सोचने-समझने का यह मतलब नहीं कि चलना-फिरना, उठना-बैठना, खेती-गिरस्ती आदि हरेक कामों को हरेक आदमियों के बारे में पहले से ही तय कर लिया था। यह तो भाग्यवाद (Fatalism) तथा 'ईश्वर ने जो तय कर दिया वही होगा' (determinism) वाली बात है। फलत: इसमें करने वालों की जवाबदेही जाती रहती है। वह तो मशीन की तरह ईश्वर की मर्जी पूरा करने वाले मान लिए जाते हैं। फिर उन पर जवाबदेही किसी भी काम की क्यों हो और वे पुण्य-पाप के भागी क्यों बनें? मशीन की तो यह बात होती नहीं और इस काम में वे ठहरे मशीन ही। सोचने-समझने का सिर्फ यही आशय है कि मूलस्वरूप कौन-कौन पदार्थ कैसे बनें कि यह सृष्टि चालू हो, इसका काम चले, यही बात उसने सोची और इसी के अनुसार सृष्टि बनाई। यह तो हमारा काम है कि हममें हरेक आदमी खुद भला-बुरा सोच के अपना रोज का काम करता रहे। इसीलिए तो हमें बुद्धि दी गई है। उसे देकर ही तो ईश्वर जवाबदेही से हट गया और उसने हम पर अपने कामों की जवाबदेही लाद दी।

अब जरा यह देखें कि ईश्वर के सोचने और तदनुसार सृष्टि बनाने के मानी क्या हैं। वह हमारे जैसा देहधारी तो है नहीं कि इसी प्रकार सोचे-विचारेगा। यह तो कही चुके हैं कि प्रलय में प्रधान या प्रकृति समान थी, एक रूप थी। उसमें अनेकता और विभिन्नता लाने के लिए सबसे पहले क्रिया होना जरूरी है। क्योंकि क्रिया से ही अनेकता और विभिन्नता होती हैं। मिट्टी का एक धोंधा है। क्रिया के करते ही उसे अनेक टुकड़ों में कर देते या उससे अनेक बरतन तैयार कर लेते हैं। मगर क्रिया के पहले जानकारी या ज्ञान जरूरी है। यह तो हम कही चुके हैं कि सोच-विचार के यह सृष्टि बनी है। एक बात यह है कि यदि फिजूल और बेकार चीजें न बनानी हों, साथ ही सृष्टि की सभी जरूरतें पूरी करनी हों तो जो कुछ भी किया जाए वह सोच-विचार के ही होना चाहिए। कुम्हार सोच-साच के ही बरतन बनाता है। किसान खेती इसी तरह करता है। नहीं तो अंधेरखाता ही हो जाए और घड़े की जगह हांडी तथा गेहूँ की जगह मटर की खेती हो जाए। यही कारण हैं कि सांख्य ने ईश्वर को न मान के भी सृष्टि के शुरू में यह सोचना-समझना या ज्ञान माना है। मगर ज्ञान तो जड़ प्रकृति में होगा नहीं और जीव का काम सांख्य के मत से सृष्टि करना है नहीं। इसीलिए वेदांत ने और गीता ने भी सृष्टि के मूल में ईश्वर को माना है। वह है भी परम-आत्मा या श्रेष्ठ-आत्मा।

वह ज्ञान होगा भी हम लोगों के ज्ञान जैसा कुछ बातों का ही नहीं, छोटा या हल्का-सा ही नहीं। वह तो सारी सृष्टि के संबंध का होगा, व्यापक और बड़े से बड़ा होगा। इसीलिए उसे महत्त्व या महान कहा है। उसके बाद जो क्रिया होगी उसी को अहम या अहंकार कहा है। यह हम लोगों का अहंकार नहीं हो के सृष्टि के मूल की क्रिया है। समष्टि या व्यापक ज्ञान की ही तरह यह भी व्यापक या समष्टि क्रिया है। नींद के बाद जब ज्ञान होता है तो उसके बाद पहले अहम या मैं और मेरा होने के बाद ही दूसरी क्रिया होती है, और प्रलय तो नींद ही है न ? इसीलिए उसके बाद की समष्टि क्रिया को अहंकार नाम दिया गया है। इस अहंकार या क्रिया के बाद प्रकृति की समता खत्म हो के विभिन्नता आती है। और आकाश, वायु, तेज (प्रकाश), जल, पृथिवी इन पाँचों की सूक्ष्म या अदृश्य मूर्त्तियाँ (शक्लें) बनती हैं। इन्हीं से आगे सृष्टि का सारा पसारा होता है।

