इतने लंबे विवरण के बाद अब मौका आता है कि हम अवतारवाद के संबंध में इन कर्मों को लगा के देखें कि कर्मवाद वहाँ किस प्रकार लागू होता है। यह तो कही चुके हैं कि समष्टि कर्मों के फलस्वरूप पृथिवी आदि पदार्थ बनते हैं जिनका ताल्लुक एक-दो से न हो के समुदाय से है, समाज से है, मानव-संसार से है। सभी पदार्थों से है। यदि यह ढूँढ़ने लगें कि पृथिवी को किस व्यक्ति के कर्म ने तैयार किया-कराया, तो यह हमारी भूल होगी। एक से तो उसका संबंध है नहीं। पृथिवी के चलते हजारों-लाखों को सुख-दु:ख भोगना है, गल्ला पैदा करना है, घर बनाना है, कपड़ा तैयार करना है - होना है। उससे तलवारें, भाले, तोपें, गोले, लाठियाँ बन के जाने कितने मरें-मारेंगे। फिर एक के कर्म का क्या सवाल? पृथिवी आदि पदार्थ एक के कर्म से क्यों बनेंगे?

जरा यही बात अवतारों के विषय में भी लगा देखें। आखिर अवतारों का काम क्या है? उनसे होता क्या है? उनकी भली-बुरी उपयोगिता है क्या? गीता कहती है कि 'भले लोगों की रक्षा, बुरों के नाश और धर्म - सत्कर्मों, पुण्य-कार्यों, समाज-हितकारी कामों-की मजबूती एवं प्रचार के लिए बार-बार - समय-समय पर - अवतार होते हैं', - "परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दृष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगेयुगे" (4। 8)। अवतार के पहले की भी समाज की दशा यों कही गई है, 'जब-जब धर्म - सत्कर्मों - का खात्मा या अत्यंत ह्वास हो जाता है और अधर्म - बुरे कर्मों - की वृद्धि हो जाती है तभी-तभी भगवान खुद आते हैं' - "यदायदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्" (4। 7)। इन श्लोकों में जो 'यदा यदा' - जब-जब - तथा' युगे-युगे' - समय-समय पर - कहा है उसका तात्पर्य यही है कि ऐसी ही परिस्थिति के साथ अवतार का ताल्लुक है। जिस प्रकार खेती-बारी के लिए जमीन और सींचने के लिए पानी की जरूरत है, साँस के लिए जैसे हवा जरूरी है; ठीक वैसे ही ऐसी परिस्थिति आ जाने पर उसका समुचित सामना करने, उसके प्रतिकार के लिए अवतार जरूरी है। पृथिवी, जल, वायु आदि का काम जिस प्रकार दूसरों से नहीं हो सकता है - जिस तरह पृथिवी आदि के बिना काम चल नहीं सकता - ठीक उसी तरह अवतार का काम और तरह से, दूसरों से चल नहीं सकता - उसके बिना काम हो नहीं सकता। इससे साफ हो जाता है कि जिस प्रकार पृथिवी आदि पदार्थ बनते हैं, पैदा होते हैं लोगों के समष्टि कर्मों के ही करते उन्हीं के फलस्वरूप, ठीक वैसे ही अवतार होते हैं लोगों के समष्टि कर्मों के ही फलस्वरुप उन्हीं के करते। अब यही देखना है कि यह बात होती है कैसे।

