पुलस्त्यजी बोले - शम्बरके चले जानेपर शंकरने भी नन्दीको बुलाकर कहा - नन्दिन् ! तुम्हारे शासनमें जो पर्वत आदि रहते हैं, उन्हें इस ( माङ्गलिक ) कार्यमें आनेके लिये आमन्त्रित करो । उसके बाद महेशके कहनेसे नन्दी शीघ्रातिशीघ्र गये और उन्होंने जलका आचमन कर गणानायकोंका स्मरण किया । नन्दीसे स्मरण किये गये सभी गणनाथोंने हजारोंकी संख्यामें शीघ्रतासे आकर त्रिदशेश्वर शंकरको प्रणाम किया । अविनाशी नन्दीने महात्मा शंकरसे हाथ जोड़कर सभी आये हुए गणोंको निवेदित किया ॥१ - ४॥ 
नन्दीने कहा - शम्भो ! तीन नेत्रोंवाले और जटा धारण करनेवाले तथा पवित्र जिन गणोंको आप देख रहे हैं, उन्हें रुद्र कहते हैं । इनकी संख्या ग्यारह कोटि है । बन्दरके समान मुँह और सिंहके समान पराक्रमवाले जिन्हें आप देख रहे हैं, वे मेरे नामको धारण करनेवाले यशस्वी इनके द्वारपाल हैं । हाथमें शक्ति लिये तथा मयूरध्वजी जिन छः मुखवालोंको आप देख रहे हैं, वे स्कन्द नामसे कुमार हैं । इनकी संख्या छाछठ करोड़ है । शंकर ! इतने ही छः मुख धारण करनेवाले शाखा नामके गण हैं और इतने ही विशाख और नैगमेय नामके गण हैं ॥५ - ८॥
शम्भो ! इन उत्तम प्रमथोंकी संख्या सात सौ करोड़ है । देवेश ! प्रत्येकके साथ उतनी ही मातृकाएँ भी हैं । इन भस्मविभूषित शरीरवाले शूलपाणि त्रिनेत्रधारियोंको शैव कहा जाता है । ये सभी गणेश्वर आपके भक्त हैं । विभो ! भस्मरुपी अस्त्र धारण करनेवाले अन्य अनगिनत पाशुपत गण सहायताके लिये आये हैं । पिनाक धारण करनेवाले जटामण्डलसे युक्त, अद्भुत भयङ्कर कालमुखनामक आपके अन्य गण ( भी ) आये हैं ॥९ - १२॥
खटवाङ्गसे संग्राम करनेवाले, लाल ढालसे युक्त महाव्रती नामके ये उत्तम युद्धके लिये आये हैं । जगदगुरो ! घण्टा नामके आयुधको धारण करनेवाले दिगम्बर और मौनी तथा निराश्रय नामक गण उपस्थित हुए हैं । तीन नेत्रोंवाले, पद्माक्ष एवं श्रीवत्ससे चिह्नित वक्षः स्थलवाले गरुड़ पक्षीपर चढ़े हुए तथा अविनाशी वृषभध्वजी गण यहाँ आ गये हैं । चक्र तथा शूल धारण करनेवाले महापाशुपत नामके गण आ गये हैं, जिन्होंने अभिन्नभावसे विष्णुके साथ भैरवकी पूजा ( यहाँ ) की है ॥१३ - १६॥
आपके रोमोंसे उत्पन्न ये सभी सिंहके समान मुखवाले शूल, बाण और धनुष धारण करनेवाले वीरभद्र आदि गण तथा दूसरे भी सैकडों एवं हजारों गण आपकी सहायताके लिये आ गये हैं । अपनी इच्छाके अनुसार आप इन्हें आदेश दें । उसके बाद सभी गणोंने पास जाकर वृषभध्वजको प्रणाम किया । भगवानने हाथसे उन्हें विश्वस्तकर बैठाया । महापाशुपत नामके अपने अध्यक्षोंको देखनेके बाद महेश्वरने उठकर उनको गले लगाया । उन लोगोंने महेश्वरको अभिवन्दित किया ॥१७ - २०॥