इन पाँच सूक्ष्म पदार्थों या भूतों के भी, जिन्हें तन्मात्रा भी कहते हैं, वही तीन गुण होते हैं, जैसा कि कह चुके हैं। उनमें पाँचों के सात्त्विक अंशों या सत गुणों से क्रमश: श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, रसना, घ्राण ये पाँच ज्ञानेंद्रियाँ बनती हैं, जिनसे शब्दादि पदार्थों के ज्ञान होते हैं। ज्ञान पैदा करने के ही कारण ये ज्ञानेंद्रियाँ कहाती हैं। उन्हीं पाँचों के जो राजस भाग या रजोगुण हैं उनसे ही क्रमश: वाक, पाणि (हाथ), पाँव, मूत्रेन्द्रिय, मलेन्द्रिय ये पाँच कर्मेंद्रियाँ बनती हैं। इन पाँचों से ज्ञान न हो के कर्म या काम ही होते हैं। फलत: ये कर्मेंद्रियाँ कही गईं। और इन पाँचों के रजोगुणों को मिला के पाँच प्राण-प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान -बने। ये पाँचों के रजोगुणों के सम्मिलित होने पर ही बनते हैं। उसी तरह, पाँचों के सतगुणों को सम्मिलित करके भीतरी ज्ञानेंद्रिय या अंत:करण बनता है, जिसे कभी एक, कभी दो - मन और बुद्धि - और कभी चार - मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार - भी कहते हैं। उसके ये चार भेद चार कामों के ही चलते होते हैं, जैसे पाँच काम करने से ही एक ही प्राण पाँच प्रकार का हो गया। हमें यह न भूलना होगा कि जब हम सत या रजोगुण की बात करते हैं तो यह मतलब नहीं होता है कि खाली वही गुण रहते हैं। यह तो असंभव है। गुण तो तीनों ही हमेशा मिले रहते हैं। इसीलिए इन्हें एक दूसरे से चिपके हुए - 'अन्योन्यमिथुनवृत्तय:' - सांख्य कारिका (12) में लिखा है। इसलिए सत कहने का यही अर्थ है कि उसकी प्रधानता रहती है। इसी प्रकार रज का भी अर्थ है। रजोगुण-प्रधान अंश। दोनों में हरेक के साथ बाकी गुण भी रहते हैं सही; मगर अप्रधान रूप में।

अब बचे पाँचों तन्मात्राओं के तम:प्रधान अंश जिन्हें तमोंऽश या तमोगुण भी कहते हैं। उन्हीं से ये स्थूल पाँच महाभूत - आकाश आदि - बने। जो पहले सूक्ष्य थे, दीखते न थे, जिनका ग्रहण या ज्ञान होना असंभव था, वही अब स्थूल हो गए। जैसे अदृश्य हवाओं -ऑक्सीजन तथा हाइड्रोजन - को विभिन्न मात्राओं में मिला के दृश्यजल तैयार कहते हैं; ठीक वैसे ही इन सूक्ष्म पाँचों तन्मात्राओं के तम प्रधान अंशों को परस्पर विभिन्न मात्रा में मिला के स्थूल भूतों को बनाया गया। इसी मिलाने को पंचीकरण कहते हैं। पंचीकरण शब्द का अर्थ है कि जो पाँचों भूत अकेले-अकेले थे - एक-एक थे। उन्हीं में चार दूसरों के भी थोड़े-थोड़े अंश आ मिले और वे पाँच हो गए, या यों कहिए कि वे पाँच-पाँच की खिचड़ी या सम्मिश्रण बन गए। दूसरे चार के थोड़े-थोड़े अंश मिलाने पर भी अपना-अपना अंश। ज्यादा रहा ही। हरेक में आधा अपना रहा और आधे में शेष चार के बराबर अंश तो इसीलिए अपने आधे भाग के करते ही हरेक भूत अलग-अलग रहे। नहीं तो पाँचों में कोई भी एक दूसरे से अलग हो नहीं पाता। फलत: यह हालत हो गई कि पृथिवी में आधा अपना भाग रहा और आधे में शेष जल आदि चार रहे। यानी समूची पृथिवी का आधा वह खुद रही और बाकी आधे में शेष चारों बराबर-बराबर रहे। इस तरह समूची में इन प्रत्येक का आठवाँ भाग रहा। इसीलिए उसे पृथिवी कहते ही रहे। जल आदि की भी यही बात समझी जानी चाहिए।

यह ठीक हैं कि इस विवरण में सांख्य और वेदांत में थोड़ा-सा भेद है। पाँच प्राणों को सांख्यवाले पाँच कर्मेंद्रियों से जुदा नहीं मानते। इसलिए उनके मत से पाँच तन्मात्रा, दस इंद्रियाँ और अंत:करण यही सोलह पदार्थ अहंकार के बाद बने। उनके मत में पाँच तन्मात्रा की ही जगह पाँच महाभूत हैं। क्योंकि तन्मात्राओं के तामसी अंशों को ही मिलाने से ये पाँच भूत हुए। इसीलिए वे तन्मात्राओं और भूतों को अलग-अलग नहीं मानते। महाभूतों के बनने के बाद तन्मात्राएँ तो रह जाती भी नहीं। उनके सात्त्विक तथा राजस भागों से ज्ञानेंद्रियाँ, कर्मेंद्रियाँ, प्राण और अंत:करण बने। बचे-बचाए तामस अंश से, महाभूत। बाकी संसार तो इन्हीं महाभूतों का ही पसारा या विकास है, परिणाम हैं, रूपांतर है, करिश्मा है। इस प्रकार उनके ये सोलह तत्व या विकार सिद्ध होते हैं। वेदांतियों ने पाँच कर्मेंद्रिय, पाँच ज्ञानेंद्रियों, मन और बुद्धि ये दो अंत:करण - और कभी-कभी मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार ये चार अंत:करण - मान के सत्रह या उन्नीस पदार्थ मान लिए। पाँच भूतों को मिला लेने पर वे चौबीस हो गए। महान तथा अहंकार को जोड़ने पर छब्बीस और प्रकृति को ले के सत्ताईस हो गए। सांख्य के मत से तेईस रहे। मगर यह तो कोई खास बात है नहीं। यह ब्योरे की चीज है। ये पदार्थ तो सभी - दोनों ही - मानते ही हैं।

एक बात और। हम पहले कह चुके हैं कि गीता के मत से गुण प्रकृति से निकले हैं, बने हैं। मगर हमने अभी-अभी जो कहा है उससे तो गुणों के बजाए बुद्धि, ज्ञान या महत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्राएँ - यही चीजें - प्रकृति से निकली हैं। भले ही यह चीजें गुणमय ही हों। मगर गुणों का निकलना न कह के इन्हीं का निकलना कहने का मतलब क्या है? बात तो सही है। गुणों का बाहर आना सीधे नहीं कहा गया है। लेकिन ज्ञान या महत्त्व है क्या चीज, यदि सतगुण नहीं है? ज्ञान तो सत का ही रूप है न? उसी प्रकार अहंकार है क्या यदि रजोगुण या क्रिया है नहीं? अहंकार को तो समष्टि क्रिया ही कहा है और क्रिया रजोगुण का ही रूप है न? अब रह गए पंचभूत जिन्हें तन्मात्रा कहते हैं। वह तो तम के ही रूप हैं। आगे जब पंचीकरण के द्वारा वे दृश्य और स्थूल बनते हैं तब तो उन्हें तम का रूप कहते ही हैं। फिर पहले भी क्यों न कहें? यह ठीक है कि तम के साथ भी सत और रज तो रहेंगे ही, जैसे इनके इनके साथ तम भी रहता ही है। इसीलिए तो पंचतन्मात्राओं के सत-अंश से ज्ञानेंद्रियाँ और रज-अंश से कर्मेंद्रियाँ बनती हैं। इसलिए यह तो निर्विवाद है कि 'गुणा: प्रकृति सम्भवा:' - प्रकृति से गुण ही बाहर होते हैं।

चौदहवें अध्यांय के 3-4 श्लोकों में जो गर्भाधान की बात कही गई है उसका मतलब भी अब स्पष्ट हो जाता है। गर्भाधान के बाद ही गर्भाशय में क्रिया पैदा हो के संतान का स्वरूप धीरे-धीरे तैयार होता है। उसके पहले उसमें बच्चे का नाम भी नहीं पाया जाता। ठीक उसी तरह महान या समष्टि ज्ञानरूप चिंतन, संकल्प या सोच-विचार के बाद ही प्रकति के भीतर अहंकार या समष्टि क्रिया पैदा हो के पंचतन्मात्रादि की रचना होती है। जब तक भगवान के इस समष्टि ज्ञान का संबंध प्रकृति से नहीं होता, जब तक वह खयाल नहीं करता, तब तक प्रकृति में कोई भी क्रिया - मंथन - पैदा नहीं होती जिससे सृष्टि का प्रसार हो सके। प्रकृति की शांति, समता या एकरसता - घोर गंभीरता - भंग होती है अहंकार रूप मंथन क्रिया ही से और वह पैदा होती है। महत्तत्त्व, महान या समष्टि ज्ञान के बाद ही। इसी को उपनिषदों में ईक्षण या संकल्प कहा है, जैसा कि छांदोग्य में 'तदैक्षत बहुस्यां प्रजायेय' (6। 2। 3)। 'प्रजायेय' शब्द का अर्थ हैं कि प्रजा या वंश पैदा करें। इससे गर्भाधान की बात सिद्ध हो जाती है। गीता ने भी यही कहा है। गीता में गर्भाधान के बाद 'संभव:' और 'मूर्त्तय:' लिखने का मतलब भी ठीक ही है। स्वरूप ही तैयार होते हैं, पैदा होते हैं, आकृतियाँ बनती हैं।

हमने जो प्रकृति, महान अहंकार, पंचतन्मात्रा आदि की बात कही है उसका मतलब अब साफ हो गया। यहाँ सचमुच ही बच्चे या फल की तरह पैदा होने का सवाल तो है नहीं। प्रकृति तो पहले से ही होती है। महान का उसी से पीछे संबंध होता है। इसीलिए प्रकृति के बाद ही उसका स्थान होने से प्रकृति से उसकी उत्पत्ति अकसर लिखी मिलती है। महान के बाद ही आता हैं अहंकार। इसीलिए वह महान से पैदा होने वाला माना जाता है; हालाँकि वह प्रकृति की ही क्रिया है। उसके बाद पंचतन्मात्राएँ प्रकृति से ही बनती हैं। मगर कहते हैं कि अहंकार से तन्मात्राएँ पैदा हुईं। यह तो कही चुके हैं कि ये तन्मात्राएँ महाभूतों के सूक्ष्म रूप हैं। इसीलिए इन्हें भूत और महाभूत भी कहा करते हैं।

तेरहवें अध्यांय के 'महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च। इंद्रियाणि दशैकं च पंच चेंद्रियगोचरा:' (13। 5) का अर्थ यह है कि पाँच महाभूत (तन्मात्राएँ), अहंकार, समष्टि बुद्धि (महान), अव्यक्त या प्रकृति (प्रधान), ग्यारह इंद्रियाँ - दस बाहरी और एक अंत:करण - और इंद्रियों के पाँच विषय, यही क्षेत्र के भीतर आते हैं, क्षेत्र कहे जाते हैं। क्षेत्र का अर्थ है शरीर। मगर यहाँ समष्टि शरीर या सृष्टि की बुनियादी - शुरूवाली - चीज से मतलब है। इस श्लोक में वही बातें हैं जिनका वर्णन अभी-अभी किया है। श्लोक के पूर्वार्द्ध में तन्मात्राओं से ही शुरू करके उलटे ढंग से प्रकृति तक पहुँचे हैं। मगर ठीक क्रम समझने में प्रकृति से ही शुरू करना होगा। श्लोक में क्रम से तात्पर्य नहीं हैं। वहाँ तो कौन-कौन से पदार्थ क्षेत्र के अंतर्गत हैं, यही बात दिखानी है। इसीलिए उत्तरार्द्ध में ग्यारह इंद्रियाँ आई हैं। नहीं तो उलटे क्रम में इंद्रियों से ही शुरू करते। इंद्रियों के बाद जो उनके पाँच विषय लिखे हैं उनका कोई संबंध सृष्टिक्रम से या उसके मूल पदार्थों से नहीं है। पाँच तन्मात्रा, महान आदि के अलावे क्षेत्र के अंतर्गत जो विषय, राग, द्वेष आदि अनेक चीजें आगे गिनाई गई हैं उन्ही में ये पाँच विषय भी हैं।

सातवें अध्यािय में इंद्रियों का नाम न लेकर शेष पदार्थों का उल्लेख 'भूमिरापोनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा' (7। 4) श्लोक में आया है। जैसा कि पहले कहा गया है, यह अपरा या नीचेवाली प्रकृति का आठ भेद या प्रसार बताया गया है। तेरहवें अध्याैय के 'महाभूतानि' की जगह यहाँ पाँचों भूतों का नाम ही ले लिया है 'भूमि, जल, अनल (तेज), वायु और आकाश (ख)।' मगर उत्तरार्द्ध में जो 'मनो बुद्धिरेव च अहंकार:' शब्दों में मान, बुद्धि और अहंकार का नाम लिया है उसके समझने में थोड़ी दिक्कत है। जिस क्रम से तेरहवें अध्या य में नीचे से ही शुरू किया है, उसी क्रम से यहाँ भी नीचे से ही शुरू है, यह तो साफ है। मगर पृथिवी जल, तेज, वायु और आकाश के बाद तो क्रम है अहंकार, महान और प्रकृति का। इसलिए मन, बुद्धि, अहंकार का अर्थ क्रमश: अहंकार, महान, और प्रकृति ही करना होगा। दूसरा चारा है नहीं। इसमें बुद्धि का अर्थ महान तो ठीक ही है। वे दोनों तो एक ही अर्थवाले है। हाँ मन का अर्थ अहंकार और अहंकार का प्रकृति करने में जरा उलट-फेर हो जाता है। लेकिन किया जाए क्या? इस प्रकार गुणवाद और सृष्टि का क्रम तथा उसकी प्रणाली आदि बातें संक्षेप में स्पष्ट हो गईं। गीता के मत का इस संबंध में स्पष्टीकरण भी हो गया। इससे उसके समझने में आसानी भी होगी।

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