सन् १६२८ में शिवाजी का जन्म हुआ था। इनकी माँ जीजाबाई एवं पिता शाहजी थे। उस सदी में काशी के प्रसिद्ध विद्वान् गंगाभट्ट ने इन्हें चित्तौड़ के राणा लक्ष्मण सिंह का वंशज बताया। शाह जी ने एक दूसरा विवाह भी किया था, जिससे खिन्न जीजाबाई पति की जमींदारी में आकर रहने लगी। जमींदारी लगभग लड़खड़ा चुकी थी।, पर जीजाबाई के आने पर कोणदेव जी की चतुरता और लगन से वह पुनः लहलहा उठी। माँ ने बेटे में सारा अपना सुख पाया और उसे रामायण-महाभारत की कहानियाँ सुना-सुना कर तराशने लगी। कोणदेव ने घुड़सवारी, तलवारबाजी के करतब, धनुष-बाण का अभ्यास ही नहीं कराया अपितु सफल रणनीति, छापामार युद्ध के तरीके और लाभ के दाँव-पेंच भी सिखाये। शिवाजी घोड़े की पीठ पर अधिक समय बिताते, चना-गुड़ साथ रखते कठिन साधना में तल्लीन हो गये। बीजापुर को स्वतंत्र कराने का लक्ष्य शिवाजी जी की आंखों में तैरने लगा। आसपास के युवकों को इन्होंने संगठित किया और एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की चुनौतियाँ सामने रख दिया। १८ वर्ष के रहे होंगे शिवाजी जी जब दक्षिण में तोरण के दुर्ग को आक्रमण में ले लिया वर्षा ऋतु के समय, जब उसके शासक और सेना दुर्ग से बाहर थे। शस्त्रास्त्र और धन-रसद भी शिवाजी के हाथ लगे।

किलेदार ने बीजापुर के सुल्तान से शिकायत किया। शिवाजी ने दरबारियों को ले-देकर मिला लिया था। फलतः सुल्तान ने शिवा जी को दुर्ग का शासक बनाकर पूर्व किलेदार को पदच्युत कर दिया। शिवा जी ने उसके निकट एक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण कराया, जिसका नाम रायगढ़ रखा। सिंहगढ़ और पुरन्दर के किले भी ये ले लिये। चार दुर्ग इनके पास अब थे। धन की कमी अवश्य पड़ गई किला बनवा लेने के बाद। तभी बीजापुर के सुल्तान का एक सैनिक कारवाँ बीजापुर का विशेष खजाना लेकर उधर से जा रहा था। शिवा जी ने यह धन अपने त्वरित सैनिक अभियान में हथिया लिया। बीजापुर का सुल्तान झल्ला उठा और शिवा जी को दरबार में उपस्थित होने की आज्ञा दिया, जिसे शिवा जी ने ठुकरा दिया। उसने इनके पिता शाहजी को बन्दी बनवा लिया, जिन्हें शिवा जी ने अपनी सूझ-बूझ से मुगल सम्राट शाहजहाँ के साथ समझौता कर एक शाही पत्र से छुड़वा लिया। बीजापुर के सुल्तान ने शिवा जी को पकड़ने के लिए अफजल खाँ को भेजा। एक कूटनीतिज्ञ मुलाकात में अफजल खाँ को शिवा जी ने मार गिराया। बीजपुर का सुल्तान हारता गया, शिवा जी जीतते गये। अन्त में पिता शाह जी ने बीजापुर के सुल्तान एवं शिवा जी के बीच एक समझौता करा दिया। अब शिवाजी मुगलों की ओर मुड़े, औरंगजेब मुगल बादशाह हो गया था। उसने दक्षिण के सूबेदार शाइस्ता खाँ को शिवा जी को बन्दी बनाने भेजा। भारी सैनिक तैयारी के साथ साइस्ता खाँ ने शिवा जी को घेरा, पर छापामार रणनीति में शिवा जी ने रात को सोते समय कुछ सैनिकों को लेकर शाइस्ता खाँ पर हमला किया। शाइस्ता खाँ भागा, पर उसकी ऊंगलियाँ कट गई। शाइस्ता खाँ का पुत्र मारा गया। औरंगजेब भी अनेक पराजय झेलने से रुष्ट होगया और जयसिंह को सैनिक अभियान में भेजा।

जयसिंह और शिवाजी में समझौता हुआ और शिवा जी इस समझौते के अंदर औरंगजेब से मिलने उसकी राजधानी दिल्ली गये। जयसिंह के पुत्र रामसिंह ने मध्यस्थता किया। पर, औरंगजेब ने इन्हें अपमानित किया और बन्दी बना लिया। शिवा जी बीमारी का बहाना कर रोग से बचने के लिए टोकरे में मिठाइयाँ बँटवाने के लिए बाहर भेजने लगे। उसी मिठाई की दो टोकरी में एक दिन बैठकर स्वयं बेटे के साथ भाग गये और मथुरा, प्रयाग, काशी, गया होते हुए पूना पहुँचे। समर्थ गुरु रामदास ने शिवा जी को एक राष्ट्र निर्माता की गरिमा दिया। सन् १६७४ में इन्होंने छत्रपति की पदवी धारण किया। काशी के विद्वान् गंगा भट्ट ने यज्ञोपवीत करवाकर सारे अनुष्ठान पूरे करवाये। शिवा जी पर भूषण ने 'शिवा बावनी' नाम से एक काव्य रचना प्रस्तुत किया, जिसपर बावन लाख स्वर्ण मुद्रायें, बावन गाँव और बावन हाथी पुरस्कार में पाये। शिवा जी मंदिर-मस्जिद को समान सम्मान देने वाले महान राष्ट्रनिर्माता थे। सन् १६८० में इन्होंने देह छोड़ा।

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