उसके बाद उस अत्यन्त विचित्र दृश्यको देखकर सभी गणेश्वरोंकी आँखें आश्चर्यसे भर गयीं । उसके बाद वे सभी बहुत ही लज्जित हो गये । गणोंको अचरजभरे नेत्रोंवाला देखकर योगिश्रेष्ठ शैलादि नन्दीने हँसकर गणाधिप देवेश शूलपाणिसे कहा - देव ! महेश्वर ! महापाशुपतोंको आपने जो गले लगाया है, उससे ये सभी गण आश्चर्यमे पड़ गये हैं । अतः महादेव ! विभो ! इनके तीनों लोकोंमें विख्यात रुप, ज्ञान एवं विवेकका अपने इच्छानुसार वर्णन करें । प्रमथोंके अधिपति नन्दीकी बात सुनकर भूतभावन महादेव भाव और अभावका विचार करनेवाले उन गणोंसे कहने लगे ॥२१ - २५॥ 
रुद्रने कहा - अहंकारसे विमूढ किंतु मेरी भक्तिसे युक्त आप लोगोंने वैष्णवपदकी निन्दा करते हुए भावपूर्वक शंकरकी पूजा की है । इसी अज्ञानके हेतु आप सभीका अनादर कर उनका विशेष आग्रह किया गया । जो मैं हूँ वही भगवान् विष्णु हैं एवं जो विष्णु हैं वही अविनाशी मैं हूँ । हम दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है । एक ही मूर्ति दो रुपोंमें अवस्थित है । अतः भक्तिभावसे युक्त इन पुरुषश्रेष्ठ गणोंने जैसा मुझे जाना है, निश्चय ही उस प्रकार आप लोग मुझे नहीं जानते । जड - बुद्धिवाले आप लोगोंने यतः नित्य मेरी निन्दा की है, अतः आप लोगोंको गले नहीं लगाया है । इस प्रकार कहनेपर गणोंने महेश्वरसे कहा ॥२६ - ३०॥
आप एवं जनार्दन ऐक्यरुपसे कैसे रहते हैं ? आप निर्मल, शुद्ध, शान्त, शुक्ल और निर्दोष एवं अज्ञानसे रहित हैं । किंतु वे अञ्जनके तुल्य हैं; अतः उनसे आपका मेल कैसे होता है ? उनके अभिप्राययुक्त वचनको सुननेके बाद जीमूतवाहन शंकरने मेघके समान गम्भीर वाणीमें हँसकर कहा - अपनी कीर्ति बढ़ानेवाली सम्पूर्ण बात मैं बतलाता हूँ; उसे सुनो - तुम लोग कभी भी महाज्ञानके योग्य नहीं हो । परंतु अपकीर्तिके डरसे मैं आप सभीके सामने गोपनीय वस्तु - स्थितिको प्रकाशित करता हूँ ॥३१ - ३४॥ 
मुझमें निरन्तर चित्त लगाये रहनेसे भी अन्य लोग प्रिय हैं । तुम लोग यत्नपूर्वक एक देहात्मक रुपको समझो । प्रयत्नपूर्वक दूध या घीसे स्त्रान कराने तथा स्थिरचिततापूर्वक चन्दन आदिद्वारा लेप करनेसे मुझे प्रसन्नता नहीं उत्पन्न होती । आरा लेकर मेरी देहको भले ही चीर डालो, परंतु अपनी कीर्तिके लिये नरकके योग्य आप भक्तोंकी मैं ( उससे ) रक्षा करता ही हूँ । ( क्योंकि ) यह संसार मुझे इस प्रकारका महान् कलङ्क न लगाये कि शंकरके तपस्वी भक्त नरकमें जाते हैं ॥३५ - ३८॥
इस प्रकारकी निन्दा करनेवाले लोग भयंकर नरकमें जाते हैं । इसलिये मैं आप लोगोंको अद्भुत नरकमें नहीं डालता । आप लोग मेरे स्वरुप जिन कमलनयन जगन्नाथकी निन्दा करते हैं, वे ही सर्वव्यापी गणेश्वर भगवान् शर्व हैं । इस समस्त चर और अचर लोकमें उनके समान कोई नहीं है । वे भगवान् श्वेतमूर्ति पीत, रक्त एवं अञ्जनके सदृश कान्तिवाले हैं । संसारमें उनसे श्रेष्ठ कोई दूसरा धर्म नहीं है । सर्वपूज्य वे सदाशिव ( सदा मङ्गल करनेवाले ) भगवान् ही सभी सात्त्विक, राजस, तामस एवं मिश्रित भावोंको धारण करते हैं ॥३९ - ४२॥ 