इसमें विशेष दिक्कत की तो कोई बात है नहीं। राम, कृष्ण आदि अवतारों के शरीरों से भले लोगों को - साधु-महात्माओं, देवताओं, तपस्वियों, सदाचारियों और भोलीभाली जनता को - तो बेशक आराम पहुँचता है, शांति मिलती है, उनकी चिंता और परेशानी मिटती है, उनके कर्मों में आसानी होती, सहायता पहुँचती है और वे निर्द्वन्द्व विचरते रहते हैं। जैसा कि खुद कृष्ण ने ही कहा है कि 'लोक-संग्रह या लोगों के पथदर्शन के खयाल से भी तो कर्म करना ही चाहिए' - "लोक-संग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्त्तुमर्हसि" (3। 20)। उनने यह भी साफ ही कह दिया है कि 'मेरे अपने लिए तो कुछ भी करना-धरना शेष नहीं है, क्योंकि मुझे कोई चीज हासिल करनी जो नहीं है। फिर भी कर्म तो मुस्तैदी से करता रहता ही हूँ क्योंकि यदि ऐसा न करूँ तो सब लोग मेरी ही देखा-देखी कर्मों को छोड़ बैठेंगे। नतीजा यह होगा कि सारी गड़बड़ पैदा हो जाएगी। फिर तो अव्यवस्था होने के कारण लोग चौपट ही हो जाएँगे' - "न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन”, आदि (3। 22-26)। इसके अनुसार तो सभी को अच्छे से अच्छा पथ दर्शन एवं नेतृत्व मिलता है, जिससे सभी बातों की मर्यादा चल पड़ती है और समाज मजबूती के साथ उन्नति के पथ में अग्रसर होता है। इस तरह जितनों का कल्याण होता है उतनों का सत्कर्म या उनके पूर्व जन्म के अच्छे कामों का ही यह फल माना जाना चाहिए। यदि वे आराम पाते और निर्बाध आगे बढ़ते हैं तो इसमें दूसरों की कमाई, प्रारब्ध या पूर्व जन्मार्जित कर्मों की कोई बात आती ही नहीं। जिन्हें सुख मिलता है, सुविधाएँ मिलती हैं उनके अपने ही कर्मों के ये फल हैं, यही मानना होगा।

दूसरी ओर ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें मिटाने के लिए अवतारों के शरीर होते हैं। जिनकी शैतानियतें मिटानी हैं, जिन्हें तबाह-बर्बाद करना है अवतारों के करते जितनों को आठ-आठ आँसू रोने पड़ते हैं, जो खुद और जिनके सगे-संबंधी भी चौपट होते हैं, रो-रो मरते हैं, जिनकी भीषण से भीषण यंत्रणाएँ होती हैं, जिनकी स्वेच्छाचारिता बंद हो जाती और निरंकुशता एवं स्वच्छंदता पर पाले पड़ जाते हैं, उनकी यह दशा होती है यद्यपि अवतारों के शरीरों से ही, उनके कामों से ही। फिर भी इसका कारण उन्हीं दुराचारियों, दुष्कृत - दुष्ट - लोगों के अपने ही बुरे कर्म मानने होंगे। यदि किसी की लाठी से सिर फूटा या तलवार से गला काटा तो यह ठीक है कि सिर फूटने एवं गला कटने का प्रत्यक्ष कारण लाठी या तलवार है। मगर ऐसे कारणों के संपादन करने वाले वे दुष्कर्म माने जाते हैं जो पहले या पूर्वजन्म में ऐसे लोगों ने किए थे जिनके सिर फूटे या गले कटे। यह तो कर्मों का मोटा-मोटी हिसाब माना ही जाता है। इसलिए अवतारों के शरीरों के निर्माण में भी इन दुष्ट जनों के ही बुरे कर्म कारण हैं। पहले कही चुके हैं कि यदि किसी के शरीर से दूसरों को कष्ट या आराम पहुँचे तो उनके भी भले-बुरे कर्म उस शरीर के कारण होते हैं। शरीरवाले के कर्म तो होते ही हैं। फलत: जिस प्रकार साधारण शरीर के निर्माण में समष्टि कर्म कारण बनते हैं। उसी तरह अवतारों के शरीरों के निर्माण में भी।

