एक मिल के भोंपू के गुरु-गर्जन ने काम शुरू हो जाने की घोषणा की एक नया दिन प्रारम्भ हुआ। जमीन के चारों ओर कलता हुआ वह कर्कश और गहरा स्वर मानो धरती की अंतड़ियों से बाहर निकल रहा था। बरसात में भीगी मटमैली धुंधली अगस्त की सुबह अपने में एक अजीब सा अवसाद लिए थी, मानो किसी अनिष्ट की ओर संकेत कर रही हो। उधर भोंपू बज रहा था, इधर इंजीनियर बोबरोव अभी चाय पी रहा था। पिछले कई दिनों से उसके उन्निद्र रोग ने अधिक गम्भीर रूप धारण कर लिया था। हालांकि वह हर रात भारी सिर लिए सोने जाता और बार-बार चौंक कर झटके के साथ उठ बैठता, फिर भी शीघ्र ही उसकी आंख लग जाती। किन्तु वह चैन की नींद नहीं सो पाता था । पौ फटने से बहुत पहले ही वह जाग जाता। मन चिड़चिड़ा हुआ रहता, और लगता मानो सारा शरीर टूट रहा है। निश्चय ही इसका कारण उसकी मानसिक और शारीरिक थकान थी। इसके अलावा उसे माफिया के इंजेक्शन लेने की पुरानी लत थी, जिसने उसके रोग को अधिक उग्र बना दिया था। किन्तु आजकल वह अपनी इस आदत को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए जी-जान से प्रयत्न कर रहा था ।
इस समय वह खिड़की के पास बैठा हुआ चाय पी रहा था । चाय उसे बिलकुल बदमजा और फीकी जान पड़ रही थी । खिड़की के शीशों पर बारिश की बूंदें टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएं खींचते हुए नीचे पानी के गड्ढों में गिर कर छोटी-छोटी उमियों में परिणत हो जाती थीं। खिड़की के बाहर खुरदुरे और रुक्ष विलो वृक्षों से ---- जिनके तने नंगे ठूठ के समान थे और डालियां हरे-भूरे पत्तों से लदी थीं-घिरा हुआ एक चौकोर तालाब दीखता था। हवा के झोकों से तालाब की सतह पर हल्की सी लहरें तिर जाती थी और विलो के पत्ते चांदी-से चमचमाने लगते थे । बारिश के थपेड़ों से मुरझाई, अधमरी घास क्षत-विक्षत सी होकर धरती पर झुक आयी थी। पड़ोस का गांव, दूर क्षितिज पर फैले जंगल' की ऊंची-नीची, कटी-फटी झुरमुट छाएं और काले-पीले परिधान में झिल- मिलाता खेत- सब एक भूरे धुंधलके में सिमटे से दिखायी देते थे, मानो बीच में धुंध का झीना-सा परदा गिर गया हो । सात बजे बोबरोव कन्टोप वाली बरसाती पहन कर घर से बाहर निकल अाया। वह उन अस्थिर और अधीर प्रकृति के लोगों में से था, जो सुबह के समय परेशान और उद्विग्न हो जाते है; शरीर टूट-सा रहा था, अांखें भारी हो रही थीं, मानो कोई उन्हें जोर से दबा रहा हो और मुंह का स्वाद बासी- कसैला सा हो रहा था । किन्तु इन सब कष्टों से अधिक दुःखदायी वह मानसिक संघर्ष था जो इधर कई दिनों से उसके मन में उथल-पुथल मचा रहा था। उसके साथियों की बात अलग थी-जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण आदिम, हल्का- फुल्का और व्यवहारिक था; जो बात इतने दिनों से उसके दिल में कांटे की तरह चुभ रही थी, यदि वे उसे जान पाते, तो शायद हंस कर उड़ा देते; बात जैसी भी हो, वे उसकी परेशानी को तो समझ ही न पाते । मिल में अपने काम से बोबरोव को ऐसी घृणा होने लगी थी मानो वह उसे काट खाने को दौड़ता हो; उसका यह खौफ दिन-पर-दिन बढ़ता ही जाता था। यदि वह अपनी रुचि, प्रवृत्ति और स्वभाव के अनुकूल खेती-बाड़ी, प्राध्या- पन या कोई ऐसा ही काम, जिसमें ज्यादा दौड़-धूप करने की गुंजायश न हो, चुन लेता, तो उसके लिए अधिक उपयुक्त और सुविधाजनक होता । इंजीनियरिंग से उसे अधिक संतोष प्राप्त नहीं होता था । यदि उसकी मां प्राग्रह न करती, तो वह कॉलेज के तीसरे वर्ष में ही अपना विषय बदल लेता। वास्तविक जीवन के कठोर प्रहारों से उसके स्वभाव की नारी-सदृश कोमलता आहत सी हो गयी थी। उसे लगता था मानो जीतेजी उसकी खाल खींच ली गयी हो। कभी-कभी ऐसी छोटी-मोटी घटनाएं, जिन्हें दूसरे लोग आसानी से नजरन्दाज कर देते, उसके मन में देर तक खटकती रहतीं। बोबरोव शक्ल-सूरत से सीधा-सादा व्यक्ति लगता था- - कहीं दिखावे की बू नहीं थी। पतला-दुबला और जरा नाटे कद का उसका शरीर था, किन्तु उसकी रग-रग से एक अशान्त और अधीर कान्ति फूटी पड़ती थी।
उसके चेहरे की विशेषता उसके उन्नत गोरे ललाट में निहित थी। आंखों की विस्फारित पुतलियां, प्राकार में एक दूसरे से भिन्न, इतनी बड़ी थीं कि भूरी आंखें काली सी जान पड़ती थीं। उसकी धनी, ऊंची-नीची भौंहें नाक के ऊपर माथे के बीचों-बीच आपस में उलझ गयीं थीं, जिससे उसकी आंखें स्थिर, कठोर और कुछ-कुछ वैराग्य-भावना में डूबी सी दिखलायी देती थीं। उसके होंठ पतले और फड़कते हुए थे, किन्तु उनमें क्रूरता का आभास नहीं मिलता था । उसके होठों की बनावट कुछ बेडौल सी थी - मुंह का दाहिना छोर बाएं छोर की अपेक्षा तनिक ऊंचा था; उसकी उजली दाढ़ी और मूछे छोटी और छितरी हुई थीं, मानो किसी नौजवान की मसें भीगी हों। यदि उस सादे-साधारण चेहरे का कोई प्राकर्षण था तो वह उसकी मुस्कराहट में छिपा था। जब वह मुस्कराता तो एक स्निग्ध, उल्लसित सा भाव उसकी आंखों में चमकने लगता, और उसका पूरा चेहरा खिल जाता। आधा मील चलने के बाद वह एक छोटे से टीले पर चढ़ गया। नीचे मिल के विस्तार का पूरा अनवरुद्ध दृश्य बीस वर्ग मील के घेरे में चारों ओर फैला था । मिल क्या थी, लाल ईटों का एक अच्छा-खासा शहर था। चारों ओर लम्बी, कालिख में पुती काली चिमनियां सिर उठाए खड़ी थीं। गन्धक और पिघले हुए लोहे की तीखी गन्ध हवा में व्याप्त हो रही थी। समूचा वातावरण एक अनवरत, कर्णभेदी कोलाहल में डूबा था। चार पवन-भट्टियों की भीमकाय चिमनियों के समूह सारे दृष्य पर छाये हुए थे। उनके पास ही गर्म हवा परि- चारित करने के लिए पाठ ऊष्ण-पवन चूल्हे तथा गोल गुम्बदों वाले पाठ विशालकाय लौह-बुर्ज खड़े थे। पवन भट्टियों के आसपास अन्य इमारतें दिखलायी देती थीं- - मरम्मत के कारखाने, ढलाई-घर, धुलाई-सफाई का खाता, एक इंजन शैड, लोहे की पटरियां ढालने वाला कारखाना, खुले मुंह की और लोहा गलाने की भट्टियां, इत्यादि । मिल का अहाता तीन विशाल प्राकृतिक सोपानों में नीचे उतर गया था। छोटे-छोटे इंजन चारों दिशाओं में दौड रहे थे। पहले वे सबसे नीचे की सतह पर नजर आते, फिर कर्कश सीटी बजाते हुए ऊपर की ओर भागते, कुछ क्षणों के लिए सुरंगों में विलीन हो जाते और फिर सफेद भाप में लिपटे हुए बाहर निकल आते, पुलों को घर्घराते हुए पार करते, फिर पत्थर की बाड़ों के संग-संग इस तरह दौड़ते जाते मानो हवा में उड़ रहे हों और अन्त में कच्ची धातु और कोयले का चूरा पवन भट्टियों में फेंक आते । दूर, उन प्राकृतिक सोपानों के पीछे, पांचवीं और छठी पवन भट्टियों के निर्माण-स्थल पर अराजकता का ऐसा साम्राज्य फैला था कि देखने वाला हक्का- बक्का सा रह जाता । लगता था मानो एक भयंकर भूकम्प वहां जबर्दस्त उथल-
पुथल मचा गया हो । कुटे हुए पत्थरों तथा विभिन्न आकृतियों और रंगों के ईटों के अनगिनत ढेर, रेत के टीले, चौकोर पत्थरों के अम्बार, लोहे की चादरों और लकड़ी के ढेर -सबकुछ अस्त-व्यस्त सा बिखरा था। लगता था मानो बिना किसी कारण या प्रयोजन के, किसी विचित्र संयोग से ये सब वस्तुएं यहां जमा हो गयी हों। सैकड़ों ठेले और हजारों प्रादमियों की चहल-पहल को देख कर लगता था मानो किसी भग्न-बाल्मीक के इर्द-गिर्द असंख्य चीटियां रेंग रही हैं। चूने की सफेद चुनचुनाती धूल हवा में धुंध की तरह छा गयी थी। कुछ और दूर, क्षितिज के पास मजदूरों की भीड़ लगी थी। वे एक लम्बी मालगाड़ी से सामान उतार रहे थे। रेल के डब्बों से ईंटों का अविरल प्रवाह फट्टों पर सरकता हुआ नीचे आ रहा था, लोहे की चादरें झनझनाती हुई नीचे गिर रही थी और लकड़ी के पतले तख्ते हवा में कांपते हुए से उड़ रहे थे। एक ओर खाली गाड़ियां रेल की ओर सरक रहीं थीं, दूसरी ओर से सामान से लदी गाड़ियां वापिस लौट रही थीं। राज-मजदूरों की खेनियों की स्पष्ट खटाखट, बायलर की कीलों पर लगती हुई हथौड़ों की गूंजती चोटें, भाप के हथौड़ों की भारी कड़कड़ाहट, भाप की नलियों की शक्तिशाली कुंकार और सीटी, और कभी- कभी धरती के भीतर से जमीन को थर्रा देनेवाले विस्फोट का धमाका चारों ओर से उठती हुई हजारों आवाजें एक दूसरे में घुल-मिल कर एक दीर्घ लपलपाते कोलाहल में परिणत हो रहीं थीं। यह एक ऐसा विचित्र दृष्य था जो बरबस मन को स्तम्भित, अभिभूत सा कर लेता था । एक विशालकाय, पेचीदी और विधिवत चलने वाली मशीन के समान मानव-श्रम का काम पूरी तरह जारी था। हजारों आदमी- इंजीनियर, राज मजदूर, कारीगर, बढ़ई फिटर, भूमि खोदने वाले मजदूर, तरखान, लुहार- दुनिया के चारों कोनों से यहां इकट्ठा हुए थे ताकि वे औद्योगिक विकास को एक कदम और आगे ले जाने की खातिर अपना सब कुछ-बल और स्वास्थ्य, शाक्ति और बुद्धि - स्वाहा कर दें। पेट भरने का यही एक लौह-नियम था, जिसका अनुसरण किये बिना जीवित रहना असंभव था। उस दिन बोवरोव का मन असाधारण रूप से खिन्न था । साल में तीन- चार बार उस पर घने अवसाद का विचित्र भाव घिर आता था और वह चिड़- चिड़ा सा हो जाता था। वह अवसाद का भाव आम तौर पर किसी पतझड़ की सुबह, जब वदली घिरी होती, अथवा सरदी की शाम, जब बर्फ पिघल' रही होती, उसे आ दबोचता । सब चीजें सूखी, कान्ति-हीन सी जान पड़तीं, लोगों के चेहरे फीके, भद्दे और रुग्ण से दिखायी देने लगते, उनकी बातचीत से केवल जी ऊबता, लगता मानो कोई दूसरे लोक से बोल रहा है । उस दिन लोहे की पटरियों के कारखाने का चक्कर लगाते हुए जब उसने मजदूरों के कोयले की कालिख में लिपे-पुते, आग में तपे हुए पीले चेहरों को देखा, तो उसे विशेष रूप से झुंझलाहट हुई । सफेद गर्म लोहे से उड़ती भभकती हुई भाप मजदूरों के हाथ-पैरों को झुलसा जाती थी, और पतझर की ठंडी हवा के कड़कड़ाते झोंके खुली हुई दहलीज से भीतर आकर हड्डियों को भेद जाते थे। उसे लगा मानो वह भी मजदूरों की शारीरिक यातना को उनके साथ भुगत रहा है। उसे अपने सजे- संवारे रूप का, सुन्दर कीमती पोशाक और तीन हजार रूबल के वार्षिक वेतन का ध्यान हो पाया और शर्म से उसका माथा झुक गया। दो एक वेल्डिंग-भट्टी के पास खड़े होकर वह देखने लगा ।
हर क्षण भट्टी का जलता हुआ भीमकाय जबड़ा खुलता और एक अन्य धधकती हुई भट्टी से हाल' में निकले हुए पचास सेर वजन के फौलाद के धधकते टुकड़ों को एक-एक कर निगल जाता । पन्द्रह मिन्ट बाद, दर्जनों मशीनों में से कर्णभेदी आवाज के साथ गुजरते हुए फौलाद के ये टुकड़े कारखाने के दूसरे सिरे पर लम्बी चमचमाती लोहे की पटरियों की शक्ल में प्रकट होते और वहां उनके अम्बार लग जाते । किसी ने पीछे से आकर बोबरोव का कंधा छुआ। खीजकर वह घूम गया -देखा, सामने उसका सहयोगी स्वेजेवस्की खड़ा है । बोबरोव को स्वेजेवस्की से सख्त नफरत थी। उसकी कमर हमेशा कुछ ऐसी झुकी रहती, मानो चोरी करने जा रहा हो या सलामी कर रहा हो। उसके होठों पर सदा एक व्यंगपूर्ण मुस्कराहट खेलती रहती, अपने ठंडे लिसलिसे हाथों को वह हमेशा रगड़ता रहता। उसके हाव-भाव में कुछ ऐसा था जिससे खुशामद की, गिड़गिड़ाहट और विद्वेश की, बू आती थी। मिल में कहीं कोई बात हो जाती, तो उसी को हमेशा सबसे पहले उसकी खबर लगती । यदि वह जान लेता कि कोई बात अमुक व्यक्ति को कष्ट पहुंचाएगी, तो जानबूझ कर उसके सामने वही बात खूब नमक-मिर्च लगाकर सुनाता । बात करते समय उसके हाथ- पांव स्थिर न रहते थे-जिस व्यक्ति के साथ बात कर रहा होता, उसकी बगलों, कंधों, हाथों और कोट के बटनों को बार-बार छूता रहता । "अरे भाई तुमसे मिले मुद्दत हो गयी, स्वेजेवस्की ने खिखियाते हुए बोबरोव का हाथ पकड़ लिया । " पुस्तकें पढ़ने में लीन थे क्या ?" "नमस्कार," बोबरोव ने अपना हाथ छुड़ाते हुए अनमने भाव से कहा। 'बस, मेरी तबियत ठीक नहीं थी। "जिनेन्को के यहां तुम्हें सब लोग बहुत याद करते हैं," संकेत भरी आवाज में स्वेजेवस्की कहता गया । "आजकल' तुम वहां क्यों नहीं जाते ? अभी कुछ दिन पहले मिल के डायरेक्टर महोदय वहां मौजूद थे; तुम्हारे बारे में पूछताछ कर रहे थे। बातों-ही-बातों में पवन भट्टियों की चर्चा चल पड़ी । बस, फिर क्या था, उन्होंने तुम्हारी प्रशंसा के पुल' बांध दिये।" अच्छा, मैं धन्य हुआ !" बोबरोव ने सिर झुकाने का अभिनय किया। "सच कह रहा हूं, वह कहते थे कि बोर्ड के सदस्य तुम्हें एक बहुत निपुण इंजीनियर मानते हैं । उनके विचार में तुम बहुत दूर तक जाओगे । कहते थे कि नाहक हमने मिल का डिजाइन बनवाने के लिये फ्रांस से इंजीनियर बुलवाया जवकि तुम्हारे जैसे अनुभवी व्यक्ति यहां मौजूद हैं। किन्तु..." 'अव यह कुछ नागवार बात कहेगा," बोबरोव ने सोचा। 'एक बात पर उन्हें आपत्ति है। तुम जो सबसे अलग-थलग रहते हो, किसी से मिलते-जुलते नहीं, एक रहस्य की दीवार जो तुमने अपने इर्द-गिर्द खड़ी कर रखी है, वह उन्हें कुछ जंचती नहीं। हां भई, याद पाया ! इधर-उधर की बातों में मैं तुम्हें सबसे बड़ी खबर सुनाना तो भूल ही गया । संचालक महोदय फरमा रहे थे कि कल बारह बजे स्टेशन पर हम सब लोगों का मौजूद रहना जरूरी है। 'क्या फिर किसी से भेंट करने जाना है ?" 'बिलकुल ठीक ! अच्छा, बतायो, इस बार कौन आ रहा है ?" स्वेजेवस्की के चेहरे पर एक भेद भरी मुस्कराहट खिल उठी और जाहिरा खुशी से वह अपने हाथ रगड़ने लगा। वह दिलचस्प खबर जो सुनाने वाला था ! "मुझे कुछ नहीं मालूम," बोबरोव ने कहा । " अनुमान लगाना मेरे बस की बात नहीं। "अरे, कोशिश तो करो। जो नाम जबान पर आये, वही कह डालो।" बोवरोव ने कुछ न कहा और भाप से चलनेवाले एक माल-असबाब उठाने वाले यंत्र को देखने का उपक्रम करने लगा। स्वेजेवस्की ने जब उसे इस मुद्रा में देखा तो और भी अधीर हो उठा । " शर्तिया तुम कभी नहीं बता सकते । खैर, मैं तुम्हारी उत्सुकता को और अधिक नहीं बढ़ाऊंगा । सुना है, खुद क्वाशनिन यहां पधार रहे हैं।" उसने जिस दास-भाव से उस नाम का उच्चारण किया, उसे सुन कर बोबरोव का मन घृणा से भर उठा। " इसमें इतनी महत्वपूर्ण बात क्या है ?" उसने लापरवाही से पूछा। "अरे, कैसी बात करते हो ! संचालक-मंडल' में वह जो जी में आये करता है, जो उसके मुंह से निकल गया, वही ब्रह्मवाक्य माना जाता है । इस बार मंडल ने निर्माण कार्य की गति को तेज करवाने की जिम्मेदारी उसके कंधों पर सौंपी है -या यू कहो कि उसने मंडल की ओर से खुद यह जिम्मे- दारी अपने हाथों में ली है। उसके यहां आने पर देखना कैसी हाय-तौवा मचेगी। पिछले साल उसने मिल का निरीक्षण किया- तुम्हारे यहां आने से पहले की बात है, ठीक है न ? मैनेजर और चार इंजीनियरों को खड़े-खड़े बरखास्त कर दिया गया। मुनो, तुम्हारी पवन-भट्टी कब तक तैयार हो जाएगी ?"* " एक तरह से तैयार ही समझो। " चलो यह भी ठीक हुआ । क्वाशनिन की उपस्थिति में ही नींव डालने के काम के साथ-साथ इसकी भी खुशी मना लेंगे। तुम कभी उससे मिले हो ?". नहीं, कभी नहीं। नाम जरूर सुना है।" "मुझे उससे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। सच मानो, एक ही आदमी है अपनी किस्म का । पीटर्सवर्ग में ऐसा कौन है जो उसे नहीं जानता ? पहली बात तो यह कि वह इतना मोटा है कि अपने पेट पर दोनों हाथ नहीं मिला सकता। क्यों, तुम्हें यकीन नहीं होता क्या ? भगवान कसम, ऐसी ही बात है। उसने अपने लिए खास गाड़ी भी बनवायी है, जिसकी समूची दाई दीवार कब्जों पर खुलती है । कद भी कुछ छोटा नहीं, ताड़ सा ऊंचा है । बाल सूर्ख हैं और आवाज तोप की तरह गूंजती है। लेकिन पट्ठा है कितना होशियार ! भगवान जाने, तमाम-की-तमाम जॉयन्ट-स्टॉक कम्पनियों के संचा- लक-मंडलों का सदस्य है। साल में सिर्फ सात बार उनकी बैठकों में भाग लेता है और उसके एवज में दो लाख रूबल खड़ा कर लेता है । जव कभी सामान्य सदस्यों की बैठक में कुछ मंजूर करवाना होता है, तो उसकी योग्यता की तुलना में दूसरे लोग घास छीलते से दिखाई देते हैं । झूठ और धांधली से भरी रिपोर्ट भी वह इस ढंग से प्रस्तुत कर सकता है कि कम्पनी के भागीदार काले' को सफेद समझ लें और खुश होकर संचालक-मंडल का शुक्रिया अदा करने में कोई कसर. न उठा रखें । आश्चर्य की बात तो यह है कि वह स्वयं नहीं जानता कि वह क्या बक रहा है । किन्तु उसे अपने पर इतना भरोसा है कि बस उसी के बूते पर बात को निभा ले जाता है। कल जब तुम उसका भाषण सुनोगे तो कोई आश्चर्य नहीं यदि तुम्हें यह गलतफहमी हो जाए कि उसका सारा जीवन पवन भट्टियों के बीच बीता है, हालांकि हकीकत यह है कि उसे उनके बारे में उतना ही ज्ञान है, जितना संस्कृत के सम्बंध में मेरा । * इस्तेमाल में लाने से पहले पवन भट्टी को कच्ची धातु के पिघलने के ताप-विन्दु तक गरम किया जाता है। यह ताप-विन्दु लगभग ३,०००° फारिन्हीट है। इस काम में कभी-कभी महीनों लग जाते हैं । 'बहुत ही मजेदार बा-ला-ला-ला !" बोबरोव ने मुंह फेर लिया और जानबूझ कर लापर- वाही के साथ वेसुरी आवाज में गाने लगा। "लो मैं तुम्हें एक मिसाल देता हूं। जानते हो, पीटर्सबर्ग में लोगों का वह स्वागत कैसे करता है ? गुसलखाने में पानी से भरी टब में वह अपना लाल चमकता हुआ सिर वाहर निकाले बैठा रहता है, और कोई राज-मंत्री या अन्य अफसर वहीं, अदब से झुक कर खड़ा हुआ उसे अपनी रिपोर्ट सुनाता है । खाने में भी वह एक नम्बर का पेटू है और बढ़िया-से-बढ़िया भोजन चुनने की तमीज रखता है। क्वाशनिन की पसन्द का भुना हुआ मांस सारे शहर में प्रसिद्ध हो चुका है और बड़े-बड़े रेस्तरांओं के विशिष्ट पकवानों में उसकी गणना होती है। रही स्त्रियों की बात, सो उसके सम्बंध में भी एक मजेदार घटना है, जो तीन साल पहले घटी थी। जब उसने देखा कि बोबरोव उसकी पूरी बात सुने बिना ही जा रहा है, तो उसने उसके कोट का बटन पकड़ लिया । 'जानो मत," वह याचना भरे स्वर में बुदबुदाया । बात है । मैं संक्षेप में ही तुम्हें सुना दूंगा । तोन साल पहले की बात है, पतझड़ में एक निर्धन आदमी पीटर्सवर्ग आया। बेचारा कोई क्लर्क रहा होगा, उसका नाम इस वक्त मुझे याद नहीं आ रहा है । वह किसी पुश्तैनी जायदाद के झगड़े के सिलसिले में पीटर्सबर्ग आया था। सुबह दफ्तरों के चक्कर काटता और दुपहर को पन्द्रह-बीस मिनटों के लिए 'ग्रीष्म-वाटिका' में बैठकर आराम करता । इसी तरह चार-पांच रोज गुजरे। रोज वह एक स्थूलकाय, सुर्ख बालों वाले महाशय को बाग में टहलते हुए देखा करता था। एक दिन दोनों में बातचीत चल पड़ी। लाल बालों वाला व्यक्ति और कोई नहीं, क्वाशनिन ही था। उसने उस गरीब पुवक की राम कहानी सुन कर उसके प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट की । किन्तु क्वाशनिन ने उसे अपना नाम नहीं बताया। एक. दिन लाल बालों वाले व्यक्ति ने उस युवक से कहा, 'क्या तुम किसी भद्र महिला से इस शर्त पर विवाह करने के लिए तैयार हो कि विवाह के एकदम बाद तुम उसे छोड़ दोगे और फिर उससे दुबारा नहीं मिलोगे ?' उन दिनों वह युवक भूखा मर रहा था। 'मैं राजी हूं !' उसने कहा। लेकिन पहले लेन-देन की बात तय कर लो । रुपया मुझे पेशगी चाहिए।' वह युवक कच्ची गोलियां नहीं खेला था। आखिर सौदा पट गया । एक सप्ताह बाद लाल बालों वाले महाशय ने उसे एक बढ़िया कोट पहनने के लिए दिया और पौ फटते ही उसे अपने संग गांव के एक गिरजे में ले गया । आदमी न प्रादमजात, गिरजा सुनसान पड़ा था। एक कोने में दुल्हन परदा किये चुपचाप खड़ी थी, किन्तु परदे के बावजूद उसका सौदर्य और यौवन छिपा न रह सका। विवाह की रस्म शुरू हुई।
युवक को लगा कि उसकी वधू बहुत उदास है। उसने दबे स्वर में उसके कानों में कहा, 'मुझे लगता है कि तुम अपनी इच्छा के विरुद्ध यहां आयी हो।' और शायद तुम्हारा भी यही हाल है, लड़की ने उत्तर दिया । अब सारी पोल खुल गयी। ऐसा जान पड़ता था कि लड़की की मां ने जोर जबरदस्ती करके यह विवाह उसके सिर पर थोप दिया था। बात यह थी कि सीधे तौर पर लड़की को क्वाशनिन के हवाले करते हुए उसकी भी आत्मा संकोच करती थी। इसीलिए यह षडयंत्र रचा गया था। कुछ देर तक दोनों में इसी तरह बातचीत होती रही। आखिर उस युवक ने लड़की के सामने यह सुझाव रखा, 'क्यों न हम एक चाल चलें ? अभी हम दोनों जवान हैं, और सम्भव है हमारे भाग्य में अभी खुशकिस्मती बदा हो। प्रानो, क्वाशनिन को यहीं छोड़ कर हम दोनों भाग चलें।' लड़की दिलेर और होशियार थी। बोली : ' मैं तैयार हूं, चलो !" विवाह सम्पन्न हो जाने के बाद सब लोग गिरजे के बाहर आ गये । क्वाशनिन का चेहरा प्रसन्नता से चमक रहा था। युवक ने क्वाशनिन से एक मोटी रकम पहले से ही झाड़ ली थी। क्वाशनिन का जहां अपना स्वार्थ होता है, वहां हाथ नहीं खींचता, पानी की तरह रुपया बहा देता है। बाहर आकर क्वाशनिन नव-विवाहित दम्पति के पास आ गया और व्यंग्यात्मक स्वर में उन्हें बधाई दी । दोनों ने उसे धन्यवाद दिया और कहा कि उसने उनकी जो सहा- यता की है, उसके लिए वे हमेशा उसके कृतज्ञ रहेंगे। यह कह कर वे दोनों लपक कर गाड़ी में बैठ गये । 'यह क्या माजरा है- तुम दोनों कहां चल पड़े ?' 'और कहां जाना है क्वाशनिन साहब ! नयी-नयी शादी है, कुछ दिनों तक सैर-सपाटा ही करेंगे । चलो भाई कोचवान' जल्दी करो !' और क्वानिन मुंह बाए देखता ही रह गया । एक दूसरे अवसर पर भी...क्यों, अभी से चल पड़े आन्द्रेइलिच ?" स्वैजेवस्की बोलते-बोलते रुक गया। उसने देखा कि बोवरोव अपनी टोपी टेढ़ी करके ओवरकोट के बटन बन्द करने लगा है। उसकी हरकतों में एक दृढ़ निश्चय का भाव था। " मुझे खेद है कि मैं और अधिक नहीं ठहर सकूँगा । मेरे पास समय नहीं है," बोबरोव ने रूखे स्वर में कहा । "तुम्हारी कहानी की जहां तक बात है, उसे मैं पहले ही कहीं पढ़ या सुन चुका हूं । अच्छा, नमस्ते ।" वोबरोव उसकी ओर पीठ करके तेजी से कारखाने के बाहर चला गया । उसकी इस रुखाई से स्वेजेवस्की का चेहरा लटक आया ।
मिल से वापिस लौटने पर वोबरोव ने जल्दी-जल्दी भोजन किया और बाहर ड्योढ़ी में आकर खड़ा हो गया। उसके आदेशानुसार उसका साईस मित्रोफान उसके घोड़े फेयरवे पर काठी की पेटी कस रहा था। फेयरवे डॉन इलाके का एक कुम्मद घोड़ा था । वह अपना पेट फुला लेता और तेजी से गरदन मोड़ कर मित्रोफान की कमीज की आस्तीन पर अपना मुंह मारता । तब मित्रो- फान झंझला कर क्रुद्ध और अस्वाभाविक रूप से कर्कश आवाज में चिल्ला उठता, “अरे ओ मंगते-सीधा खड़ा रह !" और फिर हांफता हुआ कहता, 'देखो तो साले को..." फेयरवे विचले कद का घोड़ा था-~ मजबूत छाती, लम्बी देह, चूतड़ पतले और कुछ नीचे को झुके हुए से। मुन्दर गुमचियों और मजबूत खुरों से लैस मुडौल टांगों पर शान से खड़ा था। किन्तु घोड़ों के किसी विशेषज्ञ की आंखों में उसका झुका हुआ पार्श्व भाग और लम्बे गले के भीतर से उभरा हुआ टेंटुआ जरूर खटकता। लेकिन बोबरोव का विचार था कि डॉन के घोड़ों की शारीरिक बनावट की यह विशेषता फेयरवे के सौंदर्य को उसी तरह बढ़ा देती है, जिस तरह दाख-शून्ड कुत्ते की टेढ़ी टांगे और शिकारी कुत्ते के लम्बे कान उनके सौंदर्य को बढ़ा देते हैं। इसके अलावा मिल में कोई ऐसा घोड़ा नहीं था, जो दौड़ में उससे आगे निकल' जाता । सभी अच्छे रूसी साईसों की तरह मित्रोफान भी घोड़ों के संग बहुत सख्ती से पेश आता था। वह अपने या घोड़े के व्यवहार में कभी कोमलता का भाव न आने देता, और उसे “मुजरिम", " गन्दे मांस की लोथ," " हत्यारा" और यहां तक कि " हरामी " प्रादि नाम से पुकारता । किन्तु वह मन-ही-मन फेयरवे को बहुत चाहता था । वह उसकी देख-रेख बड़े स्नेह से करता और 'स्वेलो' और 'सेलर'-मिल के दो अन्य घोड़े जो बोबरोव के इस्तेमाल में थे -की अपेक्षा फेयरवे को खाने के लिए अधिक जई डालता था। ' इसे पानी पिला दिया था, मित्रोफान ?" बोबरोव ने पूछा। मित्रोफान ने तुरन्त उत्तर नहीं दिया। एक अच्छे साईस के समान वह हमेशा अपनी बात को तोल-तोल कर और गम्भीरता के साथ कहता था । 'बेशक, प्रान्द्रेईलिच । सीधा खड़ा रह, शैतान !" वह गुस्से में भरकर घोड़े पर बरस पड़ा । " जरा ठहर, अभी होश ठिकाने लगाये देता हूं । काठी के लिए मचल रहा है, सरकार, जरा इसकी बेताबी तो देखिए । बोबरोव ने पास जाकर जब फेयरवे की लगाम हाथों में ली, तो वही बात हुई जो लगभग रोज होती थी। फेयरवे अपनी बडी, क्रुद्ध प्रांख को टेढ़ा कर.