शंकरके वचनको सुनकर शैव आदि श्रेष्ठ गणोंनें कहा - भगवन् ! आप सदाशिवकी विशेषता प्रकट करनेवाले गुणको कहिये । प्रमथेश्वरने उनके इस वचनको सुनकर उन्हें निरञ्जन सदाशिवरुपको दिखलाया । उसके बाद हजारों गणोंने उन ईश्वरको हजारों मुख, चरण एवं भुजाओंवाला हुआ देखा । वे लोकोंसे सभी ओर व्याप्त थे तथा दण्डपाणि एवं अत्याधिक सुदुर्दृश्य थे । देवताओंके अस्त्र उनके दण्डमें दिखलायी पड़ रहे थे ॥४३ - ४६॥ 
उसके बाद पुनः गणोंने रुद्र एवं विष्णुके हजारों चिह्नोंसे युक्त एक मुख शंकरको देखा । उस रुपका आधा भाग शंकरके शरीरका था और आधा भाग गरुडध्वज था । ( एक आधा भाग ) गरुडध्वज वृषारुढ था एवं ( दूसरा आधा भाग ) वृषभध्वज गरुड़पर आरुढ़ था । गुणोंमें अग्रणी त्रिलोचन जैसे - जैसे रुप धारण करते जाते थे, वैसे - वैसे ही महापाशुपतगण भी होते जाते थे । वे योगी दो रुप धारण करनेवाले, एक रुप धारण करनेवाले एवं बिना रुपके भी हो गये । वे प्रतिक्षण श्वेत, रक्त, पीत, नील, मिश्र वर्णवाले एवं वर्णहीन होते गये । महापाशुपतोका भी स्वरुप हो गये । वे प्रतिक्षण श्वेत, रक्त, पीत, नील, मिश्र वर्णवाले एवं वर्णहीन होते गये । महापाशुपतोंका भी स्वरुप उनके रुपके अनुरुप होता गया । श्रीशंकर किसी क्षणमें इन्द्र, किसी क्षणमें सूर्य, किसी क्षणमें विष्णु एवं किसी क्षणमें पितामहके रुपमें स्वरुप बदलते गये । यह अत्यन्त आश्चर्यजनक दृश्य देखकर शैव आदि गणोंने ब्रह्मा, विष्णु, ईश एवं सूर्यको ( इनस्से ) अभिन्न समझा । उन लोगोंने जब देवाधिदेव सदाशिवको ( सभी देवोंसे ) अभिन्न मान लिया तब वे सभी पार्षद पापसे रहित हो गये । इस प्रकार अभेद - बुद्धिके कारण उनके पापसे विमुक्त हो जानेसे हरीश्वर शम्भु प्रसन्न हो गये । उन्होंने संतुष्ट होकर कहा - सुव्रतो ! तुम्हा रे इस प्रकारके ज्ञानसे मैं प्रसन्न हूँ । अब बहुतों - से वर फिर माँगो । मैं तुम्हें इच्छित वर दूँगा । उन्होंने कहा - भगवन् ! महेश्वर ! हमें यह वर दें कि भेदभाव रखनेके कारण उत्पन्न हमारे ( शेष ) सभी पाप नष्ट हो जायँ ॥४७ - ५६॥
पुलस्त्यजी बोले - शंकरने कहा ‘ ऐसा ही होगा ’ । उसके बाद अदृश्य होते हुए शंकरने उन सभी गणाधिपोंको आलिङ्गित कर उन्हें पापसे ( सर्वथा ) रहित कर दिया । उसके बाद श्रुतिकी उक्तिका जैसे ( शास्त्रोमें ) अनुगमन होता है उसी प्रकार वृष एवं मेघवाहन शरणागतोंके कष्टको हरण करनेवाले शंकरके साथ सभी गणपति मन्दरपर्वतको चारों ओरसे घेरकर रहने लगे । मेघके समान प्रमथोंसे घि रे शिव - चरणकी सेवा करनेवाले शुक्ल शरीरवाला पर्वतराज ऐसे सुशोभित हो रहा था जैसे नीले मृगचर्मसे ढके शरीरवाला एवं शरत्कालीन मेघके समान धवल रंगवाला शंकरका बलवान् वृषभ सुशोभित होता है ॥५७ - ५९॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें सड़सठवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥६७॥
 

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