एक बात और भी जान लेने की है। यह जरूरी नहीं कि पूर्व जन्म के ही भले-बुरे कर्म वर्तमान जन्म के सुख-दु:खों के कारण हों। इसी देह के अच्छे या गंदे काम भी कारण बन सकते हैं, बन जाते हैं। बासी या पुराने ही कर्म ऐसा करें यह कोई नियम नहीं है। सब कुछ निर्भर करता है कर्मों की शक्ति पर, उनकी ताकत पर, उनकी भयंकरता या उत्तमता पर। इसीलिए नीतिकारों ने माना है कि 'तीन साल, तीन महीने, तीन पखवारे या तीन दिनों में भी जबर्दस्त कर्मों के भले-बुरे फल यहीं मिल जाते हैं' - "त्रिभिर्वर्षैस्त्रिभिर्मासैस्त्रिभि: पक्षैस्त्रिभिर्दिनै:। अत्युत्कटै: पुण्यपापैरिहैव फलमश्नुते।" इसीलिए तो यह भी कहा जाता है कि 'इस हाथ दे, उस हाथ ले।' इसलिए दुष्ट जनों के जिन भयंकर कुकर्मों के करते हाहाकार मच जाता है, बहुत संभव है कि अवतारों के कारण वही हों या वह भी हों। इसी प्रकार महान पुरुषों के तप और सदाचरण भी, जो उन पापी जनों से त्राण पाने के लिए किए जाते हैं, अवतारों के कारण बन जाते हैं, बन सकते हैं। मीमांसकों ने जानें कितने ही ऐसे कर्म माने हैं जिनके फल जल्दी ही मिलते हैं।

इस प्रकार समष्टि कर्मों के चलते ही पृथिवी आदि की ही तरह अवतारों के शरीर बनते हैं यह बात समझ में आ जाती है। जो लोग ऐसा सोचते हों कि हमारे भले-बुरे समष्टि कर्म भगवान को नहीं खींच सकते; क्योंकि वह तो सबके ऊपर माना जाता है, उनके लिए तो पहले ही कहा जा चुका है कि कर्मों के अनुसार ही तो भगवान को चलना पड़ता है। उसे भी कर्म की अधीनता एक अर्थ में स्वीकार करनी ही पड़ती है। यदि लोगों के कर्मों के अनुसार उसे हजार परेशानी उठानी पड़ती हो, दौड़-धूप और चिंता, फिक्र करनी पड़ती हो, तो यह तो मामूली-सी बात ठहरी। जब लोगों ने ऐसा भी माना है कि भक्तजन भगवान को नचाते हैं, तो फिर अवतार बनना क्या बड़ी बात है? जिनके कर्मों के करते पूर्व बताए ढंग से परमाणुओं की क्रियाएँ, दौड़धूप और चावल पेड़, मनुष्य के शरीर आदि बनना-बिगड़ना निरंतर जारी है, अवतारों के शरीर भी उन्हीं की क्रियाओं के भीतर क्यों न आ जाएँ, उन्हीं से तैयार क्यों न हो जाएँ? आखिर ये सारी चीजें होती ही हैं संसार का काम चलाने के ही लिए न? फिर यदि अवतारों के बिना कोई काम रुकता हो या न चल सकता हो, तो उनके शरीर भी वैसे कामों के ही लिए क्यों न बन जाएँगे?

यह ठीक है कि जितनी चीजें बनती हैं सभी अनिवार्य आवश्यकताओं और जरूरतों के ही चलते। प्रकृति या संसार के भीतर व्यर्थ और फिजूल पदार्थों की गुंजाइश हई नहीं। बल्कि प्रकृति तो ऐसी चीजों की दुश्मन है। इसीलिए उन्हें जल्द मिटा देती है। वैसी ही आवश्यकताओं के चलते अवतार भी होते हैं। यही कारण है कि आवश्यकताओं की पूर्ति होते ही अवतारों का काम पूरा हो जाता है और उनके शरीर खत्म हो जाते हैं। किन्हीं का काम कुछ देर से होता है और किन्हीं का जल्द। कहते हैं कि नृसिंह के बिना हिरण्यकशिपु को कोई मार नहीं सकता था। कहानी तो ऐसी है कि उसने अपने लिए ऐसा ही सामान कर लिया था। यही वजह है कि भगवान को नृसिंह बनना और उसे मार के फौरन विलीन हो जाना पड़ा। पीछे नृसिंह का शरीर रह न सका। यही बात राम, कृष्ण आदि के बारे में भी है। जो जो काम उनने किए, जो पथदर्शन उनसे हुए वे औरों से हों नहीं सकते थे। मगर उन कामों के लिए कुछ ज्यादा समय चाहता था। इसीलिए वे लोग देर तक रहे। हमारा मतलब यहाँ पौराणिक आख्यानों पर मुहर लगाने या उन्हें अक्षरश: सही बताने से नहीं है। हमें तो यहीं दिखाना है कि अवतारों के लिए दार्शनिक युक्ति के अनुसार जो परिस्थिति चाहिए वह संभव है या नहीं।