कनखियों से बोबरोव को देख रहा था। ज्यों ही वह उसके निकट प्राया, फेयरवे ने बिदकना शुरू कर दिया। कभी अपनी गरदन टेढ़ी कर लेता, कभी अपने पिछले पैरों को पटकता हुआ मिट्टी उछालने लगता। बोवरोव एक पांव से उछलता-कूदता दूसरा पांव रेकाब में डालने का प्रयत्न कर रहा था । "लगाम छोड़ दो मित्रोफान !" रेकाब में आखिरकार अपना पांव फंसा लेने पर वह चिल्लाया। अगले ही क्षण एक छलांग के साथ वह काठी पर सवार हो गया। सवार की एड़ लगते ही फेयरवे का विरोध समाप्त हो गया; अपने सिर को झटकाते और घर्घराते हुए उसने कई बार चाल' बदली । फाटक के बाहर निकलते ही वह चोकड़ी भरता हुआ हवा से बातें करने लगा। कुछ ही देर में घोड़े की तेज सवारी, कानों में सीटी बजाती हुई ठंडी कड़कड़ाती हवा और पतझर की नम धरती की ताजी गन्ध ने कुछ ऐसा जादू किया कि बोवरोव की थकान और सुस्ती जाती रही और रगों में खून की रवानी तेज हो गयी। इसके अलावा यह भी बात थी कि जिनेको परिवार से भेंट करने के लिए वह जब भी निकलता, तो एक सुखद और उत्तेजक आनन्द का अनुभव करता। मां, बाप और पांच लड़कियों का जिनेन्को-परिवार था। पिता मिल के गोदाम का संचालक था । ऊपर से देखने में आलसी और भलामानस दीखनेवाला यह भीम वास्तव में बड़ा चलता-पुर्जा और चालबाज था । वह उन लोगों में से था जो सबके मुंह पर सच्ची बात कह देने के बहाने अफसरों को चिकनी-चुपड़ी बातों से रिझाते है, चाहे वे बातें कितने ही भोंड़े तरीके से क्यों न कही गयीं हों, निर्लज्ज होकर अपने साथियों की चुगली करते हैं और अपने प्राधीन कर्मचारियों के साथ वहशियाना तानाशाही बरतते हैं। वह जरा-जरा सी बात पर बहस करने लगता, गला फाड़ कर चिल्लाता और किसी की बात को सुनने को तैयार न होता । वह बढ़िया भोजन का शौकीन था और यूक्रेन के कोरस गीतों से उसे गहरा लगाव था, हालांकि वह उन्हें हमेशा बेसुरी आवाज में गाता । उसकी पत्नी का उस पर खामख्वाह रोव गालिब' था । वह एक बीमार स्त्री थी- बातचीत में अशिष्ट और फूहड़ । उसकी छोटी-छोटी भूरी आंखें बहुत अजीब ढंग से एक दूसरे से सटी हुई थीं। लड़कियों के नाम माका, वेता, शूरा, नीना और कास्या थे। सब लड़कियों के लिए परिवार में अलग-अलग भूमिका निर्धारित थी। माका का चेहरा बगल से देखने पर मछली का सा लगता था । वह अपने साधु-स्वभाव के लिए प्रसिद्ध थी। उसके मां-बाप हमेशा यही कहते, "हमारी माका तो विनय की साक्षात मूर्ति है ।" बाग में टहलते हुए या शाम को चाय पार्टी के समय वह हमेशा गुमसुम होकर पीछे-पीछे रहती ताकि उसकी छोटी बहिनें दूसरों के सम्मुख अपना जौहर दिखला सकें ( उसकी आयु तीस वर्ष से कुछ ऊपर ही थी)। बेता की गिनती अक्लमन्दों में होती थी। वह ऐनक पहनती थी और उसके बारे में यह भी कहा जाता था कि एक बार वह औरतों के ट्रेनिंग-कोर्स में दाखिल होने का इरादा रखती थी। उसका सिर बग्गी में जुते हुए बूढ़े घोड़े की तरह मुड़ा रहता था। जब वह चलती, तो उसकी सारी देह नीचे की ओर झुक जाती थी । आगन्तुकों के सामने वह इस बात को कहते कभी न थकती कि स्त्रियां पुरुषों से कहीं ज्यादा श्रेष्ट और ईमानदार होती हैं, या मासूमियत भरी शरारत के अन्दाज में पूछ बैठती, "अच्छा जी, तुम बड़े होशियार बनते हो, जरा बताओ तो मेरा स्वभाव कैसा है ?'' जब किसी पिट-पिटाये, घरेलू विषय पर बातचीत का सिलसिला चल पड़ता- जैसे " कौन अधिक महान है, लरमन्तोव या पुश्किन ?" अथवा " क्या प्रकृति मनुष्य को अधिक दयालु बनाती तो बेता को लड़ाकू हाथी की तरह अखाड़े में उतार दिया जाता। तीमरी सुपुत्री शूरा की भी अपनी विशेपता थी। वह बारी-बारी से हर अविवाहित पुरुष के संग ताश खेलना पसन्द करती थी । ज्यों ही उसे पता चलता कि उसके साथी का विवाह होने वाला है, वह अपनी झल्लाहट और कुढ़न दबा कर ताश खेलने के लिए एक नया साथी चुन लेती । ताश खेलते हुए छोटे-मोटे मीठे मजाकों की फुलझड़ियां छोड़ी जाती, छेड़छाड़ की जाती, अपने साथी को "कमीने" की उपाधि दी जाती और ताश के पत्तों से उसके हाथों पर हल्के-फुल्के थप्पड़ों की वर्षा की जाती । नीना उस परिवार की सबसे लाड़ली बेटी थी । लाड़-प्यार ने उसे बिगाड़ दिया दिया था, किन्तु उसकी सुन्दरता सबको बरबस अपनी ओर आकर्षित कर लेती थी । भारी भरकम देह और भोंड़े फूहड़ चेहरों वाली अपनी बहनों के बीच वह ऐसी लगती थी जैसे कौनों के बीच में हंस । नीना के अद्भुत आकर्षण का भेद सम्भवतः मदाम जिनेन्को ही बतला सकती थीं। उसकी कोमल छुई-मुई सी देह, कोमल मुलायम हाथ जो करीब-करीब शहजादियों के से थे, मोहक सांवले चेहरे पर चित्ताकर्षक तिल, छोटे-छोटे गुलाबी कान और घने धुंघराले केश - अपूर्व सुन्दरी थी नीना । . मां-बाप को उससे बड़ी आशाएं थीं और इसीलिए उसे हर वात की छूट मिली हुई थी। बह जी भर कर मिठाई खाती, एक अजीव चित्ताकर्षक ढंग से शब्दों का उच्चारण करती। यहां तक कि अपनी बहनों के मुकाबले में कपड़े भी वह अधिक बढ़िया पहनती थी। सबसे छोटी लड़की कास्या चौदह वर्ष से जरा ऊपर थी, किन्तु अभी से उसका कद इतना लम्बा हो गया था कि उसकी मां उसके सामने बौनी सी लगती थी।
अपनी बड़ी बहनों की अपेक्षा उसके अंग अधिक विकसित और उभरे हुए दिखाई देते थे। मिल में काम करने वाले नौजवानों की आंखें ललचायी दृष्टि से उसके शरीर पर गड़ जाती । मिल' शहर से दूर थी, इसलिए वे स्त्रियों के सम्पर्क से वंचित रह जाते थे । कम उम्र होने के बावजूद कास्या उनकी निगाहों का अर्थ समझती थी और निधड़क होकर उनकी आंखों से आंखें मिलाया करती थी। जिनेन्को परिवार में सौंदर्य के इस अनूठे बंटवारे से मिल के सभी लोग परिचित थे और एक मसखरे युवक ने एक बार कहा था कि या तो जिनेन्को परिवार की पांचों लड़कियों से एक साथ विवाह करना चाहिए, अन्यथा किसी से नहीं । मिल में काम सीखने के लिए जो विद्यार्थी और इंजीनियर पाते थे, वे दिन-रात जिनेन्को के घर में डटे रहते, मानो वह कोई होटल हो । भर पेट खाते-पीते थे, मौज उड़ाते थे, किन्तु बड़ी चालाकी से विवाह के फन्दे से बच निकलते थे। जिनेन्को परिवार के सदस्य बोबरोव को कुछ ज्यादा पसन्द नहीं करते थे । बोबरोव का व्यवहार और बातचीत का ढंग मदाम जिनेन्को के गले के नीचे नहीं उतर पाता था। कस्बाती शिष्टाचार की घिसी-पिटी लीक से आगे उसकी प्रांखें नहीं जाती थीं। जब कभी बोबरोव अपनी धुन में होता तो ऐसे तीखे चुभते हुए मजाक करता कि जिनेन्को परिवार के सदस्य स्तम्भित से होकर फटी आंखों से उसका मुंह ताकते रह जाते। कभी-कभी थकान के कारण वह चिड़- चिड़ा सा हो जाता और मुंह सी कर गुमसुम-सा बैठा रहता । तब सब लोग उस पर तरह-तरह के सन्देह करने लगते । कोई उस पर घमन्डी होने का अभियोग लगाता, कोई कहता कि वह मन-ही-मन सब लोगों का मजाक उड़ा रहा है । कुछ की राय थी कि वह कोई बड़ा भेद छिपाये बैठा है, जिसे दूसरों के सामने प्रकट करना नहीं चाहता । किन्तु सबसे गम्भीर अभियोग यह लगाया जाता कि वह " पत्रिकाओं के लिए कहानियां लिखता है और यहां वह केवल इसलिए आता है कि उनके लिए पात्र चुन सके।" खाने की मेज पर उसके प्रति जो रुखाई बरती जाती अथवा जब कभी मदाम जिनेन्को उसकी ओर देखकर कंधे उचका लेती, तो उससे यह छिपा न रहता कि उन्हें उसकी उपस्थिति खटकती है। फिर भी उसने उनके घर जाना बन्द नहीं किया। क्या वह नीना से प्रेम करता था ? इस प्रश्न का उत्तर वह कभी नहीं दे पाया। कभी-कभी तीन-चार दिन गुजर जाते और किसी कारण- वश उसका वहां जाना नहीं हो पाता । तब उसकी आंखों के सामने नीना का चेहरा बार-बार घूमने लगता और हृदय में देर तक एक मीठी कसक स्पन्दित होती रहती। नीना का विचार आते ही उसकी कोमल लता सी सुकुमार देह आंखों के सामने थिरक जाती। पलकों की छाया में नीना की विहंसती उनींदी आंखों, और उसके शरीर की सुगन्ध का खयाल आते ही, उसे चिनार की नवजात कलियों की भीगी खुशबू का स्मरण हो पाता । किन्तु जिनेन्को परिवार के संग लगातार तीन शामें बिताने पर ऊब और उकताहट से उसका मन भारी हो जाता था। उन्ही पुरानी परिस्थितियों में वही पुरानी घिसी-पिटी बातें, चेहरों के वही भद्दे, कृत्रिम हाव-भाव । पांच “भद्र युवतियां" थीं, उनके संग 'प्रेम क्रीडा" करते हुए उनके "प्रशंसक" थे (जिनेन्को-परिवार के सदस्य अक्सर इन शब्दों का प्रयोग किया करते थे) और इस तरह उनके परस्पर सम्बंध हमेशा के लिए एक सतही, उथले स्तर पर कायम हो गये थे। दोनों पक्ष हमेशा एक दूसरे का विरोध करने का अभिनय करते । अक्सर ऐसा होता कि कोई प्रशंसक किसी लड़की की कोई वस्तु चुरा लेता और उसे यह विश्वास दिलाने का उपक्रम करता कि वह उस वस्तु को कभी वापिस नहीं लौटाएगा। पांचों लड़कियां कुछ देर के लिए उदास हो जाती, आपस में काना-फूसी करतीं, मजाक करने वाले युवक को "कमीने" की उपाधि देतीं और फिर कुछ ही देर में कर्कश स्वर में हंसी के ठहाके लगाती हुई लोट-पोट हो जातीं । यह बात हर रोज दुहरायी जाती हूबहू उन्हीं शब्दों और इशारों के साथ । जैसी संकीर्ण कस्वाती मनोवृत्ति थी इन लोगों की, वैसे ही निरर्थक उनके हंसी-खेल के साधन भी थे । बोबरोव वहां से सिर-दर्द लेकर और परेशान हालत में घर वापिस लौटता। एक अोर बोबरोव के दिल में नीना की छवि बस गयी थी, उसके गर्म हाथों के स्पर्श के लिए उसका रोम-रोम पुकारता था, दूसरी ओर उसके परिवार के खोखले आचार-व्यवहार और एकरसता के प्रति उसकी वितृष्णा गहरी होती चली गयी थी। कभी-कभी वह नीना से विवाह का प्रस्ताव करने के लिए तैयार हो जाता, हालांकि उसे मालूम था कि नीना का छलछबीलापन, बाहरी तड़क- भड़क और आध्यात्मिक रुचिहीनता उनके वैवाहिक-जीवन को नरक बना देंगे । कहीं भी तो उन दोनों के बीच साम्य नहीं था-मानो दोनों अलग-अलग दुनिया के वासी हों । इसी उधेड़बुन में वह कोई निश्चय नहीं कर पाता था और चुप्पी साधे रहता था। अब इस समय शेपेतोवका जाते हुए वह पहले से ही अनुमान लगा सकता था कि वे लोग किस विषय पर कैसी बातें कर रहे होंगे । प्रत्येक व्यक्ति के चेहरे की भाव-मुद्राओं की भी वह आसानी से कल्पना कर सकता था । उसे मालूम था कि अपने बरामदे में खड़ी पांचो बहने दूर से ही जब उसे घोड़े पर आता हुआ देखेंगी - वे हमेशा " भले नौजवानों" की प्रतिक्षा में रहती थीं तो उनके वीच एक लम्बा विवाद छिड़ जायेगा कि कौन आ रहा है। सब अपना-अपना अनुमान लगायेंगी । जब वह घर के पास पहुंचेगा, तो वह लड़की जिसका अनुमान सही निकला होगा, ताली बजाती हुई खुशी से नाचने लगेगी और जवान चटखारती हुई बोलेगी, " देखा, मैंने क्या कहा था !" और तब वह भागती हुई अन्ना अफानास्येवना के पास जायेगी । “बोबरोव आ रहा है, मां! मेरा अनुमान सही निकला !" और उसकी मां, जो उस समय अलस-भाव से चाय के गीले प्याले सुखा रही होगी, सबको छोड़ कर केवल नीना को सम्बोधित करती हुई कहेगी, "सुना नीना, बोवरोव आ रहा है ।" उसके स्वर से ऐसा जान पड़ेगा मानो यह कोई हास्यास्पद और अप्रत्याशित वात हो। अन्त में बोबरोव जब भीतर प्रवेश करता तो वे सब-की-सब पाश्चर्य-चकित होने का उपक्रम करतीं। चार फेयरवे दुलकी मारता, ऊंचे स्वर में घर्घराता और लगाम को झटके देता हुआ दौड़ा चला जा रहा था। सामने शेपेतोवका का अहाता दिखायी दे रहा था। बबूल और बकाइन के हरे वृक्षों के झुरमुट के पीछे शेपेतोवका की लाल छत और सफेद दिवारें छिप सी जाती थीं। नीचे की ओर हरियाली से घिरा हुआ एक छोटा सा तालाब था। मकान की सीढ़ियों पर एक युवती खड़ी थी। दूर से ही बोबरोव ने नीना को पहचान लिया । जब वह पीले रंग का ब्लाउज पहनती थी तो उसका सांवला रंग और भी अधिक खिल उठता था। उसने लगाम खींच ली, काठी पर तन कर बैठ गया और रेकाबों में धंसे हुए अपने पैरों को पीछे की ओर सरका लिया। 'आज फिर अपने लाडले घोड़े पर सवार हो ? मुझे तो यह राक्षस एक आंख नहीं सुहाता !" नीना एक नटखट और मनचले बच्चे की तरह उल्लसित स्वर में चिल्लाई। वह हमेशा बोबरोव के प्रिय घोड़े को लेकर उसे चिढ़ाया करती थी। बिरला ही कोई ऐसा होगा जिसे किसी-न-किसी कारण से जिनेन्को परिवार में चिढ़ाया न जाता हो। बोबरोब ने लगाम मिल के साईस के हाथों में छोड़ दी, घोड़े के मजबूत गले को, जो पसीने से भीग कर काला पड़ गया था, थपथपाया और नीना के पीछे-पीछे बैठक में चला पाया । अन्ना अफानास्येवना चाय के समोवार के पास अकेली बैठी थी। बोबरोव के आगमन पर उसने गहरे अचम्भे का प्रदर्शन 11 किया। "अच्छा तो प्रान्द्रेइलिच, तुम हो !" वह लोचदार पावाज में चिल्लाई। 'आज आखिर रास्ता भूल ही गये !" चाय ? बोबरोव अभी अभिवादन कर ही रहा था कि अन्ना अफानास्येवना ने अपना हाथ उसके होठों से सटा दिया और नकियाती हुई बोली : दूध ? सेव ? क्या लोगे ?" शुक्रिया, अन्ना अफानास्येवना।" " हामी का शुक्रिया या नाही का ?" यह प्रश्न फ्रेंच भाषा में पूछा गया था। जिनेन्को परिवार में इस प्रकार के फ्रेंच मुहावरे अक्सर प्रयोग में लाये जाते थे । बोबरोव ने कहा कि इस समय वह कुछ खाएगा-पीएगा नहीं। " लड़कियां बरामदे में खेल रही है। तुम भी शामिल हो जाओ।" मदाम जिनेन्को ने उदारता से उसे बरामदे में जाने की अनुमति दे दी। जब वह वरामदे में आया तो चारों बहने ठीक अपनी मां के आवाज में उसी तरह नकियाती हुई चिल्ला उठीं, “ आन्द्रेइलिच, तुम तो ईद का चांद बन गये ! क्या लायें तुम्हारे लिए: - चाय, सेव, दूध ? क्या कुछ भी नहीं लोगे ? यह कैसे हो सकता है ? कुछ तो खा ही लो। अच्छा यहां आकर बैठ जाम्रो । तुम्हें भी खेलना पड़ेगा। वे नाना प्रकार के खेल खेलती थी- ." भद्र महिला ने सौ रूबल भेजे हैं," अथवा " अपनी-अपनी राय,” और एक अन्य खेल जिसे कास्या तुतलाती " देंद का थेल" कहा करती थी। उस समय वहां तीन विद्यार्थी मौजूद थे, जो छाती फुला कर, एक हाथ अपने फ्रॉक-कोट की जेब में डाल कर और एक पांव आगे की ओर बढ़ाते हुए अजीब तरह की नाटकीय-मुद्रायें बना रहे थे । मिलर मौजूद था, जो एक प्राविधिज्ञ था और अपने आकर्षक चेहरे, भोंदूपन और मुमधुर स्वर के लिए प्रसिद्ध था; भूरे रंग की पोशाक पहने हुए एक अन्य व्यक्ति गुमसुम-सा कोने में बैठा था। उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं था। खेल में किसी को रुचि नहीं थी। पुरुषों के चेहरों पर ऊब के चिन्ह थे और " जुर्माना" अदा करते समय ऐसा प्रतीत होता था मानो वे किसी पर अहसान लाद रहे हों। लड़कियों को खेल में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे आपस में कानाफूसी कर रही थीं और कृत्रिम-ढंग से हंस रही थीं। शाम का अंधेरा घिरने लगा। पड़ोस के गांव के मकानों के पीछे से गोल सुनहरा चांद उग रहा था। चो, अब भीतर आ जायो ।” खाने के कमरे से अन्ना अफानास्येवना की आवाज पायी । “मिलर से कहो, कोई गाना ही सुना दे । एक क्षण बाद ही लड़कियों की आवाजें कमरों में गूंजने लगीं । " बड़ा मजा आया, मां," वे अपनी मां को घेर कर चहचहाने लगीं । " हंसते-हंसते पेट में दर्द हो गया । १६
नीना और बोबरोव बरामदे में अकेले रह गये। नीना खम्बे से सटी रेलिंग पर झुकी हुई बैठी थी। उसका बायां हाथ खम्बे से लिपटा था । उसकी यह आयासहीन मुद्रा बहुत आकर्षक लग रही थी। बोबरोव उसके पैरों के पास एक छोटी सी बेंच पर बैठ गया। उसने मुंह उठा कर नीना के चेहरे पर आंखें गड़ा दी और उसके गले और ठुड्डी की कोमल रूपरेखा को निहारने लगा। 'आन्द्रे इलिच- कोई दिलचस्प बात सुनाओ," नीना ने अधीर होकर हुक्म दिया। 11 समझ 17 में नहीं आता कि कौन सी बात सुनाऊ," उसने उत्तर दिया । " बात करनी है, इसलिए कुछ बोलूं, ऐसा मुझ से कभी नहीं हो पाता । क्यों नीना, क्या विभिन्न विषयों पर गढ़ी-गढ़ायी बातें मिल सकती है ?" 'छिः ! तुम भी एक ही सनकी आदमी हो ! अच्छा बतायो इसका क्या कारण है कि मैंने तुम्हें कभी प्रसन्न चित्त नहीं देखा ?" पहले तुम बताओ कि चुप्पी से तुम क्यों इतना घबराती हो । ज्यों ही बातचीत का ढर्रा जरा उखड़ने लगता है, तुम बेचैन हो जाती हो। क्या मौन रह कर बातें नहीं की जा सकती ?" 'खामोश रहें हम आज रात," नीना उसे चिढ़ाने लिए गाने लगी। "हां, ठीक है । देखो : आकाश कितना स्वच्छ है और सुनहरा चांद उसमें तिरता जा रहा है । कितनी घनी शान्ति है चारों ओर- हमें और क्या चाहिए ?" "'वंध्या मतिहीन आकाश में वंध्या मतिहीन चांद' " नीना ने किसी कविता की पंक्ति गुनगुना दी। "तुमने सुना, जीना माकोवा की सगाई प्रोतोपोपोव के संग हो गयी है । आखिर उसने उसके संग विवाह करने का फैसला कर ही लिया। किन्तु अाज तक में प्रोतोपोपोव को नहीं समझ सकी।" उसने अपने कंधों को बिचकाते हुए कहा। "जीना ने तीन बार उसके विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। किन्तु वह हथियार कब डालने वाला था, चौथी बार फिर प्रस्ताव रख दिया। प्रोतो- पोपोव ने जानबूझ कर अपने पांव में कुल्हाड़ी मारी है । जीना उसका आदर कर सकती है, किन्तु उसे अपना प्रेम नहीं दे सकेगी।" बोबरोव का मन खिन्न हो उठा । जिनेन्को-परिवार की कस्बाती, खोखली शब्दावली को सुनते-सुनते उसके कान पक चुके थे । जब वह उनके मुंह से इस प्रकार के अर्थहीन, थोथे वाक्य सुनता- " वह उसका आदर करती है, किन्तु उससे प्रेम नहीं करती," अथवा "वह उससे प्रेम करती है, किन्तु उसका आदर -तो उसका मन झुंझला उठता था। वे लोग बड़ी आसानी से स्त्री-पुरुष के जटिल, विषम सम्बंधों की व्याख्या इन घिसे-पिटे वाक्यों द्वारा कर नहीं करती" देते थे। इसके अलावा वे सब व्यक्तियों को दो कटघरों में विभाजित कर देते थे-काले बालों वाले लोग और उजले बालों वाले लोग । प्रत्येक व्यक्ति की नैतिक, मानसिक और शारीरिक विशेषताएं इन दो कटघरों में समा जाती थीं। बोबरोव अपनी क्रोधाग्नि में घी डलवाने का लोभ संवरण न कर सका। "और यह प्रोतोपोपोव किस किस्म का आदमी है ?" उसने नीना से पूछा । "प्रोतोपोपोव ?" नीना एक क्षण के लिए सोच में पड़ गयी । लम्बा सा कद है और उसके ... भूरे बाल है। ' और कुछ नहीं ? " और क्या बताऊं ? हां, याद आया । वह चुंगी दफ्तर में काम करता है । बस क्या यही उसका पूरा ब्योरा है ? नीना ग्रिगोरयेवना, किसी व्यक्ति के सम्बंध में चर्चा करते हुए केवल इतना कह देना क्या प्रर्याप्त है कि वह चुंगी-दपतर में काम करता है, उसके बाल भूरे रंग के हैं ? जरा सोचो, दुनिया में हम कितने योग्य, चतुर और दिलचस्प लोगों के सम्पर्क में आते हैं। क्या हम सिर्फ यह कह कर उनके गुणों को नजरअन्दाज कर देगे कि उनके बाल भूरे रंग के हैं और वे चुंगी दफ्तर में काम करते हैं ? जरा किसानों के बच्चों को देखो, वे अपनी प्रास-पास की जिन्दगी को कितनी जिज्ञासा-भरी निगाहों से देखते हैं। तभी तो उनकी पहचान इतनी सही होती है। लेकिन तुम हो कि एक सतर्क और संवेदनशील लड़की होते हुए भी किसी चीज में दिलचस्पी नहीं लेतीं । क्या तुम समझती हो कि दस बारह घिसे-घिसाए फिकरे, जो तुमने अपने ड्राइंग-रूम में बैठकर रट लिये हैं, जिन्दगी को समझने के लिये काफी है ? मैं जानता हूं कि जब कभी बातचीत में चांद का जिक्र आएगा, तो तुम "बंध्या और मतिहीन चांद" या ऐसा ही कोई फिकरा जरूर कहोगी। जब मैं तुमसे किसी असाधारण घटना का उल्लेख करने वाला होता हूं, तो मुझे पहले से ही पता चल जाता है कि तुम उस पर यह फिकरा कस दोगी, 'घटना चाहे नयी हो, किन्तु उस पर विश्वास करना कठिन है ।" हमेशा तुम यही वाक्य दोहराती रहती हो, हमेशा ! विश्वास करो नीना, दुनिया में अनेक ऐसी चीजें हैं जो विशिष्ट और मौलिक 'मेहरबानी करके मुझे लेक्चर न पिलायो !" नीना ने प्रतिवाद किया । बोबरोव के मन में व्यर्थता का कटु भाव उमड़ पाया। दोनों लगभग पांच मिनट तक निस्तब्ध और निश्चल बैठे रहे। अचानक ड्राइंग-रूम से संगीत की सुमधुर ध्वनियां सुनायी देने लगीं। मिलर गा रहा था। उसकी आवाज तनिक बिगड़ी हुई थी, फिर भी उसमें गहरा सोज था : ताता थैया की तालों पर, नृत्य और उन्माद जहां था !
