम पादसे ' असि ' नामसे प्रसिद्ध एक दूसरी नदी भी निकली है । ये दोनों नदियाँ श्रेष्ठ एवं लोकपूज्य हैं ॥२५ - २८॥
उन दोनोंके मध्यका प्रदेश योगाशायीका क्षेत्र हैं । वह तीनों लोकोंमें सर्वश्रेष्ठ तथा सभी पापोंसे छुडा देनेवाला तीर्थ हैं । उसके समान अन्य कोई तीर्थ आकाश, पृथ्वी एवं रसातलमें नही है । ईश ! वहाँ पवित्र शुभप्रद विख्यात वाराणसी नगरी है, जिसमें भोगी लोग भी आपके लोकको प्राप्त करते हैं । श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी वेदध्वनि विलासिनी स्त्रियों की करधनीकी ध्वनिसे मिश्रित होकर मङ्गल स्वरका रुप धारण करती है । उस शासन करते हैं । जहाँ चौराहोंपर भ्रमण करनेवाली स्त्रियोंझके अलक्त ( महावर ) - से अरुणित चरणोंको देखकर चन्द्रमाको स्थल - पद्मिनीके चलनेका भ्रम हो जाता है और जहाँ रात्रिका आरम्भ होनेपर ऊँचे - ऊँचे देवमन्दिर चन्द्रमाका ( मानो ) अवरोध करते हैं एवं दिनमें पवनान्दोलित ( हवासे फहरा रही ) दीर्घ पताकाओंसे सूर्य भी छिपे रहते हैं ॥२९ - ३३॥
जिस ( वाराणसी ) - में चन्द्रकान्तमणिकी भित्तियोंपर प्रतिबिम्बित चित्रमें निर्मित स्त्रियोंके निर्मल मुखकमलोंको देखकर भ्रमर उनपर भ्रमवश लुब्ध हो जाते हैं और दूसरे पुष्पोंकी ओर नहीं जाते । हे शम्भो ! वहाँ सम्मोहनलेखनसे पराजित पुरुषोंमें तथा घरकी बावलियोंमें जाता है, अन्यत्र किसीको ' भ्रमण ' ( चक्कर रोग ) नहीं होता । द्यूतक्रीडा ( जुआके खेल ) - के पासोंके सिवाय अन्य कोई भी दूसरेके ' पाश ' ( बन्धन ) - में नहीं डाला जाता तथा सुरत - समयके सिवाय स्त्रियोंके साथ कोई आवेगयुक्त पराक्रम नहीं करता ! जहाँ हाथियोंके बन्धनमें ही पाशग्रन्थि ( रस्सीकी गाँठ ) होती है, उनकी मदच्युतिमें ( मदके चूनेमें ) ही ' दानच्छेद ' ( मदकी धाराका टूटना ) एवं तर हाथियोंके यौवनागममें ही ' मान ' और ' मद ' होते हैं, अन्यत्र नहीं; तात्पर्य यह कि दान देनेकी धारा निरन्तर चलती रहती है और अभिमानी एवं मदवाले लोग नहीं हैं ॥३४ - ३७॥
विभो ! जहाँ उलूक ही सदा दोषा ( रात्रि ) - प्रिय होते हैं, अन्य लोग दोषोंके प्रेमी नहीं है । तारागणोंमें ही अकुलीनता ( पृथ्वीमें न छिपना ) हैं, लोगोंमें कहीं अकुलीनताका नाम नहीं है; गद्यमें ही वृत्तच्युति ( छन्दोभङ्ग ) होती हैं, अन्यत्र वृत्त ( चरित्र ) - च्युति नहीं दीखती । शंकर ! जहाँकी विलासिनियाँ आपके सदृश ( भस्म ) ' भूतिलुब्धा ' ' भुजंग ( सर्प ) - परिवारिता ' एवं ' चन्द्रभूषितदेहा ' होती हैं । ( यहाँ पक्षान्तरमें - विलासिनियोंके पक्षमें - संगतिके लिये, ' भूति ' पद ' भस्म ' और ' धन ' के अर्थमें, ' भुजङ्ग ' पद ' सर्प ' एवं ' जार ' के अर्थमें तथा ' चन्द्र ' पद ' चन्द्राभूषण ' के अर्थमें प्रयुक्त हैं । ) सुरेशान ! इस प्रकारकी वाराणसीके महान् आश्रममें सभी पापोंको दूर करनेवाले भगवान् ' लोल ' नामके सूर्य निवास करते हैं । सुरश्रेष्ठ ! वहीं दशाश्वमेध नामका स्थान है तथा वहीं मेरे अंशस्वरुप केशव स्थित हैं । वहाँ जाकर आप पापसे छुटकारा प्राप्त करेंगे ॥३८ - ४१॥ 
भगवान् विष्णुके ऐसा कहनेपर शिवजीने उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम किया । फिर वे पाप छुड़ानेके लिये गरुड़के समान तेज वेगसे वाराणसी गये । वहाँ परमपवित्र तथा तीर्थभूत नगरीमें जाकर दशाश्वमेधके साथ ' असी ' स्थानमें स्थित भगवान् लोलार्कका दर्शन किया तथा ( वहाँके ) तीर्थोंक्मे स्नान कर और पाप - मुक्त होकर वे ( वरुणासंगमपर ) केशवका दर्शन करने गये । उन्होंने केशवका दर्शन करके प्रणामकर कहा - हषीकेश ! आपके प्रसादसे ब्रह्महत्या तो नष्ट हो गयी, पर देवेश ! यह कपाल मेरे हाथको नहीं छोड़ रहा है । इसका कारण मैं नहीं जानता । आप ही मुझे यह बतला सकते हैं ॥४२ - ४५॥
पुलस्त्यजी बोले - महादेवका वचन सुनकर केशवने यह वाक्य कहा - रुद्र ! इसके समस्त कारणोंको मैं तुम्हें बतलाता हूँ । मेरे सामने कमलोंसे भरा यह जो दिव्य सरोवर है , यह पवित्र तथा तीर्थोंमें श्रेष्ठ है एवं देवताओं तथा गन्धर्वोंसे पूजित है । शिवजी ! आप इस परम श्रेष्ठ तीर्थमें स्नान करें । स्नान करनेमात्रसे आज ही यह कपाल ( आपके हाथको ) छोड़ देगा । इससे रुद्र ! संसारमें आप ' कपाली ' नामसे प्रसिद्ध होंगे तथा यह तीर्थ भी ' कपालमोचन ' नामसे प्रसिद्ध होगा ॥४६ - ४९॥
पुलस्त्यजी बोले - मुने ! सुरेश्वर केशवके ऐसा कहनेपर महेश्वरने कपालमोचनतीर्थमें वेदोक्त विधिसे स्नान किया । उस तीर्थमें स्नान करते ही उनके हाथसे ब्रह्म - कपाल गिर गया । तभीसे भगवानकी कृपासे उस उत्तम तीर्थका नाम ' कपालमोचन ' पड़ा ॥५० - ५१॥ 
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें तीसरा अध्याय समाप्त हुआ ॥३॥ 
 

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