यह बात भी अब साफ होई चुकी कि अवतारों के शरीरों में भगवान को खिंच आना ही पड़ता है। अवतार शब्द का तो अर्थ ही है। उतरना या खिंच आना अगर संसार में बुरे-भले कर्म माया-ममताशून्य जनों तक को अपनी ओर खींच सकते हैं और उनमें दया या रोष पैदा करवा के हजारों कठिनतम काम उनसे करवा सकते हैं, तो फिर भगवान का खिंच जाना कोई आश्चर्य नहीं है यदि बाँसुरी का स्वर मृग या साँप को खींच सकता है, उन्हें मुग्धा एवं बेताब कर सकता है; यदि बछड़े की आवाज गाय को बहुत दूर से खींच सकती है; यदि किसी प्रेमी का प्रेम हजारों कोस से किसी को घसीट सकता है, तो सृष्टि की जरूरत या लोगों के भले-बुरे कर्म तथा प्रेम और द्वेष भगवान को उस शरीर में क्यों नहीं खींच लेंगे। न्याय और वैशेषिक दर्शनों ने तो स्पष्ट कहा है कि लोगों के कर्मों से ही परमाणुओं में क्रिया जारी होती है और वे आपस में खिंच के मिलते-मिलते महाकाय पृथिवी, समुद्र आदि बना डालते हैं। फिर प्रलय के समय उलटी क्रिया होने से अलग होते-होते वही सबको मिटा देते हैं। ऐसी दशा में उन्हीं कर्मों से भगवान के शरीर क्यों न बन जाएँ? उनमें वह खिंच जाए क्यों नहीं?

अब एक ही सवाल और रह जाता है। कहा जा सकता है कि शरीर बन जाने पर तो भगवान की भी वही हालत हो जाएगी जो साधारण जीवों की। वही तकलीफ-आराम, वही माया-ममता और वही हैरानी-परेशानी होगी ही। इसका उत्तर गीता ने चौथे अध्याफय में ही दे दिया है। वहाँ लिखा है कि, 'अविनाशी एवं जन्मशून्य होते हुए और सभी पदार्थों का शासक रहते हुए भी मैं अपनी माया के बल से शरीर धारण करता हूँ। मगर अपने स्वभाव को कायम रखता हूँ जिससे माया मुझ पर अपना असर नहीं जमा पाती' - "अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया" (4। 6)। माया कहने और अपने स्वभाव को कायम रखने की बात बोलने का मतलब यह है कि एक तो भगवान का शरीर साधारण लोगों जैसा देखने पर भी वैसा नहीं है; किंतु मायामय और नटलीला जैसा है। नट की कला की कितनी ही बातें असाधारण होती हैं। वे देखने में चाहे जो लगें; मगर उनकी हकीकत कुछ और ही होती है। देखने वाले चकाचौंध में पड़ के और का और समझ बैठते हैं। यही बात अवतारों के भी शरीरों की हैं। दूसरी बात यह है कि साधारण लोगों की तरह माया-ममता में वे दबते नहीं। उनका अपना स्वभाव, अपना ज्ञान, अपनी अनासक्ति और अपना बेलागपन बराबर कायम रहता है। खानपान आदि सारी क्रियाएँ उस शरीर के लिए आवश्यक होने के कारण ही होती हैं जरूर। मगर उनमें वे अवतार लिपटते नहीं, चिपकते नहीं। वे इन सब बातों से बहुत ऊपर रहते हैं।