सुमुखि, सलोने मुख पर तेरे, उर का घना विषाद वहां था ! बोबरोव का क्रोध शीघ्र ही शान्त हो गया। उसे अब आत्म-ग्लानि हो रही थी कि नाहक उसने नीना का दिल दुखा दिया। “अाखिर नीना अभी बच्ची ही तो है; एक छोटी सी चिड़िया ! जो बात उसके मुंह में आती है, चह- चहा देती है। बच्चों सा भोला और निरीह उसका मन है, उससे किसी प्रकार की मौलिक बातों की अपेक्षा करना मूर्खता नहीं तो क्या है ? सच पूछा जाय तो नारी-स्वतंत्रता, नीत्शे और पतनोन्मुख लेखकों के सम्बंध में जो बहसें होती हैं, उनकी तुलना में नीना की मधुर चहचहाट क्या अधिक आकर्षक नहीं है ? "मुझ से खफा हो गयी हो, नीना ग्रिगोरयेवना ?" वह बुदबुदाया । “ मैं जो अनाप-शनाप बकता गया हूं, क्या उस पर ध्यान देना उचित है ?" नीना ने कोई उत्तर नहीं दिया । वह चुपचाप चांद की और देखती रही। अंधेरे में नीना का हाथ नीचे लटक रहा था । बोबरोव ने उसे पकड़ लिया । 'नीना ग्रिगोरयेवना," उसके होंठ फड़क कर रह गये । नीना अचानक बोबरोव की ओर मुड़ गयी और उद्भ्रान्त सी होकर उसने जल्दी से उसका हाथ दबा दिया । 'तुम बहुत बुरे हो !" उसके स्वर में क्षमा और उलाहना का भाव था। " जानते हो कि मैं तुमसे नाराज नहीं हो पाऊंगी, इसलिए पीड़ा पहुंचाते हो । उसने बोबरोव के कांपते हाथ से अपने हाथ को छुड़ा लिया और जबरदस्ती अपने आप को उससे अलग खींच कर घर के अन्दर भाग चली। मिलर के गीत से गहरा अनुराग और वेदना छलक रही थी : रंग-बिरंगे सपनों में मैं रहा भटकता ! क्या है मूल्य तुम्हारी नजरों में उसका, मैं नहीं जानता ! मैं तो केवल यही जानता : प्यार तुम्हें मैं करता ! " मैं तो केवल यही जानता : प्यार तुम्हें मैं करता !" बोबरोव ने उद्वेलित मन से होठों-ही-होठों में इस पंक्ति को बार-बार दुहराया और फिर गहरा उच्छवास छोड़ कर अपना हाथ धड़कते हुए दिल पर रख दिया । "नाहक अपने को परेशान करता हूं। एक अज्ञात असामान्य सुख के फेर में पड़ कर भूल जाता हूं उस सहज, पावन सुख को जो मेरे निकट है। भावावेश में उसने सोचा। “ सहृदयता, स्नेह, सहानुभूति - सभी कुछ तो नीना में है, जो एक नारी, एक पत्नी में होना चाहिए। फिर मुझे और क्या चाहिए ? वास्तव में हम लोग अपने को एक ऐसी उद्भ्रान्त, डांवाडोल स्थिति में पाते हैं कि जीवन के मुखों को सहज रूप से स्वीकार करना हमारे लिए असंभव हो जाता है। हम प्रत्येक अनुभूति और भावना की- चाहे वह अपनी हो या किसी दूसरे की --- चीरफाड़ करने का लोभ संवरण नहीं कर पाते और उसे दूषित, विषाक्त बना डालते हैं। यह निस्तब्ध रात, उस लड़की का सामीप्य जिससे मैं प्रेम करता हूं, उसकी मधुर, निश्छल बातें, क्षण भर का आवेश और फिर यकायक एक कोमल स्निग्ध स्पर्श - यही तो है, यही तो सब कुछ है, जो जीवन को अर्थ देता है ! जब वह वापिस ड्राइंग रूम में लौटा, उसका मुख कुछ-कुछ विजय-गर्व और उल्लास से चमक रहा था। उसकी अांखें नीना की आंखों से मिलीं। उसे लगा मानो नीना की दृष्टि उसके विचारों का स्नेहभरा उत्तर दे रही है । " वह मेरी पत्नी होकर रहेगी," उसने सोचा । उसका मन अब सुखी और शान्त था । क्वाशनिन के सम्बंध में बातचीत चल रही थी। अन्ना अफानास्येवना ने दृढ़ स्वर में घोषणा की कि वह भी अपनी "बच्चियों" के संग स्टेशन जाएगी। "संभव है, वासिली तैरन्त्येविच हमारे घर भी तशरीफ लाएं । ववाशनिन के यहां आने का समाचार मुझे मेरी चचेरी बहिन के पति की भतीजी लिजा वेलोकोनस्काया ने एक महीना पहले ही भिजवा दिया था। 'कहीं यह वही वेलोकोनस्काया तो नहीं है जिसके भाई का विवाह राजकुमारो मुखोवेत्स्काया के संग हुआ है ?" जिनेन्को ने विनीत भाव से हमेशा की तरह प्रश्न दोहरा दिया। "हां !" अन्ना अफानास्येवना ने ऐसी मुद्रा बनाकर कहा मानो प्रश्न का उत्तर देकर वह उस पर अहसान कर रही हो। "अपनी दादी की तरफ से उसका स्त्रेमोऊखोव परिवार से भी दूर का सम्बंध है । स्त्रेमोऊखोव से तो आप परिचित है। पत्र में उसने लिखा था कि वह एक पार्टी में क्वाशनिन से मिली थी। उसने उन्हें यह भी कह दिया था कि जब कभी कारखाने का निरीक्षण करने के लिए इस ओर आएं तो हमारे घर अवश्य पधारें।" क्या हम उचित ढंग से उसका स्वागत कर सकेंगे अन्ना ?" जिनेन्को ने चिंतित स्वर में पूछा। "कैसी बेतुकी बातें करते हो। अपनी ओर से हम कोई कसर नहीं उठा रखेंगे। किन्तु जिस आदमी की वार्षिक आमदनी तीन लाख रूबल हो, उसे आसानी से प्रभावित थोड़े ही किया जा सकता है । " तीन लाख रूबल !” जिनेन्को के मुंह से हल्की सी चीख निकल गयी। "मेरा तो सुनकर ही दिल दहल जाता है । " तीन लाख !" नीना ने एक ठंडी सांस भरी। तीन लाख !" अन्य बहनों ने रोमांचित होकर एक सुर में कहा। "और खर्चालू इतना है कि सब कुछ ~~ -आखिरी कोपेक तक-पानी की तरह बहा देता है।" अन्ना अफानास्येवना ने कहा । फिर मानो अपनी लड़कियों के छिपे भाव को ताड़कर वह बोली, “वह विवाहित है । लेकिन सुना है कि वह अपने विवाहित जीवन से सुखी नहीं है। उसकी पत्नी का अपना कोई व्यक्तित्व नहीं, साधारण-सी स्त्री है । और फिर, चाहे कुछ कह लो, हर स्त्री को अपने पति के व्यवसाय में रुचि तो रखनी ही चाहिये ।" " तीन लाख !" नीना मानो सपना देख रही थी। " इतने रुपये से क्या कुछ नहीं किया जा सकता ?" अन्ना अफानास्येवना नीना के घने बालों पर अपना हाथ फेरने लगी। "ऐसा पति मिल जाय तो बुरा न रहेगा, क्यों मेरी बच्ची ?" एक पराये, अपरिचित आदमी की तीन लाख रूबल की आमदनी ने सारे परिवार को चकाचौंध-सा कर दिया था। लखपति-लोगों से सम्बंधित अद्भुत कहानी-किस्से सुनते-सुनाते उनकी प्रांखें चमकने लगी थीं, चेहरे तमतमाने लगे थे। वे सब हैरत से अांखें फाड़ कर धनाड्य-दौलतमंद लोगों की बातें सुन रहे थे-उनके शानदार घोड़ों, विराट-भोजों और नृत्य समारोहों के बारे में, उनकी कल्पनातीत फजूलखर्ची के बारे में बातों का सिलसिला अघाता ही न था ! बोबरोव का मन विक्षुब्ध हो उठा । उसने चुपचाप अपना हैट उठाया और सबकी आंख बचाकर दबे पांवों ओसारे में चला आया। किन्तु वे अपनी बातों में इतना व्यस्य थे कि उसके प्रस्थान की ओर किसी का ध्यान वैसे भी न जाता। घर की ओर सरपट घोड़ा दौड़ाते हुए उसे नीना की श्रान्त, स्वप्निल' आंखें याद हो आयीं और वे धीमे, अकुलाए स्वर से कहे गये शब्द "तीन लाख !" कानों में गूंज गये । हठात उसे स्वेजेवस्की की वह कहानी स्मरण हो आयी, जो जोर-जबरदस्ती उसने सुबह उसे सुना दी थी। "यह लड़की भी अपने को आसानी से बेच सकती है," वह दांत पीसते हुए बुड़बुड़ाया और गुस्से में फेयरवे की गर्दन पर सड़ाक से चाबुक जमा दी। 17 पांच बोबरोव ने दूर से ही अपने कमरे की बत्ती जली हुई देखी । “ मेरी अनु- पस्थिति में डॉक्टर आया होगा और सोफे पर लेटा हुआ मेरी प्रतीक्षा कर रहा होगा," उसने झाग और पसीने से लथपथ घोड़े की लगाम खींचते हुए सोचा।
इस समय कोई और व्यक्ति होता तो वह झंझला उठता, किन्तु डा० गोल्डबुर्ग की बात ही दूसरी थी। उस यहूदी डॉक्टर को वह दिल से चाहता था। उसका सर्वतोमुखी उसकी जिन्दा-दिली और सैद्धान्तिक बहसों के प्रति उसका गहरा लगाव कुछ ऐसे गुण थे जो बोबरोव को बरबस अपनी ओर आकर्षित करते थे। बोब- रोव चाहे किसी भी विषय पर बातचीत छेड़ दे, डॉक्टर गोल्डबुर्ग हमेशा गहरी रुचि और अदम्य उत्साह के संग वाद-विवाद किया करता था और हालांकि इन लम्बै, कभी न खत्म होने वाले तर्क-द्वन्द्वों के अलावा उन्होंने अभी तक और कुछ न किया था, फिर भी दोनों सदा एक दूसरे से मिलने के लिए व्याकुल रहते थे, और उनकी भेंट प्रायः हर रोज हो जाया करती थी। डॉक्टर सोफा की पीठ पर पांव लटकाए लेटा था और कमजोर दृष्टि होने के कारण एक पुस्तक को बिलकुल प्रांखों से सटा कर पढ़ रहा था । बोवरोव ने उड़ती निगाहों से पुस्तक के शीर्षक - मेवियस की 'धातु विज्ञान के सिद्धान्त' - को भांपा और मुस्करा दिया। कोई भी पुस्तक डाक्टर के हाथ में आ जाए, वह उसे हमेशा बीच से खोल कर बड़ी तल्लीनता से पढ़ने लगता था। डाक्टर की इस आदत से बोबरोव परिचित था । " जानते हो, जब तुम बाहर थे, मैंने यहीं अपने लिए चाय बनवा ली थी," डॉक्टर ने किताब एक ओर फेंक दी और अपनी ऐनक के ऊपर से बोबरोव को देखने लगा। अच्छा तो फरमाइये आन्द्रेइलिख साहब, क्या हालचाल हैं ? अरे क्या बात है, तुमने त्यौरियां क्यों चढ़ा रखी हैं ? क्या किसी नये दुख ने प्रा घेरा है ?" "कुछ नहीं डॉक्टर, जिन्दगी बकवास है," बोबरोव ने थके-मांदे स्वर में कहा। 'ऐसा क्यों, मेरे दोस्त ?" "अोह, मुझे नहीं मालूम । बस, कुछ ऐसा ही लगता है । तुम सुनामो- अस्पताल में कैसा काम चल रहा है ? "सब ठीक है । आज सर्जरी का एक बड़ा दिलचस्प केस मेरे पास आया। हंसी भी आती थी और रोना भी। मसालस्क का एक राज-मिस्त्री आज सुबह अस्पताल आया। तुम तो जानते हो, ये मसालस्क के लौंडे' सब-के-सब बिना अपवाद के पहलवान होते हैं। 'क्या बात है ?' मैने पूछा । 'डॉक्टर साहब, बात यह है कि जब मैं अपनी टोली के लिए रोटी काट रहा था तो चाकू से मेरी उंगली पर जरा सी खरोच लग गयी । खून बन्द होने को ही नहीं आता।' मैंने उसकी उंगली की परीक्षा की; महज एक छोटी सी खरोच थी, इसलिए चिन्ता की कोई बात नहीं थी। किन्तु घाव पकने लगा था, सो मैंने अपने सहा- २२
यक से उस पर पट्टी बांधने के लिए कह दिया । किन्तु लड़का वहां से टस-से-मस नहीं हुआ । 'तुम्हारी उंगली पर पट्टी बांध दी गयी है। अव तुम जा सकते हो।' 'धन्यवाद,' उसने कहा, 'किन्तु मुझे अपना सिर फटता हुआ सा प्रतीत हो रहा है । सो मैंने सोचा कि शायद आप मुझे इसके लिए भी कोई दवा दे दें। 'क्यों भई, सिर में क्या हुआ ? क्या डंडे पड़े हैं ?' मैंने मजाक में कहा । वह एकदम खुशी से उछल पड़ा और जोर-जोर से हंसने लगा। 'अब आपके सामने इनकार नहीं करूंगा डाक्टर साहब । तीन दिन पहले सेवियर डे की छुट्टी के दिन हमने पीने-पिलाने का प्रोग्राम बनाया। सबने खूब छक कर वोदका पी, और फिर हंसी-मजाक, छेड़-छाड़ के बाद कुछ कहा-सुनी हो गयी और हाथापाई की भी नौबत आ पहुंची। आगे क्या कहूं, आप जानते ही हैं कि इस तरह के झगड़े-फसादों में क्या कुछ नहीं होता। किसी ने अपनी खेनी से मेरा सिर फोड़ दिया। पहले तो मैंने उस जख्म की थोड़ी-बहुत मरम्मत करवा ली। कोई ज्यादा चोट नहीं लगी थी और दर्द भी कम होता था। किन्तु अब मुझे अपना सिर फटता हुआ सा जान पड़ रहा है।' मैंने उसके सिर की परीक्षा की और आतंकित रह गया। उसकी खोपड़ी भीतर तक टूटती चली गयी थी, अन्दर पांच कोपेक जितना बड़ा सुराख हो गया था और हड्डी के छोटे-छोटे टुकड़ें भेजे में फंस गये थे। इस समय वह अस्पताल में बेहोश पड़ा है। भई, कमाल के लोग हैं ये - जीवट साहसी, किन्तु बिलकुल बच्चे ! मुझे पक्का विश्वास है कि केवल रूसी किसान ही अपने सिर की इस तरह 'मरम्मत' करवा सकता है। कोई और आदमी होता, तो कब का स्वर्ग सिधार गया होता। और ऐसी विकट स्थिति में भी हंसी-मजाक नहीं छूटता। कह रहा था, 'आप जानते ही है कि इस तरह के झगड़े-फसादों में क्या कुछ नहीं होता।' मानो यह एक बहुत सहज साधारण घटना हो ... या खुदा !' बोबरोव अपने ऊंचे जूतों पर चाबुक फटकारता हुआ कमरे के चक्कर लगा रहा था। डाक्टर की बातों को वह अनमने भाव से सुन रहा था। जिनेन्को के घर में जो कड़वाहट उसकी आत्मा में भर गयी थी, वह अब तक उससे छुटकारा नहीं पा सका था । डॉक्टर ने भांप लिया कि बोवरोव इस समय बातचीत करने के मूड में नहीं है, इसलिए उसने पल' भर मौन रहने के बाद सहानुभूति पूर्ण स्वर में कहा, "मेरा कहना मानो, आन्द्रेइलिच, दो चम्मच ब्रोमाईड लेकर सोने की कोशिश करो। तुम्हारी मौजूदा हालत में उससे तुम्हें लाभ ही पहुंचेगा, कम-से-कम नुकसान तो नहीं होगा।" दोनों उसी कमरे में लेटे रहे.- वोबरोव अपनी पलंग पर और डाक्टर सोफा पर । किन्तु दोनों की आंखों से नींद उड़ चुकी थी। बहुत देर तक गोल्डबुर्ग को बोबरोव के बिस्तरे से कसमसाने और ठंडी आहों की आवाज सुनायी देती रही । आखिर उससे बोले विना न रहा गया । " दोस्त, कुछ बतानो भी, क्या चीज है जो तुम्हें खाये जा रही है ? क्या तुम मुझसे दिल खोलकर अपना दुःख-दर्द नहीं कहोगे ? आखिर में कोई अजनबी तो हूं नहीं, जो महज अपना कुतुहल शान्त करने के लिए तुमसे यह प्रश्न पूछ रहा हूं।" डॉक्टर के इन सीधे-सादे शब्दों ने बोबरोव के मर्म को छू लिया। हालांकि दोनों के बीच गहरी मित्रता थी, फिर भी वह उसका उल्लेख या पुष्टि करना अनावश्यक समझते थे। दोनों ही कोमल, समवेदनशील व्यक्ति थे, अतः अपनी निजी, व्यक्तिगत भावनाओं को एक दूसरे के सम्मुख खोलने में संकुचाते थे। किन्तु कमरे के अंधेरे और बोबरोव की व्यथा ने बहुत से व्यवधान तोड़ दिये . और डॉक्टर ने अपने मन की बात बोबरोव से पूछ ली। "हर चीज के प्रति मनमें एक गहरी वितृष्णा उत्पन्न हो गयी है ओसिप ओसिपोविच । मानो जिन्दगी कोई भारी बोभ है जिसे मैं ढो रहा हूं।" बोबरोव ने धीमे स्वर में कहा । " मेरी खीज का सबसे पहला कारण तो यह है कि मैं मिल में काम करता हूं और मोटी तनख्वाह पाता हूं, जबकि मुझे इस पूरे मामले से सख्त नफरत हो गयी है । मैं अपने को एक ईमानदार व्यक्ति समझता हूं इसलिए अपने से सीधा प्रश्न पूछता हूं : 'तुम यहां क्या कर रहे हो ? तुम्हारे काम से आखिर किसे लाभ पहुंचता है ?' में चीज़ों को उनके असली रूप में देखने लगा हूं, और मैं यह समझता हूं कि मेरे सारे काम का फल यह निकलता है कि अन्ततः सौ फ्रेंच पट्टेदार और एक दर्जन रूसी मगरमच्छ करोड़ों का मुनाफा अपनी जेबों में भरेगे । मैंने जिस काम के लिए अपनी आधी से अधिक जिन्दगी बर्बाद कर दी, उसका अर्थ और उद्देश्य यदि कुछ है, तो सिर्फ यही है- -इसके अलावा मुझे और कुछ दिखायी नहीं देता !" "तुम भी बिलकुल फिजूल सी बातें कर रहे हो, मान्द्रेइलिच," अंधेरे में डॉक्टर ने बोबरोब की ओर मुड़ कर प्रतिवाद किया । तुम चाहते हो कि पूंजीपतियों का दिल पसीज जाए। मेरे दोस्त, जब से दुनिया शुरू हुई है, सारां काम-काज उदर-क्षुदा के अटल नियम द्वारा संचालित होता रहा है । सदा से ऐसा होता आ रहा है, और भविष्य में भी ऐसा ही होता रहेगा । किन्तु तथ्य की बात यह है कि करोड़पतियों की तुम्हें क्या परवाह, जबकि तुम उनसे कहीं ऊंचे हो ? समाचार पत्रों में प्रगति के रथ' की बड़ी चर्चा रहती है । क्या यह सोच कर तुम्हारा मस्तक गर्वोन्नत नहीं हो जाता कि तुम उन मुट्ठी भर लोगों में से हो, जो प्रगति के इस रथ को आगे खींच रहे हैं ? ठीक है, जहाज की कम्पनियों के शेयर मोना उगलते हैं, किन्तु वया इस कारण से हम फुल्टोन को मानवता का हितकारी मानने से इन्कार कर देगे ?" " मेरे प्यारे डॉक्टर !" झुलझुलाहट से बोबरोव ने मुंह बिचकाते हुए कहा । “तुम आज जिनेन्को के घर नहीं गये, किन्तु वास्तव में तुम उन लोगों के जीवन-दर्शन को मुखरित कर रहे हो। सौभाग्य से तुम्हारे विचारों को असंगत साबित करने के लिए तुम्हारी प्रिय थ्योरी का उल्लेख मात्र ही पर्याप्त होगा, किसी नये तर्क को खोजने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।" 'तुम्हारा किस थ्योरी की ओर संकेत है ? मुझे तो अपनी कोई थ्योरी याद नहीं । सच, मेरे दोस्त, इस वक्त मुझे कुछ याद नहीं आ रहा।" 'अब तुम्हें क्यों याद आने लगा जी! जरा वताना तो, उस दिन इसी सोफा पर बैठ कर कौन उत्तेजित होकर इतनी जोर से हाथ नचा-नचा कर कह रहा था कि हम इंजीनियरों और आविष्कर्ताओं की ईजादों ने हमारे समाज के हृत्-स्पन्दन को इतना अधिक तीन कर दिया है कि वह अब एक ज्वरग्रस्त, उन्मत्त अवस्था पर पहुंच गया है ? कौन था वह जो कह रहा था कि हमारा जीवन प्राक्सीजन से भरे बरतन में बन्द जीव के समान है ? विश्वास करो, मुझे बीसवीं सदी की सन्तानों की, टूटी जर्जरित आत्माओं, मेहनत के बोझ से दबे हुए लोगों की, पागलों और आत्महत्या करने वालों की यह खौफनाक फहरिस्त अच्छी तरह याद है, जिसकी जिम्मेदारी तुमने इन्हीं मानवता के हितैपियों पर आयद की थी। तुमने कहा था कि टेलीफोन, टेलीग्राफ और एक घंटे में अस्सी मील की रफ्तार से चलने वाली रेलों ने फासले को इतना कम कर दिया है कि वह लगभग मिट चुका है । समय का मूल्य इतनी तेजी से बढ़ता जा रहा है- तुमने कहा था कि शीघ्र ही रात को दिन में परिणत करके दिन को दुगना लम्बा बना दिया जायगा । जहां पहले सुलह-संधि या लेन-देन की बातचीत में महीनों लग जाते थे, वहां अब मामला मिनटों में निबट जाता है। किन्तु हमारे लिए यह उन्मत्त-गति अभी यथेष्ट नहीं है । वह दिन दूर नहीं जब हम तार द्वारा एक दूसरे को सैकड़ों, हजारों मीलों के फासले पर देख सकेंगे ! अभी पचास वर्ष से अधिक अर्सा नहीं गुजरा होगा, जब हमारे बाप-दादा गांव से प्रान्तीय केन्द्र जाने से पूर्व गिरजे में जाकर प्रार्थना किया करते थे और इतने दिन पहले निकल जाया करते थे मानो उत्तरी ध्रुव की यात्रा करने जा रहे हों। किन्तु अब वे दिन लद गये । आज तो हम लोग भीमकाय मशीनों के कर्णभेदी गर्जन-तर्जन के बीच अपने होश-हवाश गुम कर चुके हैं । घोर प्रतियोगिता के पहिये में फंस कर हमारा दिल-दिमाग छलनी हो गया है, रुचि दूषित और छिछली हो गयी है और हम हजारों नयी बीमारियों के शिकार होते जा रहे हैं । अब कुछ याद आया डॉक्टर ? आज तुम 'मानव-प्रगति' के गुण गाते नहीं थकते, किन्तु कुछ दिन पहले तुमने ही ये सब बातें कही थीं। - २५
इस बीच डॉक्टर ने प्रतिवाद करने के लिये कई बार मुंह खोला, किन्तु हर बार बोबरोव ने उन्हें रोक दिया था। जब बोबरोव सांस लेने के लिये एक क्षण रुका तो डॉक्टर ने झट अपनी बात शुरू कर दी। "हां मेरे दोस्त, तुम सही फरमाते हो। मैंने यह सब कुछ कहा था और आज भी मैं यही कहता हूं," डॉक्टर ने तनिक संदिग्ध भाव से कहा । "किन्तु तुम इतनी सी बात क्यों नहीं समझते, कि हमें अपने आपको परिस्थितियों के अनुकूल बनाना पड़ेगा, वरना जीना मुहाल हो जायगा। हर व्यवसाय में इस प्रकार की छोटी-छोटी पेचीदगियां पेश आती है। हम डॉक्टरों की ही बात लो। क्या तुम समझते हो कि हमारा रास्ता साफ है, हमें किसी संशय अथवा संकट का सामना नहीं करना पड़ता ? सच बात तो यह है कि शल्य-विद्या से परे हम कोई बात निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते। हम चिकित्सा प्रणालियों की बड़ी- बड़ी बातें करते हैं, किन्तु यह बिल्कुल भूल जाते हैं कि हजार में दो व्यक्ति भी ऐसे नहीं होते जिनकी रक्त-रचना, हृत-स्पन्दन, आनुवंशिकता आदि एक दूसरे से मिलते हों। सही चिकित्सा उन दवाओं द्वारा की जाती थी जिन्हें जंगली प्राणी और अशिक्षित हकीम प्रयोग में लाते थे, किन्तु हम आधुनिकता के फेर में पड़कर उसे भुला बैठे हैं । आज हमारे केमिस्टों की दुकानों में कोकीन, एट्रोपाइन, फैनासटिन इत्यादि चीजों की बाढ़ सी आ गयी है, किन्तु हम यह बात भूल गये है कि यदि हम किसी मरीज को सादे पानी का गिलास देकर उसे यह आश्वासन दिला दें कि वह बढ़िया दवा है, तो मरीज बिमारी से मुक्ति पा लेगा । फिर भी, हमारा पादरियों का सा आत्मविश्वास ही मरीजों में वह भरोसा पैदा करता है जिसके सहारे हम सौ में से नब्बे मरीजों का उपचार कर पाते हैं। तुम मानो चाहे न मानो, किन्तु एक बढ़िया चिकित्सक ने, जो होशियार और इमानदार भी था, एक बार मुझ से यह स्वीकार किया कि हम डॉक्टर जिस ढंग से आदमियों का इलाज करते है, उससे कहीं ज्यादा सावधानी और समझदारी से शिकारी अपने बीमार कुत्तों की सेवा-शुश्रूषा करते हैं। उनकी एक मात्र दवा गन्धक का फूल है, जो अधिक हानि नहीं पहुंचाता और कभी-कभी लाभदायक भी साबित होता है। कितना भारी अन्तर है हममें और उनमें - देखा मेरे दोस्त ! फिर भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार हम भी जो कुछ अपने से बन पड़ता है, करते हैं । अगर जीना है तो कहीं-न-कहीं समझौता करना ही पड़ेगा । कभी- कभी किसी आदमी की यातना को दूर करने के लिए हमें सर्वज्ञ मसीहा का भी अभिनय करना पड़ता है। इसके लिये हमें ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिये ।" "तुम समझौतों की बात करते हो, किन्तु तुमने आज खुद मसालस्क के राज-मजदूर की खोपड़ी से चिप्पियां निकाली हैं- क्यों, ठीक है न?" बोबरोव का स्वर विषाद में डूबा था। "लेकिन एक आदमी की खोपड़ी को जोड़ने से क्या बनता-बिगड़ता है मेरे दोस्त ? जरा सोचो, तुम जो काम करते हो उससे कितने अधिक लोगों को रोजी मिलती है, पेट भर खाने को मिलता है। यह क्या छोटी सी बात है ? इलोवेइस्की ने इतिहास में एक स्थान पर लिखा है कि “जार बोरिस जनता की सहानुभूति और समर्थन प्राप्त करना चाहता था, इसलिये उसने दुर्भिक्ष के दिनों में सार्वजनिक इमारतों का निर्माण करने का काम हाथों में लिया।" या कुछ ऐसा ही लिखा है। अब जरा अनुमान लगानो, तुम अपने काम से लोगों का कितना भला डॉक्टर के अन्तिम वाक्य को सुनकर बोबरोव तिलमिला सा गया। वह झपटकर बिस्तरे में उठ बैठा और अपने नंगे पांव नीचे लटका दिए । "लोगों का भला ?" वह बदहवास होकर चिल्लाया। "तुम लोगों के 'भले' की बात मुझ से कह रहे हो ? क्या बुरा है और क्या भला है, यह मैं अभी कुछ आंकड़े देकर साफ किये देता हूं।" और वह तीखे, स्पष्ट और सघे- सधाए स्वर में बोलने लगा, मानो किसी मंच से भाषण दे रहा हो : " यह बात किसी से छिपी नहीं है कि खानों, धातु-उद्योगों और बड़े कारखानों में काम करने से मजदूरों की जिन्दगी का लगभग चौथाई भाग घट जाता है। इसके अलावा मशीन से जो दुर्घटनाएं होती है और रात-दिन जो खून-पसीना एक करना पड़ता है, उसकी बात तो छोड़ ही दीजिए। डॉक्टर होने के नाते तुम से यह बात छिपी नहीं है कि कितने मजदूर सूजाक या मद्य-पान के व्यसन से पीड़ित हैं, तुम यह भी जानते हो कि जिन बैरकों और मिट्टी के झोपड़ों में वे रहते हैं, वे कितनी भयावह, गली-सड़ी, टूटी-फूटी अवस्था में पड़े हैं। ठहरी डॉक्टर, इससे पेश्तर कि तुम कोई आपत्ति उठाओ, जरा एक मिनट के लिये अपने दिमाग पर जोर डाल' कर सोचो. -क्या तुमने कारखानों में कोई मजदूर चालीस या पैंतालीस वर्ष से ज्यादा उम्र का देखा है ? मैंने अब तक एक भी ऐसा मजदूर नहीं देखा। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि हर मजदूर एक वर्ष में अपनी जिन्दगी के तीन महीने, एक महीने में पूरा एक सप्ताह और अगर संक्षेप में कहें तो एक दिन में छः घंटे अपने कारखानेदार को अर्पित कर देता है । अब जरा ध्यान से सुनो। हमारी छः भट्टियों को चलाने के लिए तीस हजार मजदूरों की आवश्यकता पड़ेगी-कदाचित् जार बोरिस ने स्वप्न में भी इतनी बड़ी संख्या की कल्पना न की होगी। तीस हजार प्रादमी, जो एक संग, प्रति दिन अपने जीवन के एक लाख अस्सी हजार घंटे भट्टियों में भस्मीभूत कर देंगे, अर्थात अपने जीवन के साढ़े सात हजार दिन--- कुल मिलाकर कितने वर्ष हुए ?" लगभग बीस साल," कुछ देर चुप रहने के बाद डॉक्टर ने कहा ।
" लगभग बीस साल प्रतिदिन !" बीबरोव चीख उठा । "दो दिन का काम एक आदमी को हड़प कर जायगा। खुदा रहम करे ! बाइबल' में असी- रियाई और मोबाइत लोगों का जिक्र आता है जो अपने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए नर-बलि चढ़ाते थे। किन्तु जो आंकड़े मैंने अभी बताये हैं, उन्हें देखकर तो वे पीतल के देवता, मलोच और डेगोन भी लज्जा और क्षोभ से सिर झुका लेंगे।" बोवरोव का ध्यान इससे पहले कभी अांकड़ों के इस विचित्र जमा-जोड़ की ओर नहीं गया था। कल्पनाशील व्यक्तियों की तरह उसे यह सब बातें बहस के दौरान में ही सूझ पायीं थीं। गोल्डबुर्ग की तो बात अलग रही, वह स्वयं आंकड़ों के इन असाधारण परिणामों को देखकर स्तम्भित रह गया था । "अब क्या कहूं, तुमने तो मुझे हैरत में डाल दिया," डॉक्टर ने कहा । 'किन्तु ये आंकड़े गलत भी हो सकते हैं । "और क्या तुम जानते हो कि इससे भी कहीं ज्यादा भयंकर अांकड़ों की तालिकाएं है," बोबरोब और भी अधिक जोश में भरकर बोलता जा रहा था, "जिनसे हम इस बात का बिलकुल सही अनुमान लगा सकते हैं कि तुम्हारे 'प्रगति के रथ' के प्रत्येक दानवीय कदम के नीचे कितने मनुष्यों को कुचल दिया जाता है ? जानते हो, हर छोटे-से-छोटे छलनी यंत्र, बीज बोने के यंत्र अथवा लोहे की पटरी बनानेवाली मशीन के आविष्कार के साथ कितनों को प्राणाहुति देनी पड़ती है ? क्या खूब चीज है तुम्हारी यह सभ्यता, जिसके फल हमें ऐसे आंकड़ों के रूप में दिखाई देते हैं, जिनकी इकाइयां इस्पात की मशीनें हैं और सिफर हैं आदमियों की जिन्दगियां !" डॉक्टर इस समय तक बोबरोव की उत्त जता से हतप्रतिभ सा हो पाया था। " लेकिन मेरे दोस्त," उसने कहा, 'क्या तुम्हारा अभिप्राय यह है कि हम पुराने जमाने के यंत्रों का प्रयोग करने लगें ? तुम हर चीज का निराशाजनक पहलू ही क्यों देखते हो ? आखिर तुम्हारे आंकड़ों के बावजूद मिल की ओर से स्कूल, गिरजे, एक अच्छे अस्पताल और मजदूरों को कम सूद पर ऋण देनेवाली एक संस्था की व्यवस्था भी तो की गयी है। बोवरोव बिस्तरे से कूद पड़ा और नंगे पांव कमरे में तेजी से चक्कर 66 11 काटने लगा। " तुम्हारे ये अस्पताल और स्कूल एक कौड़ी का मूल्य नहीं रखते । जनमत को रिझाने और तुम जैसे मानववादियों की आंखों में धूल झोंकने के लिए ही ये संस्थाएं खोली गयी है । चाहो तो मैं तुम्हें बता सकता हूं कि उनकी असलियत क्या है । जानते हो 'फिनिश' किसे कहते हैं ?"
