जनसाधारण को यह सुन के आश्चर्य होगा कि यह क्या बात है कि जो परले दर्जे का तत्वज्ञानी हो वही पागल भी हो और बाहरी सुध-बुध रखे ही न। मगर बात तो ऐसी ही है। वामदेव, जड़भरत आदि की ऐसी बातें बराबर कही जाती हैं भी, यही नहीं कि हिंदुओं के ही यहाँ यह चीज पाई जाती है, या गीता ने ही यही बात 'या निशा सर्वभूतानां' (2। 69) में कही है, या सुरेश्वराचार्य ने अपने वार्त्तिक में खुल के कह दिया है कि 'बुद्धतत्वस्य लोकोऽयं जड़ोन्मत्तपिशाचवत्। बुद्धतत्तवोऽपि लोकस्य जड़ोन्मत्तपिशाचवत्' - “पहुँचे हुए तत्वज्ञानी की नजरों में यह सारी दुनिया जड़, पागल और पिशाच जैसी है और दुनिया की नजरों में वह भी ऐसा ही है।' किंतु प्राचीनतम ग्रीक विद्वान अरिस्टाटिल (अरस्तू) ने भी प्राय: ढाई हजार साल पूर्व यही बात अपनी पुस्तक 'जीवन की बुद्धिमत्ता' (Wisdom of life) में यों कही है :-

'Men distinguished in philosophy, politics, poetry or art appear to be all of a melancholy temperament.' (page. 19)

'By a diligent search in lunatic asylums I have found individual cases of patients who were unquestionably endowed with great talents, and whose genius distinctly appeared through their madness' (I, 247).

'जिन लोगों ने दर्शन, राजनीति, कविता या कला में विशेषज्ञता प्राप्त की है उन सबों का ही स्वभाव कुछ मनहूस जैसा रहा है।' 'पागलखानों में यत्नपूर्वक अंवेषण करने पर हमने ऐसे भी पागल पाए हैं जिनका दिमाग निस्संदेह आले दर्जे का था और पागलपन की दशा में भी उनकी चमत्कारशील प्रतिभा साफ झलकती थी।' पश्चिमी दर्शनों का इतिहास का लेखक दुरान्ती (Duranti) भी लिखता है कि 'The direct connection of madness and genius is established by the biographics of great men, such as Rousseau, Byron, Alfieri etc.'

'पागलपन और प्रतिभा का सीधा संबंध स्थापित हो जाता है यदि हम रूसो, बायरन, आलफीरी जैसे महापुरुषों की जीवनियाँ गौर से पढ़ें।'

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