यह भी जान लेना जरूरी है कि गीता में इस माया को दैवी या अलौकिक शक्तिवाली कहा है, जिसमें हजारों गुण, खूबियाँ या करिश्मे होते हैं - 'दैवीह्येषा गुणमयी मममाया' (7। 14)। इसीलिए उस माया के चलते जो शरीर बनेगा उसमें मामूली नटों के करिश्मों से हजार गुने अधिक करिश्मे होंगे - चमत्कार होंगे। वह तो महान इंद्रजाल होगा। इसी के साथ-साथ यह भी बात है कि जिस तरह कर्मों की व्यवस्था बता के भगवान के शरीर बनने की रीति कही जा चुकी है। वह असाधारण है, गैरमामूली है। इसीलिए जो निराले, अलौकिक काम अवतार करते हैं वह औरों में पाए नहीं जाते, पाए जा नहीं सकते। यह तो सारी प्रणाली ही अलौकिक है, निराले कर्मों का खेल है, भगवान की लीला है। भगवान भी दिव्य हैं, निराले हैं। उनकी माया भी वैसी ही है। अनोखे कर्मों से ही उनके शरीर बनते हैं, न कि मामूली कर्मों से। इसीलिए गीता ने कह दिया है कि इन सारी निराली बातों को जो ठीक-ठीक समझता है, भगवान के दिव्य जन्म एवं दिव्य कर्म को जो बखूबी जान जाता है, मरने के बाद वह पुनरपि जन्म नहीं ले के भगवान ही बन जाता है - 'जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वत:। त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन' (4। 9)।

`अवतारों के संबंध में गीता की बातें सामान्य रूप से बताई जा चुकीं। अब एक खास बात कहके यह प्रसंग पूरा करना है। हमने जो परमाणुओं के जुटने से पृथिवी आदि के बनने और अलग होने से उनके नष्ट हो जाने तथा प्रलय के आ जाने की बात कह दी है उससे यह तो पता लगी गया कि प्रलय और कुछ चीज नहीं है, सिवाय इसके कि वह कर्मों के, और इसीलिए सभी पदार्थों के जो उस समय रह जाते हैं, विराम का समय है, विश्राम का काल है। संसार में विश्राम का भी नियम पाया जाता है। इसीलिए कर्मवाद के माननेवालों ने कर्मों के सिलसिले में ही उसे माना है। इसीलिए वे प्रलय को कर्मों का विश्राम काल और सृष्टि को उनके काम या फल देने का समय मानते हैं।

इसी नियम के अनुसार जब-जब जहाँ-जहाँ समष्टि कर्मों की प्रेरणा से अवतारों की आवश्यकता अनिवार्य हो जाती है तब-तब तहाँ-तहाँ अवतार पाए जाते हैं, होते हैं। किसी खास देश या खास समय में ही अवतारों का मानना भारी भूल है। गीता को यह बात मान्य नहीं है। इसीलिए अवतार के प्रकरण में सिर्फ 'जब-जब, या समय-समय पर' 'यदायदाहि', 'युगे-युगे' (4। 7-8) यही कहा है। वहाँ किसी देश या मुल्क की बात पाई नहीं जाती है। पुराण-इतिहासों में भी सिर्फ भूलोक या मर्त्त्यलोक ही कहा है और यही बात प्रधान है। यदि कहीं एकाध जगह भारतवर्ष आया है तो वह या तो यों ही आ गया है दृष्टांत के रूप में, या अवतार विशेष के सिलसिले में ही, जो भारतवर्ष में ही हुए हैं। मगर दरअसल देश या मुल्क का कोई नियम नहीं है। मानव-समाज के ही कल्याण के लिए अवतार होते हैं और वह समाज सभी देशों में है। इसलिए यहूदी, इस्लाम या ईसाई धर्मों में जिन महापुरुषों या प्रमुख आचार्यों की बात आती है, जो धर्म संस्थापक माने जाते हैं, उन्हें अवतार मानने में गीता को कोई उज्र नहीं है। गीता के अनुसार तो वे सबके-सब अवतार हईं। यों तो 'यद्यद्विभूतिमत्' (10। 41) में सभी प्रकार के विलक्षण पुरुषों या पदार्थों को भगवान की ही विभूति आम-तौर से माना है।

इस प्रकार हमने देखा कि यदि ईश्वर या कर्मवाद की शरण ली गई है तो सिर्फ सृष्टि के कामों को पूरी तौर से चलाने के लिए। मालूम होता है कि इनके बिना कोई स्थान खाली था, गैप - gap - था। उसी की पूर्ति के लिए इन्हें माना गया। मगर पीछे हमारा पतन ऐसा हो गया कि हम अपना सारा यत्न छोड़ के इन्हीं भगवान और भाग्य - कर्म - के भरोसे बैठने लगे! यही बात अब तक जारी है।

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