फिनिश ? क्या वह तो नहीं, जो घोड़ों अथवा घुड़दौड़ से कुछ सम्बंध रखता है ?" "हां वही ! घुड़दौड़ में विजय-स्तम्भ के पार निकलने से पूर्व अन्तिम सात सौ फुट का फासला 'फिनिश' कहलाता है। इसी फासले को पार करते हुए घुड़सवार अपना पूरा जोर लगा देता है और घोड़े को चाबुकों से मारते- मारते लहुलुहान कर देता है। बस, विजय-स्तम्भ तक उसे भगाने में ही घुड़- सवार को दिलचस्पी है, उसके बाद घोड़ा मरे-जिये, उसकी बला से । हमारा व्यवहार भी उस घुड़सवार से मिलता-जुलता है। हम विजय की लालसा में घोड़े के बदन से खून की आखिरी बूंद तक निचोड़ लेते है, और अब उसकी कमर टूट जाती है और वह अपनी क्षत-विक्षत टांगों को हवा में पटकता हुआ दम तोड़ने लगता है, तो वह हमारे किसी काम का नहीं रह जाता। हम उस पर थूकना भी पसन्द नहीं करते। तुम्हारे स्कूल और अस्पताल उस मृतप्राय घोड़े को क्या लाभ पहुंचा सकते हैं, मुझे समझ में नहीं आता। क्या तुमने भाग धातु को गलते अथवा गर्म धातु को लोहे की पटरियों में परिणत होते देखा है ? यदि तुमने देखा है, तो मुझे यह बतलाने की आवश्यकता नहीं कि इस काम को करने के लिए कितने धैर्य और साहस, इस्पाती पुट्ठों और सर्कस के खिलाड़ी की सी स्फूर्ति की जरूरत पड़ती है । तुम्हें पता होना चाहिए कि हर मजदूर दिन में अनेक बार मृत्यु के मुंह में जाने से बाल-बाल बच निकलता है, जिसका श्रेय हम केवल उसके प्रात्म-संयम की अद्भुत शक्ति को ही दे सकते हैं। क्या तुम जानना चाहोगे कि इस खतरनाक काम के एवज में उस मजदूर को क्या मिलता है ?" किन्तु फिर भी जब तक मिल' है, तब तक हर मजदूर कम-से-कम अपनी रोजी की ओर से तो निश्चित है," गोल्डबुर्ग अपनी बात पर अड़ा रहा । "क्यों बच्चों की सी बातें करते हो, डॉक्टर !" बोबरोव ने खिड़की की देहरी पर बैठते हुए गर्म होकर कहा । "आज मजदूरों का भाग्य उत्तरोत्तर मंडी की मांग, शेयरों के क्रय-विक्रय और अनेकानेक कुचक्रों-पड़यंत्रों पर निर्भर होता जा रहा है। हर प्रौद्योगिक-व्यवसाय स्थायित्व प्राप्त करने से पूर्व तीन- चार उद्योगपतियों के हाथों से गुजरता है। क्या तुम जानते हो कि हमारी कम्पनी की नींव कैसे पड़ी ? कुछ मुट्ठी भर उद्योगपतियों ने मिलकर पूजी इकट्ठा की। प्रारम्भ में इस व्यवसाय का संगठन छोटे पैमाने पर किया गया था। किन्तु इससे पेश्तर कि व्यवसाय के मालिक कुछ कर पाते, इंजीनियरों, संचालकों और ठेकेदारों की टोली ने सारी पूंजी पानी की तरह बहा दी। बड़ी-बड़ी इमारतों का निर्माण किया गया जो बाद में बिलकुल बेकार साबित हुई। उन सबको बारूद से उड़ा दिया गया । आखिरकार मजबूरी की हालत में सारा धंधा रूबल में दस कोपेक के भाव पर बेच देना पड़ा। बाद में विदित हुआ कि एक अन्य कम्पनी के चतुर, कार्यकुशल उद्योगपतियों ने इंजीनियरों और ठेकेदारों की मुट्ठी गर्म की थी, ताकि वे हमारी कम्पनी को मिट्टी में मिलाकर अपना उल्लू सीधा कर सकें। यह सही है कि आज यह कम्पनी काफी बड़े पैमाने पर चल रही है, किन्तु मैं अच्छी तरह जानता हूं कि जब पहली बार कम्पनी फेल हुई थी तो मजदूरों को दो महीने की मजूरी से हाथ धोना पड़ा था। सो डॉक्टर, रोज़ी इतनी ज्यादा सुरक्षित नहीं है, जितनी तुम समझते हो ! शेयरों के दाम गिरे नहीं कि मजूरी में तुरन्त कटौती कर दी जाती है। संभवत: शेयरों के उतार-चढ़ाव का कारण तुम जानते हो ? पीटर्सबर्ग में जाकर किसी दलाल के कानों में चुपके से कह दो कि तुम तीन लाख रूबल के शेयर बेचना चाहते हो । उसे यह भी जतला दो कि यदि वह इस बात को गुप्त रखेगा, तो तुम उसे एक अच्छी-खासी रकम कमीशन के रूप में दे दोगे । यही बात तुम दूसरे दलालों के कानों में फूंक दो। फिर देखो, शेयरों के दाम धड़ाधड़ गिरने शुरू हो जायेंगे। मामला जितना अधिक गुप्त रखा जायगा, उतनी ही तेजी से दाम गिरते जायेंगे । इन परिस्थितियों में रोजी सुरक्षित कैसे रह पायगी, डाक्टर ?" बोबरोव ने एक झटका देकर खिड़की खोल दी। ठंडी हवा का झोंका भीतर घुस आया। "डॉक्टर, देखो !" बोबरोव ने मिल की ओर इशारा किया । गोल्डबुर्ग उठ कर कुहनी के सहारे बैठ गया और खिड़की से बाहर फैले अंधकार को देखने लगा। दूर फासले पर फैला विस्तार चूने की गर्म तपी हुई चट्टानों के अनगिनत ढेरों के प्रकाश से जगमगा रहा था । चट्टानों की सतहों पर गन्धक की नीली-हरी लपटें जब तब भड़क उठती थीं। ये लपटें चूने के पत्थरों के आदम-कद ढेरों* से निकल रही थीं। मिल' के ऊपर हल्का सा रक्तिम आलोक छाया था, जिसमें अंधकार में डूबी ऊंची चिमनियों के पतले शिखर दिखायी दे रहे थे । मैला-भूरा सा कुहरा धरती से ऊपर उठ रहा था, जिसमें चिमनियों के निचले हिस्से धुंधलके में छिपे थे। वे दानवी, भीमकाय चिमनियां अनवरत रूप से घने धुएं के बादल उगल रही थीं, जो आपस में घुल-मिल कर एक बिखरे- छितरे झुंड की शक्ल में पूरब की और उड़े जा रहे थे। उन्हें देख कर लगता था मानो मैले-भूरे अथवा हल्के लाल रंग के ऊन के गाले हवा में तिरते जा रहे है। पतली ऊंची चिमनियों के ऊपर जलती गैस की चमकदार शहतीरें थिरक * इन ढेरों पर कोयले और लकड़ी से आग जलायी जाती है और लगभग एक सप्ताह तक इन्हें गर्म किया जाता है । उस समय तक चूने का पत्थर चुने में परिणत हो जाता है।
देता था, और नाच रही थीं जिससे वे विशालकाय मशालों के समान दीख रही थीं। गैस की लपटें मिल के ऊपर उड़ते हुए धुएं के बादल पर विचित्र, भयावह किस्म की छायाएं फेंक रही थीं। रह रह कर संकेत-हथौड़े का भारी धमाका सुनाई जिसके तुरन्त बाद भट्टी की घंटी नीचे की ओर चली जाती थी और आग की लपटों तथा कालिख का वातचक्र भट्टी के मुख से फूट कर प्रचंड गति से बादलों की तरह गड़गड़ाता हुआ आकाश की ओर लपकने लगता था । तब, अचानक कुछ देर के लिए मिल का समूचा अहाता पालोकित हो उठता । उस क्षणिक आलोक में गर्म तपे हुए और एक दूसरे से सटे हुए चूल्हे एक आलीशान दुर्ग के बुर्ज से दिखायी देते थे । जलते हुए कोयलों से भरे भट्ट सीधी लम्बी कतारों में खड़े थे। कभी-कभी किसी भट्टे से ज्वाला भड़क उठती और वह एक विशाल, सुर्ख नेत्र सा दीखने लगता। कहीं-कहीं विद्युत प्रकाश की नीली, निर्जीव आभा तपते हुए लोहे की चकाघौंध चमक में घुल-मिल सी गयी थी। लोहा पीटने की झनझनाहट बराबर सुनायी दे रही थी। मिल की रोशनियों की आभा में बोबरोव के चेहरे पर तांबे के रंग की कुटिल छाया घिर आयी थी। उसकी आंखें प्रज्वलित सी हो उठी थीं। और बाल माथे पर बिखर आये थे। उसकी आवाज गुस्से में उफनती सी जान पड़ती थी। -वह मलोच इंसान के गर्म खून को पीने की लालसा में मुंह फाड़े खड़ा है !" अपनी पतली बांह से खिड़की के बाहर इशारा करते हुए बोबरोव ने कहा। 'ठीक है, यह प्रगति, मशीन श्रम, सभ्यता और सांस्कृतिक विकास का प्रतीक है। किन्तु अल्लाह के नाम पर जरा मानव के जीवन के उन बीस वर्षों के बारे में सोचो, जो एक दिन में स्वाहा हो जाते हैं ! सच मानो, कभी-कभी तो मुझे लगता है कि मैं हत्यारा हूं !" " क्या यह आदमी अपने होश-हवास गुम कर बैठा है ?" डाक्टर इस विचार से कांप उठा । वह बोबरोव को सांत्वना देने लगा। "अरे छोड़ो भी आन्द्रे इलिच ! तुम इन बेकार की बातों से नाहक परेशान होते हो । बाहर सीलन है और तुमने खिड़की खोल रखी है। देखो, यह थोड़ी सी ब्रोमाईड लो और सोने की तैयारी करो।" " सचमुच, इस आदमी का तो सर फिर गया है, ने सोचा। वह भय और करुणा से अभिभूत सा हो उठा । बोबरोव ने दिल की भड़ास निकाल ली थी और वह अब इतना थक गया था कि उसने डाक्टर के आदेश का विरोध नहीं किया। किन्तु बिस्तर में घुसते ही वह विक्षिप्त व्यक्ति की भांति फफक-फफक कर रोने लगा। डॉक्टर " 'वह देखो- डाक्टर
बड़ी देर तक उसके पास बैठा उसके बालों को सहलाता रहा, मानो वह कोई बच्चा हो । सहानुभूति के जो शब्द उसे उस समय सूझ पड़े, उन्हीं से बोबरोव को सांत्वना देने लगा। दूसरे दिन इवांगकोवो स्टेशन पर वासिली तेरेन्त्येविच क्वाशनिन का भव्य स्वागत किया गया । ग्यारह बजे तक मिल की समूची प्रबंध समिति स्टेशन पर आ जमा हुई थी। सबका दिल घबरा रहा था । मैनेजर सर्गे वेलेरियानोविच रोल्कोवनिकोव सोडा-वॉडर के गिलास-पर-गिलास पीता जा रहा था। पल-पल में वह जेब से घड़ी निकालता और डॉयल पर नजर डाले बिना उसे यंत्रवत' जेब में रख लेता था। उसका यह विचित्र व्यवहार उसकी घबराहट का सूचक था। उसके सुन्दर, साफ-सुथरे और आत्म-विश्वास से दमकते चेहरे पर- -जिसे देखकर लगता था कि समाज में . उसका प्रतिष्ठित स्थान है— इस समय भी घबराहट के बावजूद कोई शिकन नहीं दिखायी देती थी। अधिक लोग इस बात को नहीं जानते थे कि निर्माण-योजना का वह केवल नाममात्र के लिए ही मैनेजर था। संचालन और व्यवस्था की असली बागडोर बेलजियन इंजीनियर अान्द्रेयस के हाथों में थी। आन्द्रेयस के वंश में पोलिश और स्वीड जातियों का रक्त मिला हुआ था। मिल के संचालन में वह किस प्रकार का योग देता था, इसका रहस्य मिल के कुछ इने-गिने विश्वासपात्र अधिकारी ही जानते थे । दफ्तर में रोल्कोवनिकोव और आन्द्रेयस के कमरों को जोड़ता हुआ एक दरवाजा था। किसी भी महत्वपूर्ण विषय पर आन्द्रेयस की सलाह के बिना रोल्कोवनि- कोव में फैसला देने का साहस नहीं था। हर कागज के एक कोने पर पान्द्रेयस पेन्सिल का चिन्ह बना देता और उसके अनुसार ही रोल्कोवनिकोव अपना निर्णय लिया करता। जब कभी किसी फौरी विषय पर आन्द्रेयस के साथ सलाह-मशविरा करना संभव न हो पाता, तो वह प्रार्थी के सम्मुख व्यस्त बनने का उपक्रम करते हुए लापरवाही से कहता, "मैं बहुत व्यस्त हूं। मुझे खेद है कि मैं आपको समय नहीं दे सकता। कृपया आपने जो कुछ कहना है, मि० आन्द्रेयस से कह दीजिए। वह बाद में मुझे उसके सम्बंध में विशेष सूचना भेज देगे।" आन्द्रेयस ने संचालक-मंडल की अनगिनत सेवाएं की थीं। पुरानी कम्पनी को नष्ट करने की धोखाधड़ी की अद्भुत योजना उसके कल्पनाशील, कार्यकुशल मस्तिष्क की ही उपज थी। उस पडयंत्र में उसका अदृश्य हाथ आखिर तक काम करता रहा था। उसके तैयार किये हुए खाके अपनी सफाई और सादगी क लिए खनिज विज्ञान के क्षेत्र में अतुलनीय और अद्वितीय माने जाते थे । वह योरप की अनेक भाषाएं आसानी से बोल सकता था और अपने विषय के अलावा अन्य अनेक विषयों का भी अच्छा ज्ञाता था। एसे व्यक्ति इंजीनियरों में कम ही दिखलायी देते है। स्टेशन में एकत्र भीड़ में बान्द्रेयस ही ऐसा व्यक्ति था जिसकी प्रकृतस्थ, शान्त मुद्रा में कोई अन्तर नहीं आया था । देखने में वह तपेदिक का मरीज सा लगता था और उसका चेहरा बूढ़े लंगूर का सा था । हमेशा की तरह उसके मुह में सिगार दबा हुअा था । वह सबसे बाद में आया था और अब अपनी चौड़ी खुली पतलून की जेबों में कुहनियों तक हाथ ठूस कर प्लेटफार्म के चक्कर काट रहा था। उसकी हल्के भूरे रंग की प्रांखों से स्पष्ट रूप से विदित होता था कि एक वैज्ञानिक का प्रगल्भ मस्तिष्क उसके पास है और जीवट का दुस्साहसी कार्य करने के लिए वह आग में भी कूद सकता है। उसकी फूली पलके भारी थकान से नीचे की ओर झुक पायीं थीं और वह विरक्त भाव से चारों ओर देख रहा था। स्टेशन पर जिनेन्को परिवार के प्रागमन से किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। सबकी आंखों में अब वह परिवार मिल के सामूहिक जीवन का एक अभिन्नतम अंग बन चुका था । स्टेशन के ठंडे, बुझे-बुझे धुंधलके में लड़कियों का हास-विनोद और हंसी के कहकहे कृत्रिम और असंगत से दीख रहे थे। नौजवान इंजीनियरों ने- जो प्रतीक्षा करते-करते थक गये थे --~-पांचो बहनों को घेर लिया था । जिनेन्को की लड़कियों ने तुरंत अभ्यासवश व्यवहारिकता की सुरक्षित पाड़ में अपने आस-पास खड़े लोगों के संग आकर्षक, किन्तु बासी और बचकानी बातें करनी शुरू कर दी । नाटे कद की अन्ना अफानास्येवना एक परेशान, बेचन मुर्गी सी अपनी लड़कियों के बीच फुदक रही थी। पिछली रात जो उफान आया था, उसके चिन्ह बोबरोव के भ्रान्त, रुग्ण चेहरे पर इस समय भी दिखायी दे रहे थे । वह प्लेटफार्म के एक कोने में सबसे अलग-थलग चुपचाप बैठा था और सिगरेट-पर-सिगरेट पिये जा रहा था । जब जिनेन्को परिवार शोर-गुल मचाता और चहचहाता हुआ एक गोल मेज के इर्द- गिर्द आकर बैठ गया, तो उसके मन में दो धुंधली सी भावनाएं उत्पन्न हुई । एक थी शर्म की भावना-किसी अन्य की नागवार हरकत पर शर्म करने की भावना -जो उसके हृदय को चीरती चली गयी। जिनेन्को परिवार, औचित्य अनौचित्य की चिन्ता किये बिना इस स्थान पर आ धमका था, जो बोबरोव को सर्वथा असंगत और अवांछनीय प्रतीत हुआ । दूसरी ओर उसे नीना को देखकर प्रसन्नता भी हुई थी । स्टेशन आते हुए बग्गी की सरपट चाल के कारण नीना के गालों पर लाली छा गयी थी, आंखें गहरी उत्तेजना से चमक रही थीं; उसकी क३
वेश-भूषा सबका ध्यान बरवस अपनी ओर आकर्षित कर लेती थी। अपनी कल्पना में बोबरोव ने नीना की जो छवि बसा रखी थी, इस समय वह उससे कहीं अधिक सुन्दर लग रही थी। उसकी पीड़ित और रुग्ण आत्मा में सहसा स्निग्ध सुगन्धित प्रेम के लिए अदम्य उत्कण्ठा जाग उठी, नारी के सुकोमल सहानुभूतिपूर्ण स्पर्ष के लिए वह विकल हो उठा । वह नीना से मिलने का अवसर खोजने लगा, किन्तु नीना धातु शास्त्र के दो विद्यार्थियों से गप्पें लड़ा रही थी। दोनों विद्यार्थी उसे हंमाने के लिए एक दूसरे से होड़ लगा रहे थे और नीना हंस रही थी -नखरों और चोंचलों से भरी हमी, जिसे देख कर लगता था मानो उसके आनन्द और उल्लास का कोई और-छोर नहीं है। उसके छोटे-छोटे सफेद दात खुले हुए होठों के भीतर से चमक रहे थे । फिर भी नीना की आंखें दो-चार बार बोबरोव की आंखों से टकरायीं । बोबरोव को लगा कि नीना की भौहें मानो कुछ पूछती हुई सी तनिक उठ गयी हैं, और उनके उस मूक प्रश्न में उसे रोष या अप्रसन्नता की कोई झलक न दिखायी दी। प्लेटफार्म की घंटी ने सूचना दी कि रेल पिछले स्टेशन से छूट चुकी है। घंटी सुनते ही इंजीनियरों के दल में भगदड़ सी मच गयी। बोबरोव अपने कोने में बैठा रहा । उसके होठों पर व्यंग्य की हल्की मुस्कान सिमट आयी। वह उन बीस-एक इंजीनियरों को देखता रहा, जो घवड़ाए हुए इधर-उधर डोल रहे थे और जिनके दिलों में एक ही भय कुण्डली मार कर बैठ गया था। उनके चेहरे एकदम गम्भीर और चिन्तित से हो गये । आखिरी बार वे अपने फ्राक-कोट के बटनों, टाईयों और टोपियों पर हाथ फेर रहे थे। उनकी आखे घंटी पर चिपकी हुई थीं। देखते-देखते सारा हाल खाली हो गया । बोबरोव बाहर प्लेटफार्म पर निकल आया। उसने देखा कि जिन युवकों से जिनेन्को की लड़कियां हंसी-मजाक कर रही थीं, वे अब उन्हें अकेला छोड़कर चलते बने थे और वे दरवाजे के पास अन्ना अफानास्येवना को घेरकर असहाय-सी खड़ी थीं। नीना ने पीछे मुड़कर बोबरोव को देखा, जो उसे टकटकी बांचे निहार रहा था । नीना उसके पास इस तरह चली आयी, मानो बोबरोव के हाव-भाव से उसे ऐसा प्रतीत हुआ हो कि वह उससे एकांत में बात-चीत करना चाहता है। "नमस्ते ! क्या बात है, आज तुम्हारा मुंह इतना पीला-सा क्यों जान पड़ रहा है ? तबियत ठीक नहीं है क्या?" उसने वोबरोव के हाथ को अपने कोमल हाथों में जकड़ते हुऐ पूछा। वह अपनी निश्छल, स्नेहसिक्त निगाहों से बोबरोव की आंखों में देख रही थी। "कल रात तुम इतनी जल्दी बिना कुछ कहे अचा- नक चले गये । नाराज हो गये थे क्या ?"
" हां भी और नहीं भी," बोबरोब ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया । " नहीं इसलिए कि मुझे नाराज होने का कोई अधिकार नहीं है । क्यों, ठीक है न ?" 'मेरे विचार में हर आदमी को नाराज होने का अधिकार प्राप्त है, 'विशेषकर उस समय जब वह जानता हो कि उसकी राय की कद्र की जाती है। अच्छा, और 'हाँ' क्यों ?" "हां इसलिए कि -बात यह है, नीना ग्रिगोरयेवना," बोबरोव ने सहसा अपनी झिझक को उतार कर फेंकते हुए कहा, "कि कल रात जब हम दोनों बरामदे में देर तक बैठे रहे थे - याद है न ? उस समय मैने जीवन के कुछ इतने सुन्दर, विलक्षण क्षण बिताये, जिनके लिए मैं हमेशा तुम्हारा कृतज्ञ रहूंगा। तब मुझे लगा था कि यदि तुम चाहो, तो मुझे दुनिया का सबसे सुखी आदमी बना सकती हो ... नहीं, अब मैं कोई संकोच नहीं करूंगा, अब तुम से मैं सारी बात बेझिझक कह डालूंगा। तुम जानती हो ... तुमने अनुमान तो अवश्य लगा लिया होगा शायद काफी पहले से तुम समझ गयी होगी कि मैं ... " मैं तुम्हें किन्तु वह अपना वाक्य पूरा नहीं कर सका । कुछ देर पहले उसके हृदय में साहस का जो ज्वार उठा था, वह सहसा उतर गया । 'कि तुम क्या ? तुम क्या कहने जा रहे थे ?" नीना ने दिखावटी लापरवाही के साथ कहा, किन्तु अपने पर कड़ा संयम रखने के बावजूद उसका स्वर कांपने लगा था और आंखें नीचे झुक आयीं थीं। वह बोबरोव से उस प्रेम प्रस्ताव की प्रतीक्षा कर रही थी, जो प्रत्येक नवयौवना के हृदय को, चाहे वह स्वयं उस प्रेमानुभूति में साझीदार हो या न हो, इस कदर रोमांचित कर देता है, इस कदर मिठास से भर देता है । उसका चेहरा कुछ पीला पड़ गया था। "अभी नहीं ...फिर कभी सही," बोबरोव हकलाने लगा था। यह बात किसी और दिन बताऊंगा । किन्तु अभी रहने दो, अभी मैं कुछ भी नहीं कह सकूँगा।" उसने अभ्यर्थना करते हुए कहा। "अच्छा । किन्तु तुमने अपनी नाराजगी का कारण तो बताया ही नहीं।" हां बताता हूं। बरामदे में बिताये गये उन क्षणों के बाद जब मैं खाने वाले कमरे में पाया तो मेरी आत्मा एक...एक कोमल, दिव्य अनुभूति में डूबी थी और जब मैंने ..." 'और जब तुमने क्वाशनिन की आमदनी के सम्बंध में हमारी बातचीत को सुना, तो तुम्हारी भावनाओं को ठेस पहुंची, क्यों यही बात है न ?" नीना ने बीच में ही कह दिया। जिस प्रकार कभी-कभी नितान्त संकीर्ण बुद्धि वाली स्त्रियां भी मानो अन्तःप्रेरणा से दूसरों के हृदय का भेद पा लेती है, उसी तरह ( ।
" " नीना ने भी बिलकुल सही अनुमान लगाया था । 'क्या मैंने ठीक बात कही है ?" वह बिलकुल उसके सामने खड़ी हो गयी और एक बार फिर उसने बोबरोव को अपनी गहरी, स्नेहसिक्त दृष्टि से ढंक लिया। "अपने दिल की बात मुझ से कह दो । देखो, अपने मित्र से कोई बात छिपायी नहीं जाती।" तीन या चार महीने पहले की घटना थी। वे सब लोग एक रात नौका- विहार करने निकले थे। गर्मी की रात के स्निग्ध सौंदर्य से द्रवित होकर नीना का हृदय कोमलता से भर गया था। उसने बोबरोव से आजीवन मित्रता का प्रस्ताव किया था । बोबरोव ने भी पूरी गम्भीरता से उसके प्रस्ताव को स्वीकार किया था। पूरे एक सप्ताह तक वे दोनों एक दूसरे को " मेरे मित्र " कह कर पुकारते रहे थे। जब कभी वह अपने उनींदे से, धीमे और रहस्य में डूबे स्वर में उसे "मेरे मित्र" के सम्बोधन से बुलाती थी तो ये दो छोटे-छोटे शब्द बोबरोव के अन्तस्तल की अतल गहराइयों को छू जाते थे । उस मजाक को याद करके उसने एक ठंडी सांस भरी। 'दिल की बात कहना क्या इतना सुगम है, मेरे मित्र ? फिर भी मैं तुम्हें सब कुछ बताऊंगा। तुम्हें देख कर मेरा दिल हमेशा दो परस्पर विरोधी भावनाओं में बंट जाता है, और मैं अनिश्चय की पीड़ा से आक्रान्त हो उठता हूं। कभी-कभी तुम से बातचीत करते समय तुम्हारा सिर्फ एक शब्द, संकेत, या महज उड़ती हुई सी निगाह मुझे अानन्द-विभोर कर देती है। किन्तु ... में अपनी इस अनुभूति को शब्दों में कैसे व्यक्त करू? क्या कभी तुमने इस बात पर गौर किया है ?" "हां," नीना ने दये होठों से कहा, और पलकों को फड़फड़ाते हुए अपनी आखें मुका लीं। "और फिर किसी दिन अचानक तुम्हारे व्यवहार और बातचीत से एक कस्बाती, संकीर्ण विचारों वाली भद्र महिला की गन्ध पाने लगती है- वही दिखावा आडम्बर, वही घिसे-पिटे मुहावरे ! यह बात शूल की तरह मेरे दिल में गढ़ती रहती है, इसीलिए बिना किसी दुराव-छिपाव के मैंने यह सब कुछ तुम से कह दिया है । आशा है, तुम मेरी बात का बुरा नहीं मानोगी।" "मैं यह बात भी जानती थी।" 'सच ? मुझे इस बात में कभी कोई सन्देह नहीं रहा कि तुम्हारा हृदय अत्यंत कोमल और सम्वेदनशील है। किन्तु जैसी तुम आज हो, वैसी ही हमेशा क्यों नहीं रहतीं ?" वह उसकी ओर दुबारा मुड़ी और अपने हाथ को इस तरह आगे बढ़ाया मानो उसके हाथ का स्पर्ष करना चाह रही हो । वे प्लेटफार्म के एक सुनसान कोने में टहल रहे थे।
। बैठती हूं " "तुम बहुत जल्दी अधीर और उत्तेजित हो उठते हो आन्द्रेइलिच ! तुमने अाज तक मुझे समझने का प्रयत्न ही नहीं किया ।" नीना ने उलाहना भरे स्वर में कहा । “जो कुछ मुझ में अच्छा है. उसे तुम बढ़ा-चढ़ा कर देखते हो, किन्तु जैसी मैं हूं - वह तुम्हें एक प्रांख नहीं सुहाता। भला इसमें मेरा क्या दोष है ? जिस वातावरण में पल कर मैं इतनी बड़ी हुई हूं, वैसी ही तो रहूंगी । तुम मुझे उससे भिन्न देखने की आशा क्यों करते हो ? यदि मैं अपने को बदलने की कोशिश भी करू', तो सारे परिवार में कलह और फूट पड़ जायेगी । मैं इतनी कमजोर और, सच पूछो, तो इतनी क्षुद्र हूं, कि अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना मेरे बूते के बाहर की बात है । जहां सब लोग जाते हैं, वहीं मैं भी जाती हूं, उन्हीं की प्रांखों से सब चीजों को जांचती परखती हूं। सच मानो, मुझे अपने सम्बंध में कोई गलतफहमी नहीं है । मुझे मालूम है में कितनी साधारण हूँ किन्तु जब मैं दूसरों के संग होती हूं तो मुझे यह बात इतनी नहीं खटकती जितनी कि जब मैं तुम्हारे संग होती हूँ। तुम्हारे सम्मुख मैं अपना सब संतुलन खो वह क्षण भर के लिए झिझकी । " क्योंकि, क्योंकि तुम उन सब लोगों से भिन्न हो, क्योंकि मैंने तुम जैसा व्यक्ति जीवन में कभी नहीं देखा । नीना को लग रहा था मानो वह सच्चे दिल से यह सब बातें कह रही हो । शरद ऋतु की ताजी, मादक हवा, स्टेशन की हलचल और शोरगुल, खुद अपनी खूबसूरती का अहसास और बोबरोव की प्रेम से भीगी दृष्टि के स्पर्श की सुखद अनुभूति- इन सब चीजों ने मिल कर उसे इतना अधिक उन्मादित कर दिया था कि भावोन्मत्त व्यक्तियों की तरह वह बिना जाने-बूझे, जोश और खूबसूरती के साथ झूठ बोलती चली गयी। नैतिक सम्बल पाने के लिए विकल युवती की अपनी इस भूमिका के प्रवाह में बह कर वह बोबरोव को लुभावनी बातें सुनाकर खुश करना चाहती थी। " मैं जानती हूं कि तुम मुझे एक मनचली लड़की समझते हो। इन्कार मत करो- मेरे कुछ हाव-भाव से तुम्हारा ऐसा समझना स्वाभाविक ही है। मिसाल के तौर पर मिलर को ही लो-- उसके संग गप्पें मारती हूं, उसके मजाकों पर हंसती हूं। किन्तु काश तुम जान पाते, कि उस गबरू-गंवार से मैं कितनी नफरत करती हूं। या उन दोनों विद्यार्थियों को ही ले लो। सच पूछो तो खूबसूरत आदमी, और कुछ नहीं तो सिर्फ इसलिए असह्य होते हैं कि वे खुद अपनी खूबसूरती पर लटू बने रहते हैं अपनी प्रशंसा करते कभी नहीं थकते। चाहे यह बात तुम्हें कितनी अजीब क्यों न लगे, किन्तु विश्वास करो, मुझे सादी सूरत वाले लोग ही विशेष रूप से अच्छे लगते हैं। कोमल स्वर में कहे गये इन मधुर शब्दों को सुनकर बोबरोव ने एक ठढी आह भरी। स्त्रियों के मुख से सांत्वना के ऐसे शब्द वह अनेक बार सुन चुका 1 " ३७
था। हर सुन्दर स्त्री अपने कुरूप प्रशंसकों को ऐसी सांत्वना देकर धीरज बंधाने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखती ! "अच्छा तो फिर किसी-न-किसी दिन मैं आपसे अपील करने की आशा. रख सकता हूं ?" उसने मजाक के अन्दाज में, किन्तु ऐसी आवाज में पूछा जो तीखे आत्मोपहास से भरी हुई थी। नीना झट अपनी गलती सुधारने के लिए बोल उठी, " कैसे अजीब आदमी हो ! तुमसे तो दो बातें करना भी गुनाह है। क्या आप कुरेद-कुरेद कर हमसे अपनी प्रशंसा करवाना चाहते हैं जनाब ? शर्म आनी चाहिए आपको !" अपनी नासमझी पर नीना खुद ही कुछ लज्जित सी हो गयी, और विषय को बदलने के लिए उसने हंसते हुए बोबरोव को आदेश दिया, "अच्छा बतायो, तुम मुझे किसी और दिन' क्या बताने वाले थे ? कृपा करके सब कुछ अभी तुरंत बता दो !" कौन सी बात, मुझे तो कुछ याद नहीं," बोला । उसका उत्साह फीका पड़ चुका था। अच्छा तो मेरे रहस्यमय मित्र, मैं अभी तुम्हें सब याद दिलाये देती हूं। तुम कल रात की बात कर रहे थे । वरामदे में कुछ सुखद क्षणों का जिक्र करने के बाद तुमने मुझसे पूछा था कि एक बात तो मैंने बहुत दिन पहले से ही जान लो होगी-किन्तु कौन सी बात ? तुमने अपना वाक्य बीच में अधूरा छोड़ दिया था। अब उस बात को कह डालिये ~ फौरन कह डालिये !" उसकी आंखों में मुस्कराहट थिरक रही थी- शरारत भरी, प्रोत्साहन- पूर्ण, कोमल मुस्कराहट ! एक मधुर क्षण के लिए बोबरोव का हृत-स्पन्दन स्तब्ध सा रह गया और एक बार फिर उसका हौसला बढ़ा । "वह मेरे दिल की बात जानती है, प्रतिक्षा कर रही है कि मैं कुछ बोलूं !" उसने साहस बटोरते " बोबरोव हकलाता हुआ हुए सोचा। वे प्लेटफार्म के दूसरे सिरे पर आकर खड़े हो गये थे, जहा उनके अलावा अन्य कोई न था। दोनों के दिल जोर-जोर से धड़क रहे थे। नीना ने जो खेल शुरू किया था, उसमें वह पूरी तरह रम चुकी थी और बड़ी उत्सुकता से बोबरोव के उत्तर की प्रतीक्षा कर रही थी। बोबरोव इतना अधिक उत्तेजित हो गया था कि घबराहट में उसके मुंह से बात ही न निकल रही थी। किन्तु उसी समय भोंपू का कर्कश, तीखा स्वर सुनाई दिया और प्लेटफार्म पर भगदड़ सी मच गयी। " मैं तुम्हारे उत्तर की प्रतीक्षा करती रहूंगी, समझे ? तुम शायद नहीं जानते कि मैं उसको कितना अधिक महत्व देती हूं।" ३८
सहसा दूर मोड़ के पीछे काले धुएं में लिपटी एक्सप्रेस-ट्रेन आती हुई दिखायी दी । कुछ मिनटों के बाद उसके पहियों की गड़गड़ाहट धीमी पड़ने लगी और वह प्लेटफार्म के सामने आकर रुक गयी। उसके सिरे पर नीले रंग का एक चमकता हुआ लम्बा डब्बा था। भीड़ का रेला उसी की ओर टूट पड़ा। कन्डक्टर तेजी से कम्पार्टमेंट का दरवाजा खोलने के लिए आगे बढ़े । रेल के डव्वे से प्लेटफार्म तक एक सीढ़ी बिछा दी गयी। स्टेशन-मास्टर का चेहरा उत्तेजना और घबराहट से लाल हो गया था। वह उन मजदूरों को जोर-जोर से हांक रहा था, जो क्वाशनिन के कम्पार्टमेंट को ट्रेन से अलग कर रहे थे । क्वाशनिन 'एक्स' रेलवे का प्रमुख भागीदार था, इसलिए ब्राच-लाइन के हर स्टेशन पर जिस आन-बान से उसका स्वागत किया जाता था, वैसा स्वागत शायद ही कभी रेलवे के किसी ऊंचे अफसर का किया जाता हो । केवल चार व्यक्ति गाड़ी के डब्बे में घुसे - शेल्कोवनिकोव, अान्द्रेयस और दो प्रमुख बेल्जियन इंजीनियर । क्वाशनिन एक आरामकुर्सी पर अपनी लम्बी-चौड़ी टांगें फैलाकर बैठा था। उसकी तोंद बाहर की ओर निकली थी और उसने एक गोल फेल्ट टोपी पहन रखी थी, जिसके नीचे से लाल सुखं वाल नजर आ रहे थे। उसने एक अभिनेता की भांति अपनी दाढ़ी मूछ सफाचट करवा रखी थी। उसके जबड़ों का ढीला-ढाला मांस नीचे की ओर लटक रहा था और ठुड्डी के नीचे मांस की तीन तहें बन गयी थीं। झाईयों से भरे उसके चेहरे पर निद्रा और खीज के चिन्ह स्पष्ट दिखायी दे रहे थे। उसके होंठ व्यंगात्मक मुद्रा में मुड़े थे। कुर्सी से सप्रयास उठकर उसने इंजीनियरों का अभिवादन किया । " नमस्कार सज्जनो !" उसने भारी और गहरी आवाज में कहा और अपना लम्बा मोटा हाथ आगे बढ़ा दिया, ताकि सब इंजीनियर बारी-बारी से श्रद्धा और सम्मान के साथ उसका स्पर्श कर लें। "मिल में सब काम ठीक तरह से चल रहा है न ?" शेलकोवनिकोव ने रूखी नीरस भाषा में रिपोर्ट पेश की। उसने बतलाया कि मिल का सब काम सुचारु रूप से चल रहा है, और वे लोग वासिली तेरन्त्येविच के आगमन की बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे, ताकि उनकी उपस्थिति में पवन-भट्टी को चालू किया जाए और नई इमारतों का शिलान्यास किया जा सके । मजदूरों और फोरमैनों को उचित वेतन पर नियुक्त कर दिया गया है। ऑर्डरों की संख्या इतनी तेजी से बढ़ रही है कि संचालक-मंडल ने निर्माण कार्य को शीघ्रातिशीघ्र प्रारम्भ कर देना ही उचित समझा। क्वाशनिन खिड़की की ओर मुंह मोड़कर प्लेटफार्म पर लोगों के जमघट को निर्विकार भाव से देख रहा था । एक बड़ी भीड़ उसके डिब्बे के आगे खड़ी A
हो गयी थी। उसके चेहरे पर गहरी वितृष्णा और थकान का भाव घिर प्राया। 21 अचानक उसने मैनेजर को बीच में ही टोककर पूछा : " देखो, वह लड़की कौन है ?" शेलकोवनिकोव ने खिड़की के बाहर झांककर देखा। "अरे वह देखो, वही लड़की जिसने अपने हैट पर पीला पंख लगा रखा है।" क्वाशनिन ने अधीर होकर कहा । 'अच्छा, अब समझ गया । वही न ?" मैनेजर ने बड़ी उत्सुकता से झुककर क्वाशनिन के कान में रहस्य भरे स्वर में फ्रांसीसी भाषा में कहा : "वह हमारे गोदाम-मैनेजर जिनेन्को की कन्या है । क्वाशनिन ने धीरे से अपना सर हिलाया। शेलकोवनिकोव ने अपनी रिपोर्ट का टूटा हुआ सिलसिला दोबारा जोड़ा ही था कि क्वाशनिन ने एक बार फिर उसे बीच में टोक दिया। "जिनेन्को ?” खिड़की के बाहर देखता हुआ वह गुनगुनाया, " कौन जिनेन्को ? क्या पहले मैंने कभी उसका नाम सुना है ?" "वह हमारे गोदाम का मैनेजर है।" शेलकोवनिकोव ने आदरपूर्वक पुनः वही वाक्य दोहरा दिया। इस बार उसके स्वर से " जिनेन्को" के नाम के प्रति गहरी उदासीनता का भाव टपक रहा था। "अरे हा, याद आया। पीटर्सबर्ग में किसी ने उसका जिक्र मुझसे किया था। अच्छा, आप अपनी बात जारी रखिए।" क्वाशनिन ने कहा । क्वाशनिन की भाव-मुद्रा देखकर नीना की नारीगत-प्रखर बुद्धि से यह छिपा न रह सका कि वह उसकी ओर देखता हुआ उसी के सम्बंध में बातचीत कर रहा है । वह तनिक पीछे हट गयी, किन्तु क्वाशनिन की अांखें अब भी नीना पर टिकी थीं और वह उसके खुशी से मुस्कराते गुलाबी कपोलों को देख रहा था, जिस पर छोटे-छोटे सुन्दर तिल चमक रहे थे। आखिर रिपोर्ट समाप्त हुई और क्वाशनिन गाड़ी के दूसरे छोर पर शीशे के बने चौड़े खुले कम्पार्टमैन्ट में चला गया । बोबरोव ने मन-ही-मन सोचा कि यदि उसके पास एक बढ़िया कैमरा होता, तो वह इस दृश्य को हमेशा के लिए चित्रित कर लेता। क्वाशनिन शीशे के पीछे किसी कारणवश खड़ा था। उसका भारी-भरकम शरीर डब्बे के दरवाजे के पास जमा भीड़ के ऊपर पहाड़ सा प्रतीत हो रहा था। उसका चेहरा खिन्न और क्लान्त था और अपनी टांगों को फैलाकर खड़ा हुआ वह एक भद्दा जापानी बुत-सा लग रहा था। उसकी नितान्त निश्चल और भावहीन मुद्रा ने उन लोगों की प्राशाओं पर तुपारपात कर दिया जो बड़े अरमान बांध कर ४०
उससे मिलने आये थे। क्वाशनिन के सम्मुख उनकी हीन-भावना भय में परि- णत हो गयी, और जो मुस्कराहट वे अपने होठों पर सजा कर लाये थे, वह धीरे-धीरे मुरझाने लगी। कुछ देर पहले जो कन्डक्टर तेजी से इधर-उधर घूम- फिर रहे थे, अब सैनिक-मुद्रा में काठ के पुतलों के समान दरवाजे के दोनों ओर कतार बांधकर जड़वत खड़े थे । बीबरोव ने जब नीना के चेहरे पर भी वही हीन मुस्कराहट देखी, जो उसने दूसरों के चेहरों पर देखी थी, तो उसके हृदय में एक टीस उठी। नीना उसी तरह भयातुर अांखों से क्वाशनिन की ओर देख रही थी, जैसे एक असभ्य जंगली अपने देवता की मूर्ति की ओर देखता है । "क्या लोगों की यह प्रतिक्रिया क्वाशनिन की तीन लाख रूबल की श्रामदनी के प्रति आदरपूर्ण किन्तु सर्वथा तटस्थ और निर्वैयक्तिक आश्चर्य भावना की ही अभिव्यक्ति है ? यदि ऐसा है तो ये लोग इस आदमी के सामने कुत्तों की तरह क्यों दुम हिलाते हैं, जब कि यह उनकी ओर ताकता तक नहीं ?" बोबरोव ने सोचा । "कदाचित् यह हीन-भावना का कोई ऐसा अनबूझा, अनजाना मनोवैज्ञानिक नियम है, जो सब लोगों पर अपना असर दिखा रहा है ? कुछ देर ऊपर खड़े रहने के बाद क्वाशनिन अपनी तोंद हिलाता हुआ सीढ़ियों से नीचे उतरा। उसके पीछे-पीछे उसको सहारा देते हुए सेवकों का झंड चल रहा था। भीड़ दो भागों में बंट गयी और क्वाशनिन के लिए रास्ता साफ हो गया। लोगों के अभिवादन के उत्तर में वह केवल लापरवाही से सिर हिलाता जाता था। आखिरकार उसने अपना निचला मोटा होंठ बाहर निकाल कर, नकियाते हुए कहा : "सज्जनो, अब आप जा सकते हैं - -कल आप से फिर मुलाकात होगी। स्टेशन के गेट पर पहुंचने से पूर्व उसने मैनेजर को अपने पास बुलाया । 'तुम मेरा परिचय उस आदमी से करवा देना।" क्वाशनिन ने दबे स्वर में कहा। 'आपका मतलब जिनेन्को से है ?" शेलकोवनिकोव ने अनुगृहीत होकर 11 पूछा। . 'जी हां, उससे नहीं तो और किससे ?" क्वाशनिन क्रोध से गुर्रा उठा । फिर अचानक झंझलाकर उसने कहा, "अरे, यहां नहीं !” मैनेजर जाने के लिए उद्यत हुआ ही था कि वाशनिन ने उसके कोट की आस्तीन पकड़ ली। 'यहां नहीं, मिल में... 44 ४१
सात कार्यक्रम के अनुसार यह निश्चित हुअा था कि क्वाशनिन के आगमन के चार दिन बाद भट्टी चालू की जाएगी और उसी समय नई इमारतों का शिला- न्यास-समारोह भी सम्पन्न होगा । उस सुअवसर के लिए अभी से व्यापक पैमाने पर धूमधाम से तैयारिया प्रारम्भ हो गयी थीं। कुतोगोरी, वोरोनिनो और ल्वोवो शहरों में स्थित लोहे और इस्पात के कारखानों के लिए निमंत्रण- पत्र भी रवाना कर दिये गये थे। क्वाशनिन के बाद पीटर्सवर्ग से संचालक-मंडल के दो अन्य सदस्य, चार बेल्जियन इंजीनियर और कुछ बड़े-बडे भागीदार भी आये । खबर थी कि संचालक-मंडल ने उत्सव-भोज का आयोजन करने के लिए लगभग दो हजार रूबलों की रकम निर्दिष्ट की है। किन्तु इस अफवाह की पुष्टि अभी तक नहीं हुई थी और फिलहाल बेचारे ठेकेदारों पर ही खाने-पीने की सामग्री जुटाने की जिम्मेदारी आ पड़ी थी। आखिर उत्सव-दिवस आ पहुंचा । पतझड़ के प्रारम्भ का वह दिन बहुत मनोरम था । गहरा नीला आकाश और नशीली मदिरा सी मादक, मदमाती हवा ! इस्पात बनाने की भट्टी और आग फूंकने की नयी धोंकनी स्थापित करने के लिए चौकोर गढे खोद दिये गये थे, जिनके इर्द-गिर्द अर्ध-चन्द्राकार बनाकर मजदूरों की भीड़ जमा थी। लोगों की इस जीती-जागती दीवार के बीच में गढ़े के किनारे एक मामूली सी मेज रखी थी, जिस पर सफेद मेज-पोश बिछा हुआ था। मेज पर बाइबल, क्रॉस और पवित्र-जल से भरा टीन का एक कटोरा रखा था। पास ही पानी छिड़कने की एक बोतल थी। कुछ दूरी पर पादरी खड़ा था। उसने हरे रंग का चोगा पहन रखा था जिस पर कसीदा किये गये सुनहरे 'क्रॉस' चमक रहे थे। प्रार्थना और भजन गाने के लिए पादरी के पीछे पन्द्रह मजदूर खड़े थे। अर्ध-चन्द्राकार के सामने लगभग दो सौ व्यक्तियों की कसमसाती भीड़ एकत्र थी, जिसमें इंजीनियर, ठेकेदार, ऊंचे दर्जे के फोरमैन, क्लर्क आदि शामिल थे। पास ही एक छोटे से टीले पर एक फोटोग्राफर अपने सर को काले कपड़े से ढंककर कैमरे से उलझ रहा था। दस मिनट बाद, एक सुन्दर वग्गी में बैठकर क्वाशनिन वहां पहुंचा, जिसमें भूरे रंग के बढ़िया घोड़े जुते थे। बग्गी में क्वाशनिन अकेला बैठा था । कोई दूसरा व्यक्ति साथ बैठना भी चाहता तो संभव न था क्योंकि क्वाशनिन की स्थूल काया ने सारी सीट घेर रखी थी। उसकी बग्गी के पीछे पांच-छ: अन्य गाड़ियां सरपट भागी चली आ रही थीं। क्वाशनिन की वेश-भूषा और हाव- भाव को देखते ही मजदूरों ने स्वत: यह अनुमान लगा लिया कि वह" मालिक" ४२
है । सब ने मिलकर एक साथ अपनी टोपियां उतार लीं। क्वाशनिन ने पादरी को देखकर अपना सिर हिलाया और अकड़ता हुआ मजदूरों के सामने से निकल गया। क्वाशनिन के आगमन से जो सन्नाटा छा गया था, उसे पादरी की कर्कष, नकियाती हुई आवाज ने तोड़ा । वह बहुत विनम्र, विनीत भाव से गा रहा था : "हे प्रभु ! तेरी महिमा अपरमपार है !' "आमीन," भजन-मंडली के मजदूरों ने सुर-से-सुर मिलाकर एक आवाज में कहा। तीन हजार मजदूरों ने उसी तरह एक साथ मिलकर सलीब का चिन्ह बनाया, जिस तरह उन्होंने क्वाशनिन का अभिवादन किया था। फिर उन्होंने अपना सिर नीचे झुकाया, ऊपर उठाया और झटके के साथ अपने बालों को पीछे. समेट लिया। बोबरोव ध्यान से उन्हें देखता रहा। अगली दो पंक्तियों में राजगीर गम्भीर मुद्रा बनाये खड़े थे। वे सब-के-सब सफेद चोगे पहने थे। लगभग सभी के बाल सनी के रंग के थे और दाढ़ियां लाल थीं। उनके पीछे लोहा गलाने और ढालनेवाले मजदूर फ्रांसीसी और अंग्रेज मजदूरों की तरह गहरे नीले रंग के ढीले-ढाले ब्लाऊज पहनकर खड़े थे। उनके चेहरों पर लोहे की धूल की परतें जमी थीं जिन्हें पानी से साफ करना असम्भव था । उनकी पांतों में टेढ़ी-लम्बी नाक वाले कुछ विदेशी मजदूर भी दिखायी देते थे। लोहा गलाने और ढालनेवाले मजदूरों के पीछे चूने की भट्टियों में काम करनेवाले मजदूरों की झलक भी मिल जाती थी। उनकी लाल सुर्ख और सूजी हुई आंखों से, नथा चूने की गर्द से सने हुए चेहरों से उन्हें आसानी से पहचान लिया जा सकता था। I " हे मां ! हर विपत्ति से हमें मुक्ति दिला, हम तेरे दास है !" जब कभी भजन-मंडली के ये शब्द मजदूरों के कानों में पड़ते, उनके हाथ सलीब का चिन्ह बनाने के लिए उठ जाते और तीन हजार सिर श्रद्धा से नीचे झुक जाते । समूची भीड़ में एक कोमल सी सरसराहट दौड़ जाती। बोबरोव को यह दृश्य देखकर ऐसा प्रतीत हुआ मानो एक अज्ञात, आदिम शक्ति ने भीड़ के हर आदमी को पालोड़ित कर दिया है। इतने विशाल जन-समुदाय की इस सामूहिक- प्रार्थना से एक निरीह, निश्छल अबोधता झलकती थी, जिसने उसके मर्मस्थल को छू लिया । कल यही लोग बारह घंटे तक मेहनत-मशक्कत में पिसते रहेंगे । कौन जानता है कि कल इनमें से किसी को इस मेहनत की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ जाए -किसी ऊंची मचान से नीचे गिर पड़े, पिघलती हुई धातु से शरीर झुलस जाए अथवा वह टूटे हुए पत्थरों और ईटों के ढेर के नीचे आकर दफन हो जाये ? उनका काम ही ऐसा था, जो हर समय किसी
"भी मजदूर को मृत्यु के जबड़ों में फेंक सकता था। आज जब भजन-मंडली 'परम जगत-माता से अपने दासों को विपत्तियों से मुक्ति दिलाने के लिए प्रार्थना कर रही है, तो क्या ये लोग नीचे झुकते और अपने सफेद बालों को समेटते हुए संयोगवश अपनी नियति की क्रूर अनिवार्यता के सम्बंध में ही तो नहीं सोच रहे ? ये विनीत, विनम्र श्रम-वीर, जो हर रोज अपनी अंधेरी, सीलन भरी झोपड़ियों से निकलकर अदम्य साहस और धर्य का परिचय देते हुए खून पसीना 'एक करते है, जो बच्चों की तरह निडर और निश्छल है. वर्जिन मेरी को नहीं, तो और किसे अपनी प्रास्था अपित कर पायेगे ? यही सब कुछ बोबरोव सोच रहा था। जब तक वह अपने विचारों को काव्यात्मक प्रतीकों और चित्रों में अनूदित न कर लेता, उसे चैन नहीं पड़ती 'यी; और हालाकि अर्से से उसकी प्रार्थना करने की आदत छूट गयी थी, किन्तु ‘जब कभी पादरी की मद्यम कर्कश आवाज के बाद उसे भजन-मंडली का सुमधुर सामूहिक स्वर सुनायी देता, तो अनायास उसके शरीर का अंग-अंग रोमांचित हो उठता था। ये लोग सीधे-सादे साधारण मजदूर थे, जो दूर-सुदूर इलाकों से अपना घरबार त्याग कर इस कठिन, जान-जोखिम के काम पर आ जुटे थे । यही कारण था कि उनकी प्रार्थना में साहस, विनय और प्रात्म-बलिदान के मार्मिक स्वर ध्वनित हो रहे थे। प्रार्थना समाप्त हो गयी। क्वाशनिन ने लापरवाही से सोने का एक 'सिक्का गढ़े में फेंक दिया, किन्तु नीचे झुककर फावड़ा चलाना उसके बस की बात न थी। सो शेलकोवनिकोव ने यह काम पूरा कर दिया। उसके बाद वे लोग उन भट्टियों की ओर चल पड़े, जिनके काले बुर्ज पत्थरों की नींव पर आकाश में सिर उठाये खड़े थे। नव-निर्मित पांचवी भट्टी, कारीगरों की शब्दावली में पूरे ‘गर्जन-तर्जन के साथ चल रही थी। धरती से तीस इंच ऊपर भट्टी में सूराख कर दिया गया था, जिसमें से पिघली हुई धातु की गर्म भभकती धारा गन्धक की नीली लपटें फेंकती हुई बाहर निकल रही थी। भट्टी के खड़े पेंदे के सहारे बड़े-बड़े कड़ाहे टिके थे, जिनमें धातु की पिघलती धारा एक ढलुवां नली से बहकर हरे रंग की ठोस वस्तु में जम जाती थी, जो देखने में जो की खांड सी लगती थी। भट्टी की छत पर खड़े मजदूर उसके मुंह में बराबर कोयला और कच्ची धातु झोंकते जाते थे, जिन्हें ट्रालियों में भर-भरकर हर मिनट ऊपर पहुंचाया जा रहा था। पादरी ने भट्टी के चारों ओर पवित्र जल का छिड़काव किया और फिर एक वृद्ध व्यक्ति की भांति लड़खड़ाते पैरों पर वहां से चल दिया। भट्टी का फोरमैन एक हृष्ट-पुष्ट, काले चेहरे वाला बूढ़ा था। उसने सलीब का चिन्ह
बनाया और अपनी हथेलियों में थूककर उन्हें रगड़ने लगा। उसके चार सहा.. यकों ने भी उसका अनुकरण करते हुए यही सब कुछ किया। उसके वादः उन्होंने इस्पात का एक लम्बा छड़ उठाया, देर तक उसे आगे-पीछे झुलाते रहे, फिर सहसा एक जबरदस्त धक्के के साथ उसे भट्टी के सबसे निचले भाग में घुसेड़ दिया । लोहे का छड़ भट्टी के डट्ट के साथ टकराया । दर्शकों ने घबराकर अांखें मूंद लीं और उनमें से कुछेक तो डर के मारे कुछ कदम पीछे हट गये । उन पांचों आदमियों ने मिलकर दूसरा, तीसरा, चौथा प्रहार किया, और सहसा पिघली हुई धातु की एक सफेद चमचमाती धार उस छिद्र से उफनती हुई फूट पड़ी, जो इस्पात के छड़ के प्रहारों से भट्टी के निचले भाग में बन गया था । फोरमैन ने छड़ को घुमाते हुए उस छेद को और अधिक चौड़ा कर दिया। पिघला लोहा धीरे-धीरे छेद से बाहर निकलता हुआ रेत पर बह चला और गहरा गेरुवा रंग पकड़ने लगा। छिद्र से अंगारे पट-पट करते हुए हवा में उलछते थे और क्षण भर के लिए आंखों को चौंधिया कर गायब हो जाते थे। भंट्टी से पिघली हुई धातु बहुत धीमी गति से बाहर निकल रही थी, फिर भी उससे आसपास का वातावरण इतना उत्तप्त हो उठा कि अनभ्यस्त दर्शक अपने चेहरों को हाथों से ढांपकर पीछे हटते चले गये । भट्टियों को पीछे छोड़कर इंजीनियरों के दल ने धौंकनी-विभाग की ओर अपना रुख किया । विशालकाय कारखाने के हर विभाग में कितने जोर-शोर से काम हो रहा है, यह बात क्वाशनिन मिल के भागीदारों के दिलों में अच्छी' तरह बिठा देना चाहता था। उसने इस बात का बिल्कुल ठीक-ठीक अनुमान लगाया था कि इन महानुभावों के दिमागों पर इन तमाम दृश्यों का इतना जबरदस्त असर पड़ेगा कि बाद में वे कम्पनी के भागीदारों की प्राम सभा के सम्मुत्र रिपोर्ट पेश करते समय प्रशंसा के पुल बांध देंगे । व्यवसायी-वर्ग की मनोवृत्ति और मानसिक रुझानों का उसे गहरा अनुभव था । उसे इस बात का पूरा भरोसा था कि इतनी बढ़िया रिपोर्ट सुनने के बाद भागीदारों की प्राम सभा बाजार में नये शेयर चालू करने के लिए तैयार हो जाएगी जिसके लिए वह अभी तक आनाकानी करती रही थी, और, इस तरह, वह लाखों का मुनाफा बटोर सकेगा। और सचमुच मिल के भागीदार प्रभावित हुए बिना न रह सके, यहां तक कि थकान के मारे उनकी टांगें लड़खड़ाने लगीं और सिर दर्द से फटने लगा । धौंकनी-विभाग में पन्द्रह फीट लम्बे लोहे के चार खड़े पिस्टनों के द्वारा हवा को नलियों में खींचा जा रहा था, जिसकी तुमुल, कर्णभेदी गड़गड़ाहट से इमारत की पत्थर की दीवारें थर्रा उठती थीं। लोहे की इन विशालकायः नलियों का घेरा लगभग दस फीट था। हवा इन नलियों में से गुजर कर' ४५
गर्म भभकते चूल्हों में जाती थी जहां जलती हुई गैसों के स्पर्श से उसका तापमान एक हजार डिग्री तक बढ़ जाता था और फिर उसके बाद वह भट्टियों में घुसकर अपनी गर्म धधकती सांसों से कच्ची धातु और कोयले को मोम की तरह पिघला देती थी। धौंकनी-विभाग का संचालक एक इंजीनियर था जो वहां खड़े-खड़े शुरू से आखीर तक सभी प्रक्रियाओं को समझा रहा था। वह हर भागीदार के पास जाता और उसके कान के पास मुंह ले जाकर अपने फेफड़ों का पूरा जोर लगाकर चिल्लाता। किन्तु मशीनों की भीषण घड़धड़ाहट में उसके शब्द डूब जाते थे और ऐसा लगता था मानो वह बिना कोई आवाज निकाले योंही चुपचाप अपने होठों को चला रहा हो । उसके बाद शेलकोत्रनिकोव अपने अतिथियों को उन भट्टियों के पास ले गया जहां सांचे में ढले लोहे को पिघलाकर तरल पदार्थ में परिणत किया जाता था । भट्टियों का यह प्रोसारा इतना लम्बा था कि उसका दूसरा सिरा एक धुंधले, छोटे से छिद्र के समान लगता था। ओसारे की एक दीवार के साथ-साथ पत्थर का एक चबूतरा छोर तक चला गया था, जिस पर बिना पहियों के रेल के डब्बों के आकार की बीस भट्टियां खड़ी थीं। इन भट्टियों में पिघले हुए लोहे को कच्ची धातु के साथ मिलाकर इस्पात में परिणत किया जाता था, जो नलियों में से बहता हुआ लोहे के ऊंचे सांचों में चला जाता था। ये सांचे हैंडल लगे हुए बिना पेंदे के डब्बों के समान दिखायी देते थे। हर सांचे में इस्पात के पिंड जम जाते थे । प्रत्येक पिंड का वजन इक्कीस मन के लगभग हो जाता था। प्रोसारे के दूसरी ओर रेल की पटरियां बिछी थीं जिन पर भाप द्वारा संचालित भार ढोनेवाले यंत्र अपने चौड़े, लचकीले धड़ों को लिए घर्घराते, फूत्कारते और खड़खड़ाते हुए पालतू और फुर्तीले जानवरों की तरह ऊपर-नीचे जा रहे थे। कभी कोई क्रेन किसी सांचे को हैंडल से पकड़ कर उठा लेता और तभी उसके नीचे से इस्पात का लाल-सुर्ख चमकता हुआ दंड ठुलक पड़ता। किन्तु दंड के फर्श पर गिरने के पहले ही एक मजदूर असाधारण फुर्ती से कलाई जितनी मोटी जंजीर उसके इर्द-गिर्द वांध देता । फिर दूसरा केन जंजीर को काटे में अटकाकर इस्पात के दंड को अपने संग घसीट ले जाता और तीसरे क्रेन से जुड़े हुए चबूतरे पर दूसरे दडों के साथ उसे भी फेंक देता। तीसरा क्रेन सारे सामान को ढोता हुआ अोसारे के दूसरे सिरे पर ले जाता जहां चौथा केन कांदे के बजाय संडसे द्वारा लोहे के दंडों को उठाकर फर्श के नीचे बनी हुई गैस की भट्टियों में डाल देता। अन्त में पाचवां क्रेन आग में तपे हुए उन दंडों को भट्टियों से निकालकर उन्हें बारी-बारी से तीक्ष्ण दांतोंवाले एक पहिये के नीचे डाल देता । तिर्थी धुरी पर भीषण गति से घूमता हुआ यह पहिया लोहे के मोटे दंडों को कुछ क्षणों में
ही मक्खन के समान काटकर दो टुकड़ों में बांट देता। फिर इन टुकड़ों पर पच्चीस हजार पौंड भारी वाष्प-संचालित हथौड़े की मार पड़ती, जो पलक मारते इस तरह उनके टुकड़े-टुकड़े कर देता मानो वे लोहे के न होकर कांच के बने हों। पास खड़े हुए मजदूर तेजी से उन टुकड़ों को ट्रॉलियों में भरकर उन्हें ढकेलते हुए दौड़ जाते । जो भी रास्ते में पड़ता, लाल गर्म लोहे से उड़ती हुई गरम हवा की लपट उसे झुलसा जाती। उसके बाद शेलकोवनिकोव अपने अतिथियों को उस कारखाने में ले गया जहां रेल की पटरियां बनायी जाती थीं। लाल गर्म धातु का एक लम्बा कुन्दा एक रोलर से दूसरे रोलर पर फिसलता हुअा अनेक मशीनों के भीतर से गुजर रहा था । ये रोलर फर्श के नीचे घूम रहे थे और केवल उनका ऊपरी भाग ही दिखायी देता था। विपरीत दिशाओं में घूमते हुए इस्पात के दो बेलनों के बीच में फंसकर यह कुंदा उन्हें जबरन अलग कर देता था, जिसके कारण रोलर तनकर कांपने लगते थे। कुछ दूर पर एक और मशीन थी जिसके बेलनों के बीच का फासला और भी कम था। एक मशीन से दूसरी मशीन में जाता हुना यह कुंदा उत्तरोत्तर अधिक लम्बा और पतला बनता जाता था। लोहे का यह कुंदा कारखाने के चारों ओर ऊपर-नीचे कई बार चक्कर काट लेने के बाद सत्तर फीट लम्बी तपी हुई गर्म रेल की पटरी की शक्ल अख्तयार कर लेता था। यहां कुल मिलाकर पन्द्रह मशीनें थीं, जिनके संचालन का दुरूह और पेचीदा काम केवल एक व्यक्ति के हाथों में था । वाष्प-इंजन के ऊपर एक ऊंचे चबूतरे पर खड़ा रहकर वह सब कार्रवाईयों की देखभाल करता था। वह हैंडल खींचता तो तुरंत सब रोलर और बेलन एक दिशा में घूमने लगते । जब वह उसे दबा देता तो वे दूसरी दिशा में पलटकर घूमने लगते । जब लोहे की पटरी को निश्चित लम्बाई तक खींच लिया जाता, तब एक गोल पारा कर्णभेदी चीत्कार के साथ सुनहरी चिंगारियां उड़ाता हुआ उसे तीन भागों में काट देता। अब वे लोग खराद के कारखाने में आये। यहां अधिकतर इंजन और रेल के डब्बों के पहिये तैयार किये जाते थे। छत के एक छोर से दूसरे छोर तक इस्पात की एक शहतीर लगी हुई थी, जिस पर घूमती हुई चमड़े की पेटियां विभिन्न आकार-प्रकार की दो-तीन सौ मशीनों को चलाती थीं। छत की शहतीर से मशीनों को जोड़ती हुई इन पेटियों का ऐसा ताना-बाना विछा था मानो एक ही उलझा और कांपता हुआ जाल हो। कुछ मशीनों के पहिये इतनी तेजी से घूम रहे थे कि वे एक क्षण में बीस चक्कर लगा लेते थे, और कुछ मशीनों के पहियों की गति इतनी धीमी थी कि पता भी न चलता था। इस्पात, लोहे और पीतल की पतली वर्तुलाकार कतरनें चारों ओर बिखरी ४७
पड़ी थीं ! एक और सूराख बनानेवाली मशीनें चल रही थीं, जिनकी कर्कश आवाज कानों के परदे फाड़े डालतो थी। ढिबरियां बनानेवाली मशीन भी अतिथियों को दिखलायी गयी। देखकर लगता था मानो इस्पात के दो भारी- भरकम जबड़े भीतर-ही-भीतर धीरे-धीरे कोई चीज चबा रहे हों। दो मजदूर लोहे की एक गर्म सलाख उस मशीन में डालते थे और वह उसे काट-काटकर. बनी-बनायी ढिबरियों के रूप में बाहर उगल देती थी। जब वे लोग खराद के कारखाने से बाहर आये, तो शेलकोवनिकोव ने, जो मिल के भागीदारों को बड़ी तत्परता से अब तक सारी बातें समझाता अप रहा था, प्रार्थना की कि वे नौ सौ हार्स पावर का "कम्पाऊन्ड" जो मिल की सबसे शानदार मिल्कियत थी- देखने चल । किन्तु पीटर्सबर्ग से आये हुए महानुभाव अब तक इतना कुछ देख-सुन चुके थे कि थकान के कारण एक कदम भी आगे चलना उनके लिए मुहाल था। किसी भी नयी वस्तु को देखकर उत्सुकता की अपेक्षा अब उन्हें ऊब और थकान ही होती थी। रेल की पटरियों के कारखाने के गरम वातावरण से उनके चेहरे तमतमा गये थे और उनके हाथों और कपड़ों पर कालिख जम गयी थी, इसलिए जब मैनेजर ने उनसे "कम्पाऊन्ड" देखने की प्रार्थना की तो काफी रुखाई के साथ उन्होंने उसके निमंत्रण को स्वीकार किया और वह भी केवल इसलिए कि उन्हें मिल के उन बाकी भागीदारों को इज्जत का ख्याल था, जिनके प्रतिनिधि बनकर वे यहां आये थे। कम्पाऊन्ड एक अलग साफ-सुथरी और सुन्दर इमारत में स्थित था--- फर्श पर पच्चीकारी का काम, खुली हवादार खिड़कियां । भारी-भरकम होने पर भी "कम्पाऊन्ड" बहुत ही कम आवाज पैदा कर रहा था । तीस फीट लम्बी पिस्टनें लकड़ी के बक्सों में रखे सिलिन्डरों में द्रुतगति से अविराम चल रही थीं। बीस फीट व्यास का एक पहिया, जिसके ऊपर से बारह रस्सियां सरक रही थीं, बिना कोई आवाज पैदा किये तेजी से घूम रहा था। पहिये की प्रत्येक परिक्रमा के साथ कमरे में सूखी, गर्म हवा के झोंके फैल जाते थे। इस मशीन से धौकनियों, रोलिंग-मिलों और खराद के कारखाने को बिजली हासिल होती थी। "कम्पाऊन्ड का निरीक्षण करने के बाद भागीदारों ने चैन की सांस ली और सोचा कि अब छुटकारा मिल जायगा। किन्तु शेलकोवनिकोव कब उनका पीछा छोड़नेवाला था। छूटते ही उसने एक नया सुभाव रख दिया : " महानुभावो, अब मैं पापको उस स्थान पर ले जाऊंगा, जो मिल का 'हृदय अर्थात केन्द्र-स्थल है। वहां से मिल की तमाम कार्रवाईयों का संचालन होता है।" " , ४८
वह वाष्प-बॉयलर गृह में उन्हें अपने पीछे-पीछे घसीटता ले गया। किन्तु अब तक वे जितना कुछ देख चुके थे, उसके बाद मिल के हृदय-स्थल" ने उन्हें अधिक प्रभावित नहीं किया। वहां पर बेलन के आकार के पैतीस फीट लम्बे और दस फीट ऊंचे बारह बॉयलर खड़े थे। बॉयलरों के बजाय अतिथियों का ध्यान भोजन पर अटका था। अब वे शेलकोवनिकोव से कोई प्रश्न नहीं पूछ रहे थे । उसकी टीका-टिप्पणियों को चुपचाप विरक्त-भाव से सुनकर केवल सिर हिला देते थे। जब वह उन्हें सब कुछ दिखा-सुना चुका, तो उन्होंने चैन की सांस ली और बाहर जाते हुए बड़े तपाक से शेलकोवनिकोव के साथ हाथ मिलाया। वे लोग चले गये - केवल बोबरोव अकेला वहां बॉयलरों के सामने खड़ा रहा । अंधकार में डूबी पत्थर की गहरी खाई के किनारे पर खड़ा हुआ वह देर तक भट्टियों को देखता रहा, जहां कमर तक नंगे छः मजदूर जी-तोड़ काम कर रहे थे। वे लोग दिन-रात भट्टियों में कोयला झोंकते रहते थे । भट्टियों के लोहे के गोल दरवाजे जब-तब झपाटे के साथ खुल जाते और बोबरोव उनके भीतर आग की गरजती, लपलपाती लपटों को देख लेता। उन अर्ध-नग्न मजदूरों का शरीर आग की तपिश से मुरझा गया था और उनकी त्वचा पर कोयले की गर्द की काली परतें जम गयी थीं। जब वे झुकते तो उनकी पीठ की तमाम मांसपेशियां और रीढ़ की हड्डियां उभर आतीं । रह-रहकर उनके लम्बे कृशकाय हाथ फावड़ों में कोयला भर-भरकर एक तेज चुस्त हरकत के साथ भट्टियों के खुले द्वार के भीतर झोंक देते। ऊपर दो मज- दूर बॉयलर गृह के चारों ओर खड़े कोयले के ऊंचे ढेरों से ताजा कोयला तोड़- तोड़कर नीचे गिराने में व्यस्त थे। भट्टियों में दिन-रात कोयला झोंकनेवाले मजदूरों का जीवन कितना अमानवीय, नीरस और भयावह है, बोवरोव ने सोचा । उन्हें देखकर लगता था मानो किसी दैवी शक्ति ने उन अभिशप्त मज- दूरों को मुंह फाड़ती हुई भट्टियों के संग जीवन भर के लिए बांध दिया है । जो वहां से भागने की चेष्टा करेगा उसे तड़पा-तड़पाकर मार दिया जायगा । भट्टी ने मानो एक भयानक, भीमकाय राक्षस का रूप धारण कर लिया है, जिसकी अतृप्त जठराग्नि को शान्त करने के लिए मजदूरों को आजीवन, दिन- रात उसका पेट भरना पड़ता है "क्यों, अपने मलोच को मोटा होते हुए देख रहे हो ?" बोबरोब को अपने पीछे से किसी की खुशी में भरी आवाज सुनायी दी । वह चौंक उठा और खाई में गिरते-गिरते बाल-बाल बचा। कुछ ऐसा विचित्र संयोग हुआ कि जो बात डॉक्टर ने अभी-अभी मजाक में कही थी, वही बात भट्टी के सम्मुख खड़े-खड़े वोबरोव के मस्तिष्क में भी पा रही थी। क ४ ४६
(4 91 11 प्रकृतस्थ होने के काफी देर बाद तक वह इन विचित्र संयोग पर आश्चर्य करता रहा । जब कभी वह किसी विषय के सम्बंध में पढ़ या सोच रहा होता और गंयोगवग कोई अन्य व्यक्ति उनके संग अचानक उसी विषय के सम्बंध में चर्चा छेड़ देता, तो उसे यह अत्यंत रहस्यमय बात लगती और वह विस्मित हो उठता। 'माफ करना मेरे भाई, लगता है मैंने तुम्हें डरा दिया।" 'हां, कुछ घबराहट जरूर हुई। घबराने की बात भी थी, तुम इतने चुपके से जो चले आये। "आन्द्रे इलिच, तुम्हारा कलेजा बहुत कमजोर हो गया है । तुम्हें अपनी सेहत का ख्याल रखना चाहिए। मेरी राय मानो तो कुछ महीनों की छुट्टी ले लो और देश के बाहर कहीं जाकर आराम करो। यहां पड़े-पड़े व्यर्थ की चिन्ताओं में घुलते रहने में क्या तुक है ? छः महीने तक कहीं मौज उड़ाओ, अच्छी शराब पियो, घुड़सवारी करो और मोहब्बत के खेल में अपना हाथ आजमा देखो। डॉक्टर भट्टी की खाई के पास गया और किनारे पर खड़ा होकर नीचे झांकने लगा। "अरे, यह तो दोजख की आग है !" वह चिल्लाया । इन केतलियों का कितना वजन होगा ? मेरे विचार में पन्द्रह टन से तो क्या कम होंगी ?" "नहीं, कुछ ज्यादा है । पच्चीस टन से ऊपर । "अह ! और अगर इनमें से कोई अचानक फट जाए, तो...तो अजीब तमाशा होगा, क्यों ?" 'जरूर होगा डॉक्टर । सम्भत्र है ये सारी बड़ी-बड़ी इमारतें धूल में लोटती नजर आएं।" गोल्डबुर्ग ने अपने सिर को धीरे से हिलाया और भेदभरी मुद्रा में सीटी बजाने लगा। 'अच्छा, यह तो बतायो, किन कारणों से ऐसा विस्फोट हो सकता है ?" कारण तो अनेक है, किन्तु अक्सर एक ही कारण से ऐमी दुर्घटना होती है। जब बॉयलर में पानी कम रह जाता है तो उसकी दीवारें तपने लगती है, और धीरे-धीरे गर्म होती हुई लाल सुर्ख हो जाती हैं। यदि उस समय बॉयलर में कोई जल डाल दे तो उनके भौतर इतनी अधिक भाप इकट्ठा हो जायगी कि दीवारें उसका दवाव बर्दाश्त न कर पायेंगी और बायलर फट जायगा। 'तो क्या ऐसा जान-बूझकर भी किया जा सकता है ?" " 11
3) 04 "क्यों नहीं । जब चाहो तभी किया जा सकता है । करके देखोगे ? जब गॉज में पानी बहुत कम मात्रा में बहने लगे, तो वह जो छोटा गोल सा लीवर है न ? उसे घुमा दो । बस इतना ही काफी है।" बोबरोव मजाक कर रहा था। किन्तु उसकी आवाज विचित्र रूप से शम्भीर थी, और उसकी अांखें कठोर और पीडायुक्त हो गई थीं। भगवान जाने," डॉक्टर ने मन में सोचा, "आदमी तो नेक है, लेकिन इसके दिमाग में कहीं जरूर कुछ गड़बड़ी है । 'तुम अपने अतिथियों के साथ भोजन के लिए क्यों नहीं गये, आन्द्रे- इलिच ?" डॉक्टर ने खाई से पीछे हटते हुए पूछा । " सुना है, प्रयोगशाला को उन्होंने शरद ऋतु की वाटिका में परिणत कर लिया है---कम-से-कम तुम वही देखने चले जाते । भोज का आयोजन उन्होंने जिस तड़क-भड़क के साथ किया है, वह तो बस देखते ही बनता है । " भाड़ में जाए उनका भोज-बोज । मुझे तो इंजीनियरों द्वारा आयोजित ये भोज-समागेह एक अांख नहीं भाते ।" बोबरोब ने मुंह बिचकाकर कहा । सब लोग अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते हैं, चिल्लाते हैं, घिधियाते हैं और फिर नशे में धुत होकर एक-दूसरे के नाम पर जाम पीते हैं। आधी शराब गले के नीचे उतरती है, तो आधी कपड़ों पर ही छलक जाती है। उफ ! मुझे तो घिन्न आती है। "हां, तुम ठीक ही कहते हो,” डॉक्टर ने हंसते हुए कहा । भोज के आरम्भ में मैं वहां मौजूद था। क्वाशनिन अपने रंग में था। सज्जनो,' उसने भाषण देते हुए कहा, 'समाज में इंजीनियरों का धंधा बड़ा ही आदरणीय और महत्वपूर्ण माना जाता है। देश के कोने-कोने में रेलों, भट्टियों और खानों के निर्माण के अलावा वह दूर-दूर तक शिक्षा के बीज, सभ्यता के फूल और ...' इसके बाद उसने कुछ फलों का उल्लेख किया, जिनके नाम मुझे याद नहीं रहे । एक नम्बर का काइयां आदमी है यह क्वाशनिन ! कहने लगा, 'प्रायो, हम सब मिल-जुलकर अपनी उपयोगी कला के पवित्र झंडे को ऊंचा उठाएं ।' भारी करतल ध्वनि से उसके भाषण का स्वागत किया गया।" चुपचाप कुछ कदम आगे चले। अचानक डॉक्टर के चेहरे पर एक छाया सी घिर आयी। " उपयोगी कला " उसने क्रोध में भरकर कहा । " मजदूरों के बैरक गाली-सड़ी लकड़ी की चिप्पियों से बने हैं। मरीजों का कोई अन्त नहीं और बच्ने मक्खियों की तरह मरते हैं। क्या यही शिक्षा के बीज है ? और अभी तो इन्हें आगे पता चलेगा। इवानकोवा में टॉयफायड की महामारी को फैल जाने दो, तब इनकी आंखें खुल जाएंगी।" " " ५१
11 "क्या कहते हो डॉक्टर ! तुम्हारे पास टॉयफॉयड के कुछ केस आये है क्या ? मजदूरों की बैरके जिस प्रकार ठसाठस भरी हैं, उससे तो खौफनाक हालत पैदा हो जाएगी। डॉक्टर सांस लेने के लिए रुक गया । 'और तुम क्या सोच रहे हो ?" उसके स्वर में कड़वाहट भरी थी। "कल ही दो मरीज मेरे पास लाये गये थे। एक आज सुबह चल बसा और दूसरा, यदि अब तक नहीं मरा, तो आज रात तक जरूर दम तोड़ देगा। दवाई, बिस्तरे, होशियार नसें - हमारे पास कुछ भी नहीं है । घबरानो नहीं, इसका मूल्य उन्हें चुकाना पड़ेगा।" उसने गुस्से में घुसा तान लिया मानो किसी अदृश्य व्यक्ति पर प्रहार करने जा रहा हो । पाठ लोगों ने तरह-तरह की बातें करना शुरू कर दिया था। मिल में ऐसे चटपटे किस्से क्वाशनिन के आगमन के पूर्व ही मशहूर थे कि जिनेन्को परिवार के साथ उसकी आकस्मिक घनिष्टता का भेद किसी से छुपा न रहा । स्त्रियां जब इस विषय का जिक्र छेड़तीं तो उनके होठों पर एक विचित्र, भेदभरी मुस्कान खेल जाती । पुरुष जव आपस में बातचीत करते, तो बिना लागलपेट के खरीखरी सुनाते । किन्तु निश्चित रूप से किसी को कुछ पता नहीं था । सब लोग किसी दिलचस्प, चटपटे समाचार को सुनने के लिए आतुर हो रहे थे । ये अफवाहें विलकुल काल्पनिक और निराधार हों, ऐसी बात नहीं थी। क्वाशनिन एक बार जिनेन्को परिवार से मिलने गया था, और तब से हर शाम उसने उन्हीं के घर डेरा लगाना शुरू कर दिया। रोज सुबह ग्यारह बजे भूरे रंग के घोड़ों की शानदार बग्गी शेपेतोवका के अहाते में आकर खड़ी हो जाती। कोचवान नीचे उतर कर रोज एक ही वाक्य दुहराता : "मालिक की यह प्रार्थना है कि श्रीमती जिनेन्को और उनकी पुत्रियां आज उनके संग नाश्ता करने की कृपा करें।" ऐसे अवसरों पर किसी अन्य अतिथि को निमंत्रित नहीं किया जाता था । नाश्ता और खाना एक फ्रांसीसी बावर्ची तैयार करता था, जो हमेशा क्वाशनिन के संग रहता और जिसे वह विदेश-यात्रा के समय भी अपने साथ रखता था । क्वानिन हाल में ही जिनेन्को परिवार के सम्पर्क में आया था, किन्तु उसके सदस्यों के प्रति उसका बर्ताव-व्यवहार कुछ विचित्र, अनोखे ढंग का था। वह पांचों लड़कियों के संग ऐसे पेश आता मानो वह उनका कोई सहृदय, अविवाहित मामा हो। तीन ही दिनों के अन्दर-अन्दर वह उन्हें उनके प्यार ५२
के नामों से बुलाने लगा था। साथ में वह उनका गोत्र-नाम भी जोड़ देता। सबसे छोटी लड़की आस्या की गदरायी ठुड्डी के नन्हे से गढ़े को पकड़ कर वह उसे 'बच्ची' और 'छबीली' कहकर चिढ़ाता था । क्षोभ और शर्म के मारे बेचारी आस्या की आंखों में आंसू भर जाते, फिर भी वह उसका विरोध नहीं कर पाती थी। अन्ना अफानास्येवना हंसी-हंसी में उसे उलाहना देती कि वह अपनी इन हरकतों से सब लड़कियों को बिगाड़ देगा । शायद यह बात ठीक भी थी। किसी के मुंह से कोई बात निकली नहीं कि क्वाशनिन झट उसे पूरा कर देता। बातों-ही-बातों में माका के मुंह से निकल गया कि वह साइकिल सीखने के लिए बहुत उत्सुक है। बस फिर क्या था, दूसरे ही दिन एक आदमी को खारकोव भेजकर माका के लिए नयी साइकिल' मंगवा दी गयी। साइकिल की कीमत तीन सौ रूबल से कम नहीं थी। बेता को १० पाउन्ड मिठाई मिली क्योंकि एक छोटी सी बात पर क्वाशनिन उससे शर्त हार गया । एक दूसरी शर्त हार जाने के कारण उसने कास्या को एक रत्नजटित ब्रोच भेंट कर दी। कास्या के नाम के अक्षरों के अनुसार उस ब्रोच पर नीलमणि, मूंगा, सूर्यकान्तमरिण और नीलम के रत्न जड़े थे। उसे पता चला कि नीना को घुड़सवारी करने का शौक है । दो दिन बाद ही एक असली नस्नवाली सुन्दर सजीली अंग्रेजी घोड़ी, जिसे खास तौर से स्त्रियों की सवारी के लिए सधाया गया था, नीना के सामने हाजिर हो गयी । पांचों बहनें क्वाशनिन की उदारता पर मंत्रमुग्ध सी हो गयीं। उन्हें लगा मानो बचपन के सपनों का कोई परीजाद आ गया है जो उनकी छोटी-से-छोटी इच्छा तुरंत पूरी कर देता है। क्वाशनिन की यह उदारता अन्ना अफानास्येवना को मन-ही-मन कुछ खटकती जरूर थी। 'किन्तु उसमें इतना साहस और चातुर्य नहीं था कि वह क्वाशनिन को सारी बात कुशलतापूर्वक समझा भी दे और वह बुरा भी न मनाए। जब कभी वह विनीत, खुशामद भरे स्वर में उसके अनुचित व्यवहार के प्रति हल्का सा विरोध प्रकट भी करती, तो क्वाशनिन लापरवाही से हाथ हिलाकर अपने कड़े, हद स्वर में उसकी आपत्ति को रफा-दफा कर देता : 'अरे छोड़ो भी--क्यों जरा-जरा सी बातों पर नाहक परेशान होती हो । किन्तु उसने कभी किसी एक लड़की के प्रति अपनी विशेष रुचि का प्रदर्शन नहीं किया । वह सभी को खुश करने की चेष्टा करता, और बिना किसी मान-मर्यादा का ख्याल किये उनका मजाक उड़ाता। धीरे-धीरे जिनेन्को के घर अन्य युवकों का आना-जाना बन्द हो गया, किन्तु किसी अज्ञात कारण से स्वेजेवस्की अब वहां नियमित रूप से आने लगा। क्वाशनिन के पर 1 मिल के गोदाम पूर्व वह जिनेन्को के घर केवल दो-तीन बार आया था। वह 07
" ऐसे चला आता था मानो कोई रहस्यमयी शक्ति उसे खींच लाती हो। किन्तु कुछ दिनों में ही वह परिवार के सब सदस्यों के लिए अनिवार्य सा बन गया। किन्तु जिनेन्को के घर नियमित रूप से जाना प्रारम्भ करने के पूर्व स्वेजे- वस्की को लेकर एक छोटी सी घटना घटी थी। पांच महीने पहले की बात है । एक दिन स्वेजेवस्की ने अपने दोस्तों से कहा कि वह एक-न-एक दिन अवश्या लखपति बन जाएगा और वह भी चालीस वर्ष की यायु से पहले-पहले । लेकिन कैसे ?" उन्होंने उससे पूछा । स्वेजेवस्की ने रहस्यमयी मुद्रा में अपने दोनों लिसलिसे हाथों को रगड़ा और दांत निपोरते हुए कहा, 'सब रास्ते एक ही मंजिल पर जाकर समास होते हैं। जब क्वाशनिन शेपेतोवका नियमित रूप से जाने लगा, तो स्वेजेवस्की की चपल-चालाक बुद्धि ने समूची परिस्थिति को अच्छी तरह समझ लिया। उसे निश्चय हो गया कि इस अवसर का लाभ उठाकर वह अपने भावी जीवन की प्रगति के लिए मार्ग प्रशस्त कर सकता है। जो भी हो, इतना तो था ही कि कम-से-कम वह अपने सर्व शक्तिमान मालिक के काम तो या हो सकता था। यही कारण था कि वह प्रति दिन जिनेको के घर जाकर क्वानिन की हाजरी वजाने लगा। एक खुशामदी चापलूस की तरह वह उसके इर्द-गिर्द हमेशा घूमता रहता। एक छोटा सा पिल्ला जिस प्रकार एक बड़े खूखार कुत्ते के सामने दुम हिलाने लगता है, उसी प्रकार वह क्वाशनिन के सामने दिन-रात घिधियाता रहता। उसके स्वर और हाव-भाव से यह स्पष्ट प्रकट होता था कि क्वाशनिन का इशारा पाते ही वह कोई भी काम - चाहे वह कितना ही निकृष्ट और जघन्य क्यों न हो- करने के लिए तैयार हो जाएगा। क्वाशनिन स्वेजेवस्की के इस व्यवहार का बुरा न मानता था । जो व्यक्ति बिना कोई कारण बताने का कष्ट किये कारखाने के संचालकों और मैनेजरों को नौकरी से बर्खास्त कर देता था, वह स्वेजेवस्की जैसे प्रादमी के प्रति सहिष्णुता का बर्ताव करे, इससे बढ़कर अचम्भे की और कौन सी बात हो सकती थी ? अवश्य ही क्वाशनिन को स्वेजेवस्की की सेवाओं की जरूरत थी, और यह भावी लखपति उस दिन की उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगा, जब वह क्वाशनिन के किसी काम पा सकेगा। बोबरोव के कानों में भी इस बात की भनक पड़ते देर नहीं लगी। किन्तु उसे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। जिनेन्को परिवार के सम्बंध में वह अपने हृदय में पहले से ही एक निश्चित और सही धारणा कायम कर चुका था । डर उसे 'य बात का था कि कहीं इस अफवाह के कारण लोग नीना पर भी पगें। स्टेशन पर इन दोनों के बीच जो बातचीत हुई थी, ५४
उससे नीना उसके लिए और भी अधिक प्रिय बन गई थी। केवल उसके ही सामने तो नीना ने मुक्त भाव से अपनी आत्मा को खोल कर रखा था ! कम- जोर और डांवाडोल होते हुए भी बोबरोब को यह अात्मा सुन्दर और आकर्षक जान पड़ी थी। अन्य लोग तो केवल उसकी शक्ल-सूरत और वेश-भूषा से ही परिचित है, उसने सोचा । बोवरोव का स्वभाव इतना निश्छल और कोमल था कि उसमें ईष्या और ईर्ष्या-जनित अविश्वास, पाहत अभिमान और तद्जनित अोछेपन और कठोरता के लिए कोई स्थान नहीं था। बोबरोव अब तक नारी के सच्चे, गहरे प्रेम की कोमल, नर्म स्निग्धता से ‘अपरिचित ही रहा था। शर्मीलेपन और आत्म-विश्वास के अभाव के कारण वह अब तक जीवन के इस अत्यावश्यक सुख से वंचित रह गया था। इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि प्रेम की इस नयी, मदमाती अनुभूति के साथ उसका हृदय आनन्द-विभोर हो उठे। स्टेशन पर नीना से जो उसकी बातें हुई थीं, उनका नशा दिन-रात उस पर छाया रहता था। उस मुलाकात की छोटी-से-छोटी बातों को वह बार-बार स्मरण करता, और प्रत्येक बार नीना के शब्दों में कोई नया और गहरा अर्थ खोज निकालता। सुबह जब उसकी अांखें खुलती तो उसे लगता मानो अानन्द की एक विराट अनुभूति ने अपनी उज्जवल रश्मियां उसकी नस-नस में बिखेर दी हैं जो उसे भविष्य में अपार सुख की सूचना दे रही हैं । कोई जादुई शक्ति उसे जिनेन्को के घर की अोर दिन-रात खींचती रहती; नीना के प्रेम ने जो उसे सुख दिया था, वह उसकी पुनः पुष्टि चाहता था, चाहता था एक बार फिर नीना के मुंह से प्यार के ये दबे, कहे-अनकहे शब्द सुनना--जिन्हें वह कभी बचकानी निडरता के संग स्पष्ट रूप से व्यक्त करती, तो कभी सहम-सहम कर । वह यह सब कुछ याद करता था किन्तु जिनेन्को के घर जाने का साहस नहीं कर पाता था। क्वाशनिन की उपस्थिति का ध्यान आते ही पांव रुक जाते थे। फिर वह अपने मन को यह कह कर दिलासा देने लगता कि किसी भी परिस्थिति में क्वाशनिन इवानकोवो में पन्द्रह दिन से ज्यादा नहीं ठहर पाएगा। और उसके बाद वह पूर्ववत् जिनेन्को के घर जाकर नीना से मिल सकेगा। किन्तु क्वाशनिन के जाने से पूर्व ही संयोगवश नीना से उसकी मुठभेड़ हो गयी । पवन-भट्टी के उद्घाटन का समारोह तीन दिन पहले समाप्त हो चुका था। रविवार का दिन था । बोबरोब फेयरवे पर चढ़ कर मिल से स्टेशन जाने वाले चौड़े, आम रास्ते पर जा रहा था। दोपहर के दो बजे थे। शीतल, सुहावना दिन था, अाकाश नीला और स्वच्छ था। फेयरवे कान खड़े करके सिर के बालों को झटका देता हुआ तेजी से चला जा रहा था । मिल के गोदाम
के पास सड़क की मोड़ पर बोबरोव ने कुम्मैद घोड़े पर सवार एक स्त्री को ढलान से उतर कर पाते हुए देखा। उसके पीछे-पीछे एक अन्य घुड़सवार की आकृति दिखाई दी जो छोटे कद के खिरगीज घोड़े पर चला आ रहा था। स्त्री ने घुड़सवार की पोशाक पहन रखी थी। बोबरोव ने कुछ निकट आकर उसे तुरंत पहचान लिया। वह नीना थी। वह गहरे हरे रंग की लम्बी, बलखाती हुई स्कर्ट पहने थी, हाथ पीले दस्तानों से ढंके थे और सिर पर नीचे की ओर झुका हुआ हैट चमक रहा था। घोड़ी की काठी पर बैठी हुई वह गरिमा और आत्म- विश्वास की साक्षात प्रतिमा सी दिखाई देती थी। छरहरे बदन की अंग्रेजी घोड़ी गर्दन टेढ़ी कर, अपनी पतली टांगों को ऊंचा उठाती हुई, दुलकी चाल से दौड़ रही थी। नीना का साथी स्वेजेवस्की काफी पीछे छूट गया था । घोड़े की पीठ पर बैठा वह अपनी कुहनियां हिलाता, उछलता-फुदकता, नीचे लटकती रेकाव में अपने बूट के पंजे को फंसाने का प्रयत्न कर रहा था । वोबरोव को देखते ही नीना ने अपनी घोड़ी को एड़ मारी। घोड़ी चौक- ड़ियां भरती हुई क्षण भर में बोबरोव के निकट जा पहुंची। नीना ने अचानक लगाम खींच ली। घोड़ी तिलमिला कर बिदकने लगी और अपने सुन्दर चौड़े नथुनों को फुला कर घर्घराने लगी। उसके मुंह से निकलता हुअा झाग लगाम को भिगो रहा था। नीना का चेहरा आरक्त हो गया था, केश हैट से बाहर निकल कर कनपटियों पर झूल रहे थे और लम्बी धुंघराली लटें पीछे की ओर लुढ़क गयी थीं। " इतनी खूबसूरत घोड़ी तुम्हें कहां से मिल गयी ?" बोबरोव ने फेयरवे को सीधा खड़ा कर लिया और अपनी काठी पर आगे झुक कर नीना की अंगुलियों के छोरों को दबाते हुए पूछा । 'खूबसूरत है न ? क्वाशनिन का उपहार है।" " मैं होता, तो ऐसा उपहार कभी स्वीकार न करता," बोबरोव ने रुखाई से कहा । नीना के लापरवाह उत्तर से वह खीझ उठा था । नीना का चेहरा लज्जारक्त हो उठा । क्यों, ऐसी क्या बात है ? 'इसलिए कि यह क्वाशनिन आखिर तुम्हारा कौन लगता है ? कोई रिश्तेदार है ? या तुम्हारा भावी पति है ?" "ऐ खुदा ! मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतने मीनमेखी हो -वह भी अपने नहीं, दूसरों के मामलों के लिए।" नीना ने तीखा ताना मारा । किन्तु वोबरोव के चेहरे पर पीड़ा का विवश भाव देखकर उसी क्षण उसका हृदय पिघल उठा। 11 “ "
(7 10 "तुम तो जानते ही हो कि वह कितना अमीर है। एक घोड़ी उपहार में दे देना उसके लिए कोई बड़ी बात नहीं।" स्वेजेवस्की और उनके बीच में अब केवल कुछ ही कदमों का अन्तर रह गया था। अचानक नीना बोबरोव की ओर झुकी, अपनी चाबुक की नोक से धीरे से उसका हाथ छू लिया, और दबे स्वर में, मानो कोई छोटी सी लड़की अपना अपराध स्वीकार कर रही हो, वोली, “ नाराज हो गये क्या ? मैं उसकी घोडी उसे वापिस कर दूंगी, बस ! बड़े झक्की आदमी हो तुम भी ! देखते हो न मैं तुम्हारी राय की कितनी कद्र करती हूं।" बोबरोब की अांखें खुशी से चमक उठीं और भावाकुल होकर उसने अपने दोनों हाथ नीना की ओर बढ़ा दिये । किन्तु उसने कुछ कहा नहीं । केवल एक गहरी सांस खींचकर चुप हो रहा । स्वेजेवस्की झुककर अभिवादन करता हुया और काठी पर शान से बैठने की चेष्टा करता हुआ बढ़ा आ रहा था । "तुम्हें मालूम है कि हम पिकनिक पर जा रहे हैं ?" वह चिल्लाया । " नहीं, मुझे कुछ नहीं मालूम ।" बोबरोव ने कहा । 'मेरा मतलब उस पिकनिक से है, जो वासिली तेरन्त्येविच द्वारा आयोजित की जा रही है। बेरोनाया बाल्का जाने का प्रोग्राम बना है। 'मैंने तो कुछ सुना नहीं।" बोबरोव ने फिर कहा । 'पिकनिक पर हम सब जा रहे हैं, आन्द्रेइलिच ! तुम भी जरूर आना," नीना बीच में ही बोल उठी। "अगले बुधवार को, पांच बजे सब स्टेशन से रवाना होंगे। 'क्या पिकनिक के लिए चन्दा जमा किया जायगा ?" 'हां, लेकिन मुझे पूरी पक्की बात नहीं मालूम ।" नीना ने प्रश्नयुक्त दृष्टि से स्वेजेवस्की की अोर देखा । अवश्य ! सब से चन्दा जमा किया जायगा।" उसने नीना के कथन की पुष्टि की । " पिकनिक सचमुच बहुत बड़े पैमाने पर आयोजित की जायगी। ऐसी तड़क-भड़क तुमने पहले कभी नहीं देखी होगी। वासिली तेरन्त्येविच ने पिकनिक की समुचित व्यवस्था करने के सिलसिले में कुछ जिम्मेवारियां बन्दे के भी सिपुर्द की है। लेकिन बहुत सी बातें अभी तक गुप्त रखी गयी हैं। एक बात मैं कहे देता हूं-- वहां तुम जो देखोगे, उससे आश्चर्यचकित हुए बिना न रह सकोगे।' " सारी बात मुझसे ही शुरू हुई थी," हंसी-हंसी में नीना के मुंह से निकल गया । " कुछ दिन पहले की बात है। बातों-ही-बातों में मैंने कहा कि यदि कहीं जंगल की सैर पर निकला जाए तो मजा रहेगा । मेरा इतना कहना था कि वासिली तेरन्त्येविच ..." 11 । 11 ५७
" " कह सकोगे। " मैं नहीं जाऊंगा।" बोवरोव ने भन्नाकर कहा । 'कैसे नहीं आनोगे, तुम्हें आना पड़ेगा !" नीना की अखि सहसा चमक उठीं। "चलिए, बढ़ चलिए, श्रीमानो !” घोड़ी सरपट दौड़ती हुई वह चिल्लाई । " अान्द्रेइलिच, सुनो, मुझे तुमसे एक बात कहनी है । स्वेगेवस्की पीछे छूट गया। नीना और बोबरोव के घोड़े साथ-साथ दौड़ रहे थे। गुस्से में बोवरोव की त्यौरियां चढ़ी हुई थीं। किन्तु नीना मुस्कराते हुए उसकी आंखों में देख रही थी। " मेरे निष्ठुर, शक्की मिजाज मित्र ! पिकनिक की सारी योजना मैने सिर्फ तुम्हारी खातिर ही तो बनायी ," नीना के स्वर में एक गहरी कोमलता भर पायी। " उस दिन स्टेशन पर तुम्हारी बात अधूरी ही रह गयी थी। मै पूरी बात जानना चाहती हूं। पिकनिक में तुम अपनी बात बिना किसी विघ्न- बाधा के एक बार फिर बोबरोव के भाव सहसा बदल गये। उसके हृदय में एक अत्यंत कोमल अनुभूति उजागर हो उठी और उसकी आंखों में हर्ष के आंसू भर आये। वह अपने को वश में न रख सका और आवेश में भरकर बोल उठा : " नीना, काश, तुम जान पाती कि मैं तुम्हें कितना चाहता हूं !" किन्तु नीना ने बोबरोव के प्रेम की इस आकस्मिक अभिव्यक्ति को सुनकर भी नहीं सुना । उसने लगाम खींचकर घोड़ी को धीमी गति से चलने के लिए बाध्य कर दिया। 'अच्छा, तो फिर तुम' आ रहे हो न ?" उसने पूछा। 'हां, हां, अवश्य आऊंगा!" "भूलना नहीं । अब यहां मैं अपने साथी की प्रतीक्षा करूगी । वह बहुत पीछे छूट गया है । अच्छा, नमस्ते ! अब मुझे घर लौट जाना चाहिए। बिदा लेते हुए उसने नीना से हाथ मिलाया । देर तक वे एक-दूसरे का हाथ पकड़े रहे । उसे लगा मानो नीना के हाथ की गरमायी दस्तानों से गुजर कर उसके हाथ को सहला रही है। नीना की गहरी काली प्रांखों में प्यार छलक रहा था। 11 1) नौ बुधवार को चार बजे स्टेशन पर तिल रखने की जगह न थी । पिकनिक पर जाने वाले लोगों ने पूरे दल-बल सहित स्टेशन पर धावा बोल दिया था। सबके चेहरे पानन्द और उल्लास से चमक रहे थे । लगता था मानो इस बार सच ही क्वाशनिन का दौरा बिना किसी दुर्घटना के समाप्त हो जायगा, गरचे ५८
इस बात की आशा लोगों ने स्वप्न में भी नहीं की थी। वह इस बार अांधी की तरह किसी पर बरसा नहीं और न उसने किसी पर अपनी झिड़कियों का वज्राघात ही किया। यह भी आश्चर्य की बात थी कि उसने इस वर्ष किसी कर्मचारी को क्रोध में प्राकर नौकरी से बरखास्त नहीं किया । उलटे यह बात सुनने में आ रही थी कि निकट भविष्य में मिल के क्लर्कों के वेतन में वृद्धि कर दी जायगी। पिकनिक का अपना अलग आकर्षण था । बेशेनाया बाल्का--- पिकनिक का स्थान- घुड़सवारी द्वारा शहर से दस मील से भी कम दूर था । सारे रास्ते पर प्राकृतिक सौन्दर्य की अनुपम छटा बिखरी थी । मौसम भी खुशगवार था -पिछले एक सप्ताह से उजली धूप निकल रही थी। पिकनिक की सफलता के लिए सब साधन मानो पाप-ही-पाप जुट गये थे। कुल मिलाकर लगभग नब्बे लोगों का दल था। वे सब छोटे-छोटे दलों में बंटकर प्लेटफार्म पर खड़े थे और आपस में जोर-जोर से हंस-बोल रहे थे । बातचीत रूसी भाषा में हो रही थी किन्तु अक्सर फ्रेंच, जर्मन और पोलिश भाषाओं के शब्द और मुहावरे कानों में पड़ जाते थे । स्नेप-शॉट लेने की अाशा में तीनों बेल्जियन इंजीनियर अपने संग कैमरे ले आये थे। पिकनिक सम्बंधी सब बातों को पूर्णतया गुप्त रखा गया था। यही कारगा था कि सब लोगों में जिज्ञासा और उत्सुकता फैली हुई थी। स्वेजेवस्की के पैर धरती पर टिकते ही नहीं थे। गम्भीरता का लबादा प्रोढे वह बड़े रहस्यमय स्वर में कुछ ऐसी घटनाओं की ओर संकेत करता जो सबको “आश्चर्य में डाल देंगी।" किन्तु जब आगे उससे प्रश्न पूछे जाते तो वह कोई स्पष्ट या ठोस उत्तर देने से साफ कतरा जाता। कुछ ही देर में लोगों ने जो पहला "आश्चर्य' आंखों के सामने खड़ा पाया, वह थी स्पेशल ट्रेन । ठीक पांच बजे दस पहियों का नया अमरीकी इंजन अपने शैड से बाहर धमधमाता हुग्रा निकल कर प्लेटफार्म के सामने आ खड़ा हुआ । हर्ष और विस्मय के कारण स्त्रिया अपनी चीखें न दबा सकी। वह विशाल- काय इंजन रंग-बिरंगी झंडियों और ताजे फूलों से सुसज्जित था। गेंदे, डालिया, स्टॉक और गुलाब के फूलों के गुच्छे और बलूत के पत्तों की हरित मालाएं इजन की लौह-देह और उसकी चिमनी से लिपटती हुईं नीचे सीटी तक चली गई थीं और फिर सीटी से दोबारा ऊपर घूम कर इंजन के माथे पर फूल-पत्तों की एक झालर के समान लटक गई थीं। पतझर के डूबते सूरज की सुनहरी किरणों में, फूल-पतों की ओढ़नी के बीच से इंजन के इस्पात और पीतल के कल-पुर्जे चमचमा रहे थे। पता चला कि सब लोग प्रथम श्रेणी के छः डब्बों में बैठ कर २०० वें मील के स्टेशन पर जायेगे। उसके बाद बेशेनाया बाल्का केवल दो सौ गज दूर रह जाता था। ५९
(4 40 महानुभावो और महिलाओ ! वासिली तेरन्त्येविच ने मुझे आपको यह सूचित करने के लिए कहा है कि पिकनिक का सारा खर्च वे ही उठायेंगे।" स्वेजेवस्की कभी एक दल के पास जाता, कभी दूसरे के पास, और सबसे -यही बातें बार-बार कहता । बहुत से लोग कौतूहलवश उसके इर्द-गिर्द इकट्ठा हो गये । स्वेजेवस्की बड़े उत्साह से उन्हें सारी बात विस्तार से समझाने लगा। 'आप लोगों ने उनका जो भव्य स्वागत किया, उससे वासिली तेरन्त्ये- 'विच बहुत प्रसन्न हैं। आप लोगों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करने के लिए वह पिकनिक का सारा खर्च अपनी जेब से देंगे। उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो कोई दास अपने मालिक की 'उदारता का बखान कर रहा हो । उसका स्वर सहसा भारी और गम्भीर हो उठा : 'अब तक हम इस पिकनिक पर तीन हजार पांच सौ नब्बे रूबल खर्च कर चुके हैं।" " क्या तुम्हारा मतलब यह है कि प्राधी रकम तुमने अपनी जेब से खर्च की है ?" पीछे से किसी ने ताना मारा। स्वेजेवस्की उस व्यक्ति का चेहरा देखने के लिए तेजी से पीछे की ओर घूम गया। विष से बुझा यह वाण अान्द्रेयस ने ही छोड़ा था। वह पतलून की जेबों में हाथ लूंसकर खड़ा था और हमेशा की तरह अपने पुराने, निलिप्त, निर्विकार भाव से स्वेजेवस्की को देख रहा था। माफ करना, मैं समझा नहीं। क्या आप अपनी बात दोहराने की कृपा करेंगे ?" स्वेजेवस्की ने पूछा । असमंजस से उसका चेहरा पारक्त हो उठा था। 'अभी तुमने ही तो कहा था श्रीमान कि 'हमने तीन हजार रूबल खर्च ' किये,' इसीलिए मैंने सोचा कि आधी रकम क्वाशनिन ने और आधी तुमने खर्च की होगी। यदि यह बात सच है, तो मैं आपको साफ बतला दूं कि मि. क्वाशनिन ने हम पर जो कृपा की है, उसे स्वीकार करने में मुझे कोई हिचक नहीं है, किन्तु मि. स्वेजेवस्की की कृपा को मैं कतई स्वीकार नहीं कर सकता। 'अरे नहीं, नहीं ! आपने गलत समझा।" स्वेजेवस्की ने हकलाते हुए सारा खर्च वासिली तेरन्त्येविच ने ही तो उठाया है। मैं... मैं तो केवल उनका विश्वासपात्र. या एजेन्ट अरे भाई अब तुम कुछ ही समझ लो।" कहते-कहते एक खिसियानी सी मुस्कराहट उसके होठों पर फैल गयी । इधर स्टेशन पर ट्रेन आयी, उधर क्वाशनिन और शेलकोवनिकोव के संग जिनेन्को परिवार प्लेटफार्म पर दिखायी दिया। किन्तु क्वाशनिन के बग्गी से उतरते ही एक ऐसी घटना घटी, जिसकी कल्पना कोई भी नहीं कर सकता 14 । " " कहा। ६०
था। एक ऐसा विचित्र दृश्य था, जिसे देखकर हंसी भी आती थी और दुःख भी होता था। पिकनिक की खबर पाकर मजदूरों की पत्नियां, बहनें और माताएं सुबह से ही स्टेशन के पास धरना देकर बैठ गयी थीं। उनमें से अनेक स्त्रियां बच्चों को भी अपने संग ले पायी थीं। उन मजदूर स्त्रियों के धूप से झुलसे, मैले-मुरझाये चेहरों पर अटल धैर्य और सहनशीलता का भाव अंकित था। स्टेशन की सीढ़ियों और दीवारों की छाया में धरती पर बैठे-बैठे उन्हें घंटों बीत चुके थे। उनकी संख्या दो सौ से अधिक थी। जब स्टेशन के कर्म- चारियों ने उनसे वहां आने का कारण पूछा तो उन्होंने बतलाया कि वे "सुर्ख बालों वाले अपने मोटे मालिक" से मिलना चाहती हैं। चौकीदार ने उन्हें वहां से हट जाने का आदेश दिया, किन्तु उन्होंने इतना बावेला मचाया कि बेचारे को अपना सा मुंह लेकर वहां से चला जाना पड़ा। जब कभी कोई बग्गी स्टेशन के सामने से गुजरती, स्त्रियों के झुंड में एक क्षण के लिए हलचल-सी मच जाती। किन्तु जब वे देखतीं कि उसमें उनका "सुर्ख बालों वाला मोटा मालिक " नहीं बैठा है, तो वे फिर शान्त होकर प्रतीक्षा करने लगतीं। अपने भारी-भरकम शरीर को लिए बग्गी के समूचे ढांचे को हिलाता- डुलाता क्वाशनिन अभी बग्गी से उतर ही रहा था कि मजदूर स्त्रियों ने उसे चारों ओर से घेर लिया और उसके सामने अपने घुटनों पर गिर पड़ी। क्वाशनिन के जवान, जोशीले घोड़े भीड़ के कोलाहल से चिहुंक कर बिदकने लगे । साईस उन्हें काबू में रखने के लिए अपना पूरा जोर लगाकर लगाम खींच रहा था। पहले तो क्वाशनिन को कुछ समझ न आया और वह उन्हें भौंचक्का सा देखता रहा। सब औरतें अपनी बाहों में बच्चों को पकड़े जोर-जोर से चीत्कार कर रही थीं और उनके कांसे के रंग के चेहरे आंसुओं से भीगे थे। क्वाशनिन समझ गया कि भीड़ के इस जीते-जागते घेरे को तोड़कर आगे बढ़ना हंसी-खेल नहीं है। 'क्या तमाशा बना रखा है तुम लोगों ने ! यह रोना-धोना बन्द करो !" क्वाशनिन की दनदनाती गरज के नीचे अन्य सब आवाजें डूब गयीं। 'कोई कुंजड़ों का बाजार समझ रखा है क्या, कि आये और गला फाड़ने लगे इस कोलाहल में मैं कुछ नहीं सुन सकता। तुम में से कोई एक औरत खड़ी होकर मुझे सारी बात समझा दे । इतना सुनते ही प्रत्येक स्त्री खड़ी होकर बोलने लगी। शोर और ज्यादाः बढ़ गया। अश्र-धाराएं और तेजी से बहने लगीं। .
22 " मालिक ! हमारी मदद करो ! अब हमसे ज्यादा नहीं सहा जाता। हम और हमारे बच्चे मौत के किनारे बैठे हैं । सरदी से ठिठुर-ठिठुर कर हम मर जायेंगे --बच्चे-बूढ़े, सब मर जायेंगे।" "कुछ बात तो कहो । क्या चीज तुम्हें मारे डाल रही है ?" क्वाशनिन एक बार फिर चिंघाड़ा। " लेकिन देखो, सब एक संग मत चिल्लायो । अच्छा, तुम सारी बात कहो।" उसने एक लम्बी स्त्री को इशारा किया, जिसका क्लान्त चेहरा पीला होने के बावजूद आकर्षक था । " बाकी सब खामोश रहें। अधिकांश स्त्रिया शान्त हो चलीं, यद्यपि उनका सुबकना-सिसकना जारी था। वे बार-बार अपनी स्कर्ट के मैले किनारों से नाक और अांखें पोंछती जाती थीं। क्वाशनिन की चेतावनी के बावजूद कम-से-कम वीस औरतें एक संग बोलने लगीं। "हम जाड़े से मर रहे हैं मालिक ! इतनी कड़कड़ाती ठंड पड़ती है कि जीना मुहाल हो जाता है । जाड़े के लिए हमें जिन बैरकों में ढूंस दिया गया है, आप ही जरा सोचें, भला वहां कोई कैसे रह सकता है ? बैरक भी वे सिर्फ नाममात्र को है, बस लकड़ी की चिप्पियों से उन्हें खड़ा कर दिया गया है । आजकल भी वहां रात के समय इतनी ठंड पड़ती है कि दांत किटकिटाते रहते हैं । जब अभी ही यह हालत है, तो जाड़े के दिनों में कैसे गुजर होगा ? मालिक, हम पर नहीं तो कम-से-कम हमारे बच्चों पर रहम कीजिए, कुछ और नहीं तो कम-से-कम चूल्हे ही वनवा दीजिए । बैरकों में रोटी बनाने के लिए कोई जगह नहीं, खाना मजबूरन बाहर पकाना पड़ता है। थके-मांदे, भीगे और ठिठुरते हुए हमारे पादमी जब काम से वापिस लौटते हैं, तो उनके गीले कपड़ों को सुखाने का भी कोई इंतजाम नहीं है ।' क्वाशनिन बुरा फंस गया था। वह जिस ओर मुड़ता, घुटनों पर झुकी या लेटी हुई स्त्रियों की दीवार उसका रास्ता रोक लेती। जब कभी वह जबरदस्ती उनकी पांत को तोड़कर आगे बढ़ने की चेष्टा करता, तो वे उसके पैरों से लिपट जाती और उसके भूरे रंग के लम्बे कोट के किनारों को पकड़ लेतीं। अपने को सर्वथा विवश पाकर उसने इशारे से शेलकोवनिकोव को पास बुलाया। शेलकोवनिकोव तुरंत भीड़ को चीरता हुआ उसके पास आ खड़ा हुआ। क्वाशनिन ने क्रुद्ध स्वर में उससे फ्रेंच भाषा में कहा, “सुन रहे हो तुम इनकी बात ? आखिर इसका मतलब क्या है ?" शेलकोबनिकोव हक्का-बक्का सा उसकी ओर देखने लगा। ' में बोर्ड को अनेक बार इस सिलसिले में लिख चुका हूं," वह बुदबुदाने लगा । “ मजदूरों की कमी थी ... गरमियों के दिन थे ... सूखी घास काटी जा ६२
रही थी ... और फिर चीज़ों के दाम भी चढ़ने लगे थे ... बोर्ड ने स्वीकृति नहीं दी। आखिर इस हालत में मैं क्या करता ?" 'अच्छा तो फिर तुम मजदूरों की बैरकों के पुननिर्माण का काम कब से शुरू करोगे ?" उसने कठोर स्वर में पूछा। "अभी निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। फिलहाल तो इन लोगों को इन्हीं बैरकों में जैसे-तैसे गुजर करना पड़ेगा। पहले तो हमें जल्द- से-जल्द मिल के कर्मचारियों के लिये क्वार्टर वनाने पड़ेंगे। बैरकों का निर्माण बाद में ही हो सकता है। 'खूब है तुम्हारी संचालन-व्यवस्था ! इतना अनर्थ और अन्याय तुम देखते हो, फिर भी हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहते हो !" क्वाशनिन बुड़बुड़ाया। फिर स्त्रियों की ओर उन्मुख होकर उसने ऊंची आवाज में कहा : “परी औरतो, सुनती हो ! कल से तुम्हारे घरों में चूल्हे बनने शुरू हो जायेगे। इसके अलावा तुम्हारी बैरकों की छतों पर लकड़ी के तख्ते जोड़ दिये जाएंगे। अब तो ठीक है न? "शुक्रिया मालिक, वहुत बहुत शुक्रिया ! जब मालिक ने अपने मुंह से यह बात कही है, तो हमें कोई चिन्ता नहीं, हमें आप पर पूरा विश्वास है !" भीड़ में खुशी की लहर दौड़ गयी । “मालिक, आपसे एक प्रार्थना और है जिन स्थानों पर इमारतें बन रही है, वहां से हमे लकड़ी की चिप्पियां उठाने की इजाजत मिल जाए। ईश्वर आपका भला करेगा !" "अच्छी बात है, चुन लिया करना । 'लेकिन उन स्थानों पर चारों ओर सरकासी पहरेदार घेरा डालकर बैठे रहते हैं । जब हम चिप्पियां बटोरने जाती हैं, तो वे कोड़ा दिखलाकर हमें भगा 17 देते है। " "फिक मत करो, अब तुम्हें कोई नहीं धमकाएगा। जितनी मरजी चिप्पियां बटोर कर ले जाओ।" क्वाशनिन ने उन्हें आश्वासन दिया। "अच्छा औरतो, अब तुम घर जाकर साग-सब्जी पकानो ! यहां खड़े रहकर नाहक अपना वक्त खराब मत करो- हां, हां, जल्दी करो, देर मत लगायो ।" वह ऊंची आवाज में चिल्लाया, फिर दवे स्वर में धीरे से शेलकोवनिकोव से बोला, कल ईटों की एक दो गाड़ियां बैरकों में भिजवा देना। काफी लम्बे अर्से तक वे उन ईटों को देख-देखकर ही खुश होते रहेंगे । समझ गये ?" मजदूर स्त्रियां खुश होकर अपने-अपने घरों की ओर जाने लगी थीं। " देख लेना -अगर चूल्हे नहीं बनाए गये, तो हम इजीनियरों से जाकर कहेंगी कि वे खुद आकर हमारे ठिठुरते शरीरों को गरमाहट पहुंचाएं।" उस
10 स्त्री ने, जिसे क्वाशनिन ने दूसरी स्त्रियों की ओर से बोलने के लिए चुना था, ऊंची आवाज में कहा । 'और नहीं तो क्या !" एक अन्य स्त्री ने बड़े जोश से पहली स्त्री का समर्थन किया । "और सच, मैं तो अपने को गरम रखने के लिये खुद मालिक को बुलवा भेजूगी। देखा तुमने-- कैसा गोल-मटोल चुकन्दर सा लगता है, और ऊपर से हंसमुख भी है । जो गरमाई उससे मिलेगी, चूल्हा बेचारा उसका क्या मुकाबला करेगा?" सारा झगड़ा इतने सुन्दर, शांतिपूर्ण ढंग से निपट गया कि सभी प्रफुल्लित हो उठे। यहा तक कि क्वाशनिन भी, जो कुछ देर पहले शेलकोवनिकोव पर खीज उठा था, मजदूर स्त्रियों के " गरमाहट पहुंचाने" के प्राग्रह को सुनकर हंसने लगा। शेलकोवनिकोव की कुहनी पकड़कर वह उसे मनाने लगा। 'यार बात यह है," स्टेशन की सीढ़ियों पर धीरे-धीरे चढ़ते हुए उसने शेलकोवनिकोव से कहा, "कि इन लोगों से बात करने का गुर जानना बहुत जरूरी है। वे जो कहें, बिना हील-हुज्जत के सब कुछ मान लो - - अलमूनियम के मकान, आठ घंटे का दिन, हर मजदूर के लिए प्रतिदिन मांस की भुनी हुई बोटी-वादे-पर-वादे करते जाओ। किन्तु याद रखो, जो कहो पूरे विश्वास के साथ कहो। मैं यह बात दावे के साथ कहने के लिए तैयार हूं कि केवल वादों के बल पर मैं सिर्फ अाध घंटे में बड़े-से-बड़े जोशीले प्रदर्शन को ठंडा कर सकता हूं। स्त्रियों की बगावत -जिसे उसने इतनी आसानी से दबा दिया था की बातों को यादकर खिलखिला कर हंसता हुआ क्वाशनिन गाड़ी में चढ़ गया। तीन मिनट बाद रेल चल पड़ी। कोचवानों को पहले से ही बेशेनाया बाल्का जाने के लिये कह दिया गया था। यह तय हो चुका था कि सब लोग मशालों के संग घोड़ागाड़ियों में वापिस लौटेंगे। बोबरोव को नीना का व्यवहार काफी विचित्र सा लग रहा था। पिछली रात से ही वह नीना को देखने के लिये छटपटा रहा था और अब स्टेशन पर बड़ी अधीरता से उसकी प्रती- करता रहा था। उसके दिल में नीना के प्रति जो सन्देह की काई जमी थी, वह अब धुल चुकी थी। उसे अब अपने सुख पर विश्वास हो चला था । दुनिया इतनी खूबसूरत हो सकती है, इसकी कल्पना भी उसने पहले कभी नहीं की थी। उसे सब लोग सहृदय और दयालु जान पड़ने लगे । जीवन में एक ऐसे सरस सौन्दर्य का आविर्भाव होने लगा, जो उसके लिये बिलकुल नया था। उस दिन वह इसी उधेड़-बुन में उलझा था कि जब वह नीना से मिलेगा तो किस प्रकार अपने उद्गार उसके सम्मुख प्रगट करेगा। वह प्यार से भरी, सुन्दर, कोमल, प्रेमोन्मादित बातों को मन-ही-मन दुहराने लगा, फिर अपनी इस हरकत पर स्वयं हंसने लगा। प्रेम के शब्दों को याद करने की क्या जरूरत ? जरूरत पड़ने पर वे खुद-ब-खुद उमड़ पड़ते है, और तब उनका सौन्दर्य और सोंधापन कितना अधिक निखर उठता है ! उसे एक कविता स्मरण हो आयी, जो उसने किसी पत्रिका में पढ़ी थी। कवि ने अपनी प्रेयसी को सम्बोधित करते हुए कहा था कि वे एक दूसरे को वचन देने का अभिनय कर अपने सच्चे और उज्जवल प्रेम पर कालिख नहीं लगाएंगे। प्रेम का इससे बढ़कर क्या अपमान होगा कि उसके लिये वचन देना पड़े? क्वाशनिन की गाड़ी के पीछे-पीछे दो बग्गियां और पा रही थीं, जिनमें जिनेन्को परिवार के सदस्य बैठे थे। नीना पहली बग्गी में थी। उसने गहरे पीले रंग के वस्त्र पहन रखे थे, और उसी रंग की चौड़ी लेस उसकी फ्रॉक के अर्ध- -चन्द्राकार गले को सुशोभित कर रही थी। उसके सिर पर चौड़े किनारे वाला सफेद इतालवी हैट था, जिस पर गुलाब का एक सुन्दर गुलदस्ता सुसज्जित था। नीना का चेहरा असाधारण रूप से पीला और गम्भीर दिखायी दे रहा था। नीना ने दूर से ही उसे देख लिया था, किन्तु बोबरोव को उसकी आंखों में वह संकेत नहीं मिला जिसकी वह इतनी उत्सुकता से प्रतीक्षा करता रहा था। उसे लगा मानो जानबूझकर उसने उसकी अोर से अपना मुंह फेर लिया। स्टेशन के सामने बग्गी रुकी । नीना को सहारा देकर नीचे उतारने के लिए वह भागता हुआ बग्गी के पास गया था, किन्तु नीना मानो उसके तात्पर्य को समझकर झटपट दूसरी ओर से नीचे कूद गयी थी। बोबरोव का हृदय किसी अनिष्ट की संभावना से कांप उठा। किन्तु शीघ्र ही उसने इस आशंका को पीछे धकेल दिया । " बेचारी नीना ! अपने प्रेम पर नाहक इतनी लजा रही है। समझती है कि अब सब लोग उसकी आंखों में उसके दिल का भेद पढ़ लेंगे !" नीना के संकोच और उसकी अबोध लज्जा की इस कल्पना से बोबरोव के दिल में हल्की सी गुदगुदी दौड़ गयी। उसे स्टेशन की पुरानी बात याद आ गयी। उसने सोचा कि उस दिन की तरह नीना उससे अकेले में बातचीत करने का अवसर ढूंढ निकालेगी। किन्तु नीना ने ऐसा कुछ नहीं किया। वह मजदूर स्त्रियों के संग क्वाशनिन की बातों को बड़े ध्यान से सुन रही थी। चोरी-चुपके भी उसने बोबरोव की ओर एक बार अांखें नहीं उठायीं। बोबरोव दिल मसोसकर खड़ा रहा । सहसा एक अज्ञात भय एक चुभती, गहरी टीस उसके हृदय को मथने लगी। जिनेन्को परिवार के सदस्य एक कोने में अलग-थलग खड़े थे । जान पड़ता था कि अन्य महिलाएं उनसे मिलना-जुलना पसन्द नहीं करती थीं । स्टेशन के शोर-शराबे में सब का ध्यान भटका हुआ था । बोबरोव ने सोचा कि नीना से कलने का इससे अधिक उपयुक्त अवसर फिर नहीं मिलेगा। वह कुछ बोलेगा नहीं--सिर्फ आंख के इशारे से ही नीना से उसकी उदासीनता का कारण पूछ लेगा। उसने पास जाकर अन्ना अफानास्येवना को प्रणाम किया और उसका हाथ घूमा । वह उसकी आंखों के भाव को पढ़कर जानना चाहता था कि वह नीना और उसके विषय में कुछ जानती है या नहीं ? और उसे लगा, मानो वह सब कुछ जानती है । उसकी पतली, बंकिम भौंहें जो बोबरोव के विचार में उसके कपटी स्वभाव का परिचायक थीं- घृणा से सिकुड़ आयीं थीं और उसके होंठ दर्प से फूले हुए थे। उसने एकदम समझ लिया कि नीना ने सारी बात अपनी मां से कह दी होगी और उसने नीना को डांट-डपट दिया होगा। वह नीना के पास आया, किन्तु उसने उसकी ओर अांख उठाकर देखा तक नहीं । उसका ठंडा हाथ बोबरोव के कांपते हाथों में शिथिल सा पड़ा रहा । उसके अभिवादन का उत्तर देने के बजाय उसने अपना चेहरा बेता की ओर मोड़ लिया और उससे इधर-उधर की बातें करने लगी। नीना के इस अप्रत्या- शित व्यवहार से उसे लगा मानो कोई पाप की भावना उसकी आत्मा को खरोंच रही है, मानो वह अचानक इतनी कायर और भयभीत हो गयी है कि किसी बात का भी स्पष्टीकरण करना उसके लिए दुश्वार हो गया है । बोबरोव को एक गहरा धक्का सा लगा । उसका मुंह सूख गया और पांव लड़खड़ाने लगे । वह दिगभ्रान्त सा वहां खड़ा रहा। माजरा क्या है ? यदि नीना ने अपना भेद मां को बता दिया है तो भी वह प्रांख के चपल, अर्थपूर्ण इशारे से जिसमें हर स्त्री इतनी पटु होती है - उसको सारी बात समझा सकती थी। "तुम्हरा अनुमान ठीक है," वह अाश्वासन देकर चुपचाप कह देती, "मां सब जानती है --- किन्तु मैं वैसी ही जैसे पहले थी। मुझ में कोई परिवर्तन नहीं पाया है । तुम किसी बात की चिन्ता मत करो।" किन्तु उसने यह सब कुछ नहीं कहा--चुपचाप मुंह फेर लिया । "कोई बात नहीं, पिकनिक के दौरान में उससे सब कुछ जान लूंगा।" उसने सोचा। किसी भयंकर, कायरतापूर्ण घटना की अनिष्ट संभावना ने उसे आतंकित कर दिया। "चाहे जो कुछ भी हो, उसे मुझे सब कुछ बताना ही पड़ेगा । 11 दस गाड़ी '२०० मील' के स्टेशन पर रुक गयी। लोग अपने-अपने डब्बों से बाहर निकल पाए । चौकीदार के मकान से परे एक ढलुप्रां, संकरी सड़क चली गयी थी । पिकनिक पर जाने वालों का रंग-रंगीला लश्कर एक लम्बी
पांत बना कर बेशेन या बाल्का जाने के लिए इसी सड़क पर चलने लगा। शरद- ऋतु के पेड़-पौधों की तीखी ताजी सुगन्ध हवा में तिरती हुई उनके तप्त-प्रारक्त चेहरों का स्पर्श करने लगी। सड़क नीचे को उतरती चली गयी और बाद में जाकर तो वह जैतून की झाड़ियों और हनीसकल के खुशबूदार फूलों के झुरमुट में खो सी गयी थी। पैरों तले पीले सिकुड़े हुए निर्जीव पत्ते चरमरा उठते थे । वृक्षों के कुंज से परे दूर क्षितिज पर सूर्यास्त की लालिमा बिखरने लगी थी। झाड़ियां खत्म हुई। अचानक एक खुला मैदान सामने दिखायी दिया, जिस पर महीन रेत बिछी हुई थी। मैदान के एक छोर पर रंग-बिरंगी झंडियों और फूल-पत्तियों से सुशोभित पाठ-भुजाओं वाला एक मंडप खड़ा था। दूसरे छोर पर छत से ढंका एक ऊंचा मंच था, जहां बैंड की व्यवस्था की गयी थी। ज्यों ही पेड़ों के झुरमुट से कुछ लोग बाहर निकलकर मैदान के पास आते दिखायी दिये, त्योंही बैंड पर फौजी संगीत की फड़कती हुई धुन बजने लगी । पीतल के वाद्य-यंत्रों से निकलती हुई हंसती-मचलती धुन आस-पास के पेड़-पौधों से टकरा कर सारे जंगल में गूंज उठती थी, फिर दूर दिशा से आती हुई अपनी ही प्रतिध्वनि में लय हो जाती थी। ऐसा प्रतीत होता था मानो कहीं दूर एक दूसरा बैंड भी बज रहा है, जिसकी ध्वनि पहले बैंड से कभी आगे निकल जाती है, कभी पीछे रह जाती है। मंडप के चारों ओर अर्ध-चन्द्राकार में मेजें पड़ी थीं, जिनपर उज्जवल मेजपोश बिछे थे । बहुत से बैरे मेजों के इर्द-गिर्द चक्कर काट रहे थे। पिकनिक पर आए हुए लोगों की भीड़ मैदान में जमा हो गयी थी । बैंड के चुप होते ही उन्होंने बड़े उत्साह और हर्ष से करतल-ध्वनि की। उनकी खुशी का कारण भी था । आज वे जिस मैदान में खड़े थे, वह केवल पन्द्रह दिन पहले एक पहाड़ी स्थल था जहां झाड़ियां ही झाड़ियां मुंह उठाए खड़ी थीं। बैडं पर वॉल्ज (एक नृत्य-धुन ) की धुन बाजने लगी। स्वेजेवस्की नीना के साथ खड़ा था। बोबरोव ने देखा कि वह नीना से बिना अनुमति मांगे उसकी बगल में हाथ डालकर नाचता हुआ मैदान के चक्कर काटने लगा है। नाच के बाद स्वेजेवस्की ने नीना को अभी छोड़ा ही था कि धातु-विज्ञान का एक विद्यार्थी उसके संग नाचने के लिए आगे बढ़ पाया । उसके बाद कोई और व्यक्ति नीना का साथी बना । बोबरोव को नाच में कभी दिलचस्पी नहीं रही और न ही उसे अच्छी तरह नाचना पाता था। किन्तु सहसा उसने सोचा कि वह नीना को 'क्वाडरिल'' नृत्य के लिये आमंत्रित करे । उदासीनता का कारण पूछने का यह अच्छा अवसर रहेगा," उसने मन-ही-मन सोचा। नीना दो बार नाचकर थक सी गयी थी और अपने चेहरे पर पंखा कर रही थी । बोबरोव उसके पास आकर खड़ा हो गया । " उसकी
( "नीना ग्रिगोरयेवना, मैं आशा करता हूं कि 'क्वाडरिल' तुम मेरे संग ही नाचोगी ?" "लेकिन देखो कितनी बुरी बात है ... मुझे क्या पता था ... 'क्वाडरिल' के लिए तो मैं पहले से ही वचन दे चुकी हूं।" उसने बिना. बोबरोव की ओर देखे उत्तर दिया । 'वचन दे चुकी हो ? इतनी जल्दी ?" बोबरोव का स्वर भर्रा उठा । 'वेशक," उसके स्वर में बेचैनी थी, हल्का सा व्यंग्य था । “तुम अब पूछने पाए --- इतनी देर से ? मैं तो गाड़ी में ही 'क्वाडरिल' नाचने के लिए किसी अन्य व्यक्ति की प्रार्थना स्वीकार कर चुकी हूं।" 'तुम्हें यह भी याद न रहा कि मैं भी तुम्हारे संग हूं !" बोबरोव ने उदास होकर पूछा। उसके स्वर ने नीना को एक बारगी झिंझोड़ दिया । वह किंकर्तव्यविमूढ़ सी बैठी रही- कभी पंखे को खोलती, कभी बन्द कर देती। किन्तु उसने अपना चेहरा ऊपर नहीं उठाया । 'कसूर तुम्हारा ही है । तुमने मुझ से पहले क्यों नहीं पूछा ?" " नीना ग्रिगोरयेवना, मैं पिकनिक पर पाने के लिए राजी हुआ था महज तुम्हारे लिए, केवल इसलिए कि मैं तुम्हारे संग रहना चाहता था। क्या जो कुछ तुमने मुझसे कहा था, वह सिर्फ मजाक था ?" नीना उद्भ्रान्त सी होकर अपने पंखे से उलझने लगी। इतने में एक नौजवान इंजीनियर भागता हुआ उसके पास आया और उसे इस विकट संकट से उबार ले गया । वह एकदम उठ खड़ी हुई और बिना बोबरोव को एक नजर देखे उसने अपना पतला हाथ, जो लम्बे सफेद दस्ताने से ढका था, उस इंजी- नियर के कंधे पर रख दिया । बोबरोव की प्रांखें उसका पीछा करती रहीं। नाच समाप्त हो जाने के बाद नीना मैदान के दूसरे छोर पर बैठ गयी। "शायद जानबूझ कर वह मुझ से अलग बैठी है," बोबरोव ने सोचा। उसे लगा मानो नीना उससे कतरा रही है, उससे आंखें चार होते ही मानो वह जमीन में गड़ जाती है, एक अजीब सा भय उसे ग्रस लेता है । ऊब और उदासी की पुरानी चिरपरिचित अनुभूति एक बार फिर बोबरोव के मन में घिर आयी। उसे अपने इर्द-गिर्द के लोगों के चेहरे भोंडे, दयनीय और हास्यास्पद से दीखने लगे । संगीत की लय-ताल उसके मस्तिष्क में पीड़ा- जनक रूप से प्रतिध्वनित हो रही थी। किन्तु अभी उसने आशा नहीं छोड़ी थी- अनेक संकल्पों-विकल्पों की शरण में जाकर वह मन को धीरज बंधा रहा था । " शायद वह मुझसे इसलिये नाराज है कि मैंने उसे फूल भेंट नहीं किये ... या मुझ जैसे उज्जड गंवार के संग वह शायद नाचना पसन्द नही करती ! उसकी यह नाराजगी सम्भवतः उचित ही है । लड़कियों के लिए इन छोटी-छोटी बातों का बहुत अधिक महत्व होता है। हमें चाहे ये बाते तुच्छ और नगण्य प्रतीत हों, किन्तु उनका तो सारा सुख-दुख, जीवन का आनन्द- उल्लास इन्हीं बातों पर निर्भर करता है। शाम घिर आयी। चीनी लाल टैनों से सारा मंडप प्रकाशमान हो उठा । किन्तु लालटेनों का प्रकाश इतना तेज नहीं था कि मैदान को रौशन कर सके । सहसा मैदान के दोनों तरफ से झाड़ियों में छिपे बिजली के दो बड़े-बड़े बल्ब जल उठे। उनके प्रखर प्रकाश से आंखें चौंधिया गईं और सारा मैदान पीली आभा में जगमगाने लगा। मैदान के चारों किनारों पर लगे पेड-पौधों की आकृतियां अंधकार के गर्भ से निकलकर स्पष्ट दिखायी देने लगीं। बल्बों के कृत्रिम प्रकाश में वृक्षों की झिलमिलाती निश्चल टेढ़ी-मेढ़ी शाखाओं को देखकर नाट्य- मंच पर लगे परदों पर अंकित रंग-बिरंगे प्राकृतिक-दृश्यों की याद आ जाती थी। उनके परे अधेरा अाकाश था, जिसकी पृष्ट-भूमि में भूरी-हरी धुंध में डूबे कुछ अन्य वृक्षों की नुकीली चोटियां दिखलायी दे जाती थीं। बैंड-संगीत के बावजूद स्तेपीय-मैदानों में बसने वाले झींगुरों की टर्र-टर्र बराबर सुनायी दे रही थी। उनके इस विचित्र कोरस गान को सुनकर ऐसा लगता था मानो ऊपर-नीचे, दायें-बायें- चारों दिशाओं से एक ही झींगुर की आवाज आ रही है। बॉल-नृत्य में भाग लेनेवाले स्त्री-पुरुषों के उत्साह की कोई सीमा न थी। एक नाच समाप्त नहीं होता कि दूसरा शुरू हो जाता। बैंड बजानेवालों को दम लेने की भी फुरसत नहीं थी। नृत्य, संगीत और परियों के देश जैसे उस स्वप्निल वातावरण ने स्त्रियों को मदहोश सा कर दिया था। चिरायते, सड़ते हुए पत्तों और प्रोस में भीगे पेड़-पौधों की खुशबू तथा हाल में कटी घास की दूर से आती हुई भीनी महक के साथ इत्र और पसीने से तर शरीरों की गंध धुलमिलकर विचित्र प्रभाव उत्पन्न कर रही थी। नाचनेवालों के हाथ के पंखों को देखकर लगता था मानो रंग-बिरंगे, सुन्दर पक्षियों ने उड़ने के लिए अपने पर फैला दिये हों। बातचीत का ऊंचा स्वर, हंसी-ठहाके, पैरों के नीचे मैदान की रेत की चर्र-मर्र- -सब आवाजें घुलमिलकर एक आकारहीन कोलाहल में डूब गयी थीं । जब कभी कुछ देर के लिए बैंड रुक जाता, तो ये आवाजें कुछ अधिक तेज और ऊंची सुनायी पड़तीं। बोबरोव की आंखें नीना पर जमी हुईं थीं। एक-दो बार तो वह नाचती हुई उसके इतने निकट से गुजरी कि उसकी पोशाक बोबरोव को छू गयी । यहां तक कि नीना की वेगवान गति से स्तब्ध हवा में उठती हुई थिरकन तक को उसने महसूस किया । नाचते समय उसका बायां हाथ अपने साथी के कंधे पर एक खूबसूरत अदा के साथ, कुछ विवश सा पड़ा रहता, और वह अपने सिर को इस अन्दाज में टेढ़ा कर लेती मानो वह उसे अपने साथी के कंधे पर टिका देगी। जब तब उसे नृत्य करती हुई नीना की तेज रफ्तार के कारण उड़ती हुई पोशाक के नीचे से पेटीकोट के सिरे पर लगी लेस की किनारी, काली जुराबों में ढका हुआ नन्हा सा पैर, पतला सा टखना और सुडौल, मुड़ी हुई पिण्डलियां दिखलाई दे जाते । ऐसे क्षणों में न जाने क्यों वह लज्जारक्त हो जाता और उसे उन सब दर्शकों पर क्रोध आने लगता जो नीना को उस समय देख रहे होते। नौ बज चुके थे। माजुर्का नृत्य प्रारम्भ हुा । स्वेजेवस्की, जो अब तक नीना के संग नाच रहा था, किसी अन्य व्यक्ति के साथ बातचीत में उलझ गया। नीना को मुक्ति मिली । संगीत की लय पर पांव थिरकाती हुई, अपने अव्यवस्थित, बिखरे बालों को दोनों हाथों से संभालती हुई वह ड्रेसिंग-रूम की अोर तेजी से चल पड़ी। मैदान के दूसरे छोर से बोवरोब ने उसे देखा और तेजी से कदम बढ़ाता हुआ ड्रेसिंग-रूम के दरवाजे के सामने आ कर खड़ा हो गया। पेवेलियन के पीछे लकड़ी के तख्तों से बना हुआ वह छोटा सा ड्रेसिंग-रूम घनी छाया में छिपा था। "जब तक नीना बाहर नहीं निकलेगी, मैं यहीं खड़ा रहूंगा। इस बार सब कुछ कहलवा कर ही उसे छेड़ गा।" बोबरोव ने निश्चय किया। उसका दिल धौंकनी की तरह धड़क रहा था। उसकी मुट्ठियां कसी हुई थीं और ठंडी अंगुलियां पसीने से तरबतर हो रही थीं। नीना पांच मिनट बाद बाहर आयी। बोवरोव अंधेरी छाया से निकलकर उसके सामने रास्ता रोककर खड़ा हो गया । नीना के मुंह से एक हल्की सी- चीख निकल पड़ी और वह हड़बड़ा कर पीछे हट गई। "नीना ग्रिगोरयेवना, तुम मुझे इस तरह तिलतिल' करके क्यों जला रही हो ?" बोबरोव के दोनों हाथ अभ्यर्थना की मुद्रा में एक दूसरे से जुड़ गये । " मुझे जो पीड़ा हो रही है, क्या तुम उससे बेखबर हो ? अाह, मैं समझ गया, तुम्हें मुझे सताने में ही आनन्द मिल रहा है । तुम इस वक्त भी मन-ही-मन मेरी खिल्ली उड़ा रही हो। " न मालूम तुम मुझ से क्या चाहते हो,” नीना का दर्पपूर्ण अहम् हुंकार उठा । " मैंने स्वप्न में भी तुम्हारी खिल्ली उड़ाने की बात नहीं सोची है।" उसकी खानदानी खूबियां सिर उठाने लगी थीं। अच्छा ?" बोबरोव के स्वर में गहरी निराशा थी । “ फिर आज तुम जिस अजीब ढंग से पेश आयी हो, उसका क्या कारण है ? "कैसा अजीब ढंग ?" " मेरे प्रति तुम्हारा व्यवहार इतना शुष्क हो चला है, मानो में कोई तुम्हारा दुश्मन हूं। मुझ से कतराती फिरती हो। लगता है मेरी उपस्थिति भी तुम्हें खटकती है। "तुम्हारी उपस्थिति से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता । "वह तो और भी बुरा है । मुझे लगता है कि तुममें कोई अत्यंत भयानक परिवर्तन आ गया है, जिसे मैं समझ नहीं पाता। नीना, आज तक मैं तुम्हारी सच्चाई और ईमानदारी पर विश्वास करता आया हूं। फिर आज क्यों तुम इतना बदल गयी हो ?. क्यों नहीं अपने दिल की बात साफ-साफ, बिना किसी लाग-लपेट के मुझ से कह देती ? मुझ से सच्ची बात कह दो, चाहे वह कितनी ही कड़वी क्यों न हो। अच्छा यही होगा कि मामला एक- बारगी निबट जाए। " कौन सा मामला निबटाना चाहते हो? तुम्हारी बात अबतक मेरे पल्ले नहीं पड़ी।" बोबरोव की कनपटियों में रक्त की गति भीषण-रूप से तीव्र हो गयी। उसने हताश होकर दोनों हाथों से अपना माथा पकड़ लिया । "तुम सब कुछ समझती हो और न समझने का बहाना कर रही हो ! क्या हमारे बीच कभी कुछ ऐसा नहीं रहा, जिमे हमें सुलझाना है, तय करना है ? प्यार-मुहब्बत के वे शब्द, जो एक प्रकार से हमारे प्रेम के सूचक थे, वे खूबसूरत लमहे, जब एक कोमल, स्निग्ध भावना की डोर ने हम दोनों को एक सूत्र में बांध दिया था -क्या वह सब तुम्हारे लिए कोई महत्व, कोई अर्थ नहीं रखते ? मैं जानता हूं तुम कहोगी कि मुझे गलतफहमी हो गयी है। हो सकता है तुम्हारी बात सही हो । किन्तु क्या तुम्हीं ने मुझ से पिकनिक पर आने के लिए नहीं कहा था, ताकि हम दोनों एक दूसरे से अकेले में, निर्विघ्नरूप से बातचीत कर सके ?" अचानक नीना के हृदय में उसके प्रति सहानुभूति उमड़ पड़ी। "ठीक है, मैंने तुमसे यहां आने के लिए कहा था," नीना ने धीरे से अपना सिर नीचे झुका कर कहा । "मैं तुमसे यह कहना चाह रही थी कि हमें सदा के लिए एक दूसरे से जुदा हो जाना चाहिये । बोबरोव को लगा मानो किसी ने अचानक उसकी छाती पर चूंसा मार दिया हो । उसके चेहरे पर फैलती हुई मुर्दनगी अंधेरे में भी नजर आ रही थी। "जुदा हो जाना चाहिए ?" बोबरोव ने छटपटाते हुए कहा । निगोरयेवना ! जुदाई ... जुदाई के शब्द हमेशा कठोर और कटु होते हैं .. उन्हें अपनी जुबान पर मत लामो।" नहीं, मुझे कहना ही होगा।" 'कहना ही होगा? "हां ... लेकिन यह सब मेरी इच्छा से नहीं हो रहा । " फिर किसकी इच्छा से हो रहा है ?" " "नीना "
" उन दोनों को किसी व्यक्ति की पदचाप सुनायी दी। नीना ने अंधेरे में अपनी आंखें फैला दी। " इनकी इच्छा से उसने दबे स्वर में उत्तर दिया । सामने अन्ना अफानास्येवना खड़ी थी। उसने बोबरोव और नीना को संदिग्ध दृष्टि से देखा, फिर अपनी लड़की का हाथ पकड़कर लताड़ते हुए स्वर में कहा, "तुम वहां से भाग क्यों आयीं नीना ? भला यह भी क्या तमाशा है कि यहां अंधेरे में खड़ी-खड़ी गप्पें हांक रही हो। मैं तुम्हें ढूंढते-ढूंढते परेशान हो गयीं।" फिर उसने बोबरोव की ओर उन्मुख होकर तेज-तर्रार आवाज में कहा, " और जहां तक आपकी बात है, श्रीमान्, अगर आप नाचना नहीं जानते या उसमें भाग नहीं लेना चाहते तो एक तरफ अलग खड़े रहिये । लड़कियों को अंधेरे में रोककर उनके संग काना फूसी करना आपको शोभा नहीं देता। आपको उसकी मान-मर्यादा का जरा तो ख्याल रखना चाहिए । वह नीना को अपने पीछे घसीटती हुई आगे बढ़ गयी । " मदाम, आप नाहक परेशान क्यों होती है ! आपकी सुपुत्री की मान- मर्यादा पर कोई हाथ नहीं डाल सकता !" बोबरोव जोर से चिल्लाया और ठहाका मार कर हंस पड़ा । उसकी यह हंसी इतनी विचित्र और कडुवाहट भरी थी कि दोनों मां-बेटी हात पीछे मुड़ कर उसकी ओर देखने लगीं। 'अब देखा तूने ... मैंने तुझसे कहा न था कि यह आदमी एकदम उज्जड़ गंवार है, जिसे शर्म-हया छू तक नहीं गयी?" अन्ना अफानास्येवना ने नीना का हाथ पकड़ कर खींचा । “तुम चाहे उसके मुंह पर थूक भी दो, फिर भी वह ही-ही करता रहेगा। अच्छा, देखो अब नाच शुरू होने वाला है । स्त्रियां अपने- अपने साथियों को चुन रही है।" उसका स्वर अब किंचित शान्त हो गया था । " क्वाशनिन के पास जानो और उसे नाच के लिए आमंत्रित करो । देखो, अभी- अभी खेल से फुरसत पाकर वह पेवेलियन के गलियारे में खड़ा है। जल्दी करो !" "लेकिन मां वह मुश्किल से तो चल पाता है, नाचेगा कैसे ?" "ज्यादा हुज्जत मत करो । जो मैं कह रही हूं, वही करो । एक जमाना था, जब मास्को के बेहतरीन नाचने वालों में उसकी गिनती होती थी। खैर, तुम पूछ तो लो ... वह तुम्हारे पूछने से ही खुश हो जायगा।" बोवरोव की आंखों के सामने अंधेरा सा छा गया। उसने देखा कि नीना फुर्ती से मैदान पार करती हुई क्वाशनिन के सामने जाकर खड़ी हो गयी थी। उसके होठों पर शोखी से भरी आकर्षक मुस्कान खेल रही थी, उसका सिर एक श्रोर ऐसे झुका था मानो वह मीठी याचना के डोर से क्वाशनिन को अपनी पोर खींच रहा हो । क्वाशनिन नीना की प्रार्थना सुनने के लिए तनिक आगे की ओर झुक गया । अचानक वह जोर से ठहाका मार कर हंस पड़ा और अस्वीकृति में ...अपना सिर हिलाने लगा । नीना काफी देर तक आग्रह करती रही, किन्तु क्वाश- निन अपनी बात पर अड़ा रहा । आखिर नीना खिन्न भाव से पीछे मुड़ने लगी। किन्तु उसी क्षण क्वाशनिन विजली की तेजी से लपक कर नीना के साथ हो लिया। इतने भारी डील-डौल का आदमी इतनी अधिक स्फूर्ति प्रदर्शित कर सकता है, यह एक अनोखी बात थी। नीना को रोक कर उसने अपने कंधों को इस तरह बिचकाया मानो कह रहा हो, “अच्छी बात है ... दूसरा कोई चारा भी तो नहीं ! बच्चों की बात तो रखनी ही पड़ती है !" उसने नीना की ओर अपना हाथ बढ़ा दिया । नाचते हुए जोड़ों के पांव सहसा रुक गये । सब लोग गहरे कौतूहल से इस नये जोड़े को देखने लगे । उन्हें यकीन था कि क्वाशनिन का ‘माजुर्का' में भाग लेना एक मजेदार और दिलचस्प नजारा होगा। क्वाशनिन क्षण भर निश्चल, बिना हिले-डुले बैंड-संगीत की प्रतीक्षा करता रहा, फिर अचानक एक अद्भुत गरिमा के साथ अपनी संगिनी की ओर मुड़ कर संगीत की ताल के साथ उसने अपना पहला कदम उठाया। उसकी प्रत्येक हरकत में अपना एक विशिष्ट गौरव था, एक गहरा आत्मविश्वास और विलक्षण दक्षता थी, जिसे देख कर कम-से-कम यह बात स्पष्ट हो जाती थी कि अपने जमाने में वह एक उत्कृष्ट नर्तक रहा होगा। गर्वीली, चुनौती भरी, विहसंती निगाहों से उसने नीना को देखा। संगीत की ताल पर नाचने के बजाय शुरू में वह एक लचकीली, किंचित लड़खड़ाती चाल से चल रहा था। उसे देखकर लगता था मानो उसकी ऊंचाई और उसका डील-डौल उसके लिए कोई बोझ या व्यवधान प्रस्तुत नहीं करते, उल्टे उसके व्यक्तित्व के गौरव और गरिमा को और अधिक बढ़ाने में योग देते हैं । मैदान के छोर पर पहुंच कर वह क्षण भर के लिए ठिठका, एड़ियां खटखटायीं, अपनी बाहों के सहारे नीना को घुमा लिया, और फिर अपनी मोटी टांगों पर नाचता हुआ मैदान के बीचोंबीच निकल गया । उसके चेहरे पर एक गर्वीली मुस्कान खेल रही थी। जब वह नीना को लेकर नाचता हुआ उस स्थान पर पहुंचा जहां से नृत्य प्रारम्भ हुआ था, तो एक बार फिर उसने नीना को एक चपल, कमनीय मुद्रा में चारों ओर तेजी से घुमाया। फिर सहसा उसे कुर्सी पर बिठा कर खुद उसके सम्मुख सिर झुकाकर खड़ा हो गया । स्त्रियों के झुंड ने उसे चारों ओर से घेर लिया। प्रत्येक स्त्री उसके संग नाचने के लिए अनुरोध करने लगी। किन्तु क्वाशनिन अर्से से नाचने का आदी न रहा था और अपनी इस चेष्टा से थक कर चूर हो गया था । वह हांफता और अपने रूमाल से पंखा झलता जा रहा था। " मुझे क्षमा करो... बूढ़ा आदमी ठहरा, नाचने की उम्र अब कहां रही है ... आइये अब कुछ खाया-पिया जाये।" क्वाशनिन जोर-जोर से सांस लेता हुआ हंस रहा था। ७३
लोग मेजों के इर्द-गिर्द इकट्ठा हो गये; कुर्सियों को खींचने-घसीटने की चर्र-मर्र अावाज हवा में फैलने लगी। बोबरोव मूर्तिवत उसी कोने में स्थिर, स्तब्ध सा खड़ा था, जहां नीना उसे छोड़ गयी थी। कभी वह आहत अभिमान से विक्षुब्ध हो उठता, तो कभी परवश घनीभूत पीड़ा उसे विकल बना देती। उसकी आंखों में आंसू नहीं थे, किन्तु उनमें एक तीखी सी जलन महसूस हो रही थी। उसे लगा मानो उसके गले में एक सूखा, कांटेदार गोला अटक गया है । संगीत की धुन पीड़ादायक एकरसता के साथ उसके मस्तिष्क में अब भी प्रति- ध्वनित हो रही थी। "अरे तुम यहां खड़े हो ? तुम्हारे लिए मैने कोना-कोना छान डाला," उसे अपनी वगल से डाक्टर की खुशी से भरी आवाज सुनायी दी। "अमा, इतनी देर कहां छिपे थे? मुझे तो पाते ही ताश खेलने के लिए घसीट ले गये। अभी-अभी वहां से छुटकारा पाकर आ रहा हूं। आनो, कुछ खा पी लें। मैंने अपने और तुम्हारे लिए दो कुर्सियां सुरक्षित करवा ली हैं, ताकि हम दोनों संग ही बैठ कर खा सकें। "तुम जाकर खा आओ, डॉक्टर ।" बोबरोव ने बड़ी कठिनता से उत्तर दिया । “अभी कुछ भी खाने की तबियत नहीं कर रही है ... मैं तुम्हारे संग नहीं आ सकूँगा।" "हूं ...तुम नहीं आ सकोगे ?" डॉक्टर बोबरोव के चेहरे को एक- टक निहारता रहा । लेकिन भाई, कुछ बात तो बतायो... इस तरह मुंह लटका कर क्यों खड़े हो ?" इस बार डॉक्टर का स्वर सहानुभूति से भरा था। "तुम जो कुछ भी कहो, मैं तुम्हें इस तरह अकेला नहीं छोडूंगा। चलो, अब ज्यादा बहस मत करो।" " तबियत बहुत घबरा रही है डाक्टर, जी बैठा जा रहा है।" बोबरोव ने धीरे से कहा। गोल्डबुर्ग बोबरोव को खींचते हुए अपने संग ले चला और वह यंत्रवत डॉक्टर के पीछे-पीछे चलने लगा। "पागल मत बनो, क्या इस तरह से जी कच्चा किया जाता है ? सारी बात को दिल से निकाल फेंको। 'प्रात्म-परीक्षा है यह तेरी, अथवा उर में कसक उठी है ? " डॉक्टर के मुंह से कविता की ये दो पंक्तियां निकल गयीं। बोबरोव के गले में हाथ डालकर वह स्नेह-भरी आंखों से उसकी ओर देखने लगा। "मेरे विचार में सब बीमारियों का केवल एक इलाज है : ' मेरे दोस्त वान्या, पायो पियें और पी कर मस्त हो जायें।' सच मानो, आज तो आन्द्रेयस के सग इतनी छक कर कोनियक पी है कि बस कुछ मत पूछो ! वह आदमी भी बिलकुल हरामी का पिल्ला है, पीता है, तो छोड़ने का नाम नहीं लेता । अरे, ७४
11 आदमी बनो भाई ! जानते हो, आन्द्रेयस हमेशा तुम्हारे बारे में पूछ-ताछ करता रहता है । अब अड़ो नहीं, चले पायो !" डॉक्टर बोबरोव को घसीटता हुआ पेवेलियन में ले गया। दोनों सट कर पास-पास बैठे । उसी मेज पर प्रान्द्रेयस भी बैठा था। वह दूर से ही बोबरोक को देख कर मुस्करा उठा था। अब उसने बोबरोव के लिए जगह बना दी और स्नेह से उसकी पीठ थपथपाने लगा । 'तुम्हें यहां देख कर मुझे बहुत खुशी हुई है। तुम अच्छे अादमी हो। सच कहता हूं, मैं तुम जैसे आदमियों को बहुत पसन्द करता हूं। कोनियक पियोगे ?" वह नशे में धुत था। उसका चेहरा असाधारण रूप से पीला था और पथरायी सी आखों में एक विचित्र चमक थी। यह बात छः महीने बाद पता चली कि यह गम्भीर, मेहनती और प्रतिभावान व्यक्ति हर शाम अपने कमरे के निपट एकांत में बैठ कर तब तक शराब पिये जाता है, जब तक वह पूरी तरह संज्ञाहीन नहीं हो जाता। " शायद थोड़ी पी लूं तो जी कुछ हल्का हो जाय ? कम-से-कम कोशिश तो कर ही देखू !" बोबरोव ने सोचा । आन्द्रेयस बोतल टेढ़ी किये उसके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा था। बोबरोव ने बोतल के नीचे एक गिलास सरका दिया । 'क्या गिलास में पियोगे ?" अान्द्रेयस की भौहें मानो विस्मय में फैल गयीं। "हां," बोबरोव ने उत्तर दिया । उससे होठों पर भीगी सी विषादपूर्ण मुस्कराहट सिमट आयी। "कितनी डालूं ?" 'जितनी गिलास में आ सके।" "वाह रे मेरे दोस्त ! जान पड़ता है कि तुम स्वीडन की नौ-सेना में काम कर चुके हो । बस करू या और ?" " डालते जानो।" " अरे भई, होश करो, यह कोनियक ऐसी-वैसी नहीं है, वी. पी. बांड है- असली, तेज और पुरानी शराब !" "फिक्र मत करो -डालते जाओ।" "पी कर नशे में धुत भी हो जाऊं, तो किसी का क्या बिगड़ेगा नीना भी तो जरा देखे !" उसने सोचा । उसके हृदय में प्रात्म-उत्पीड़न का भाव उमड़ पड़ा। एस. ओ. " गिलास लवालब भर गया । बोवरोव ने एक ही धूंट में गिलास खाली कर दिया । आन्द्रेयस, जो बोतल को मेज पर रख कर कौतूहल भरी दृष्टि से बोबरोव को देख रहा था, अचानक कांप उठा। "बेटा, लगता है कोई बात तुम्हें घुन की तरह खाये जा रही है। क्यों, ठीक है न ? " अान्द्रेयस का स्वर सहानुभूति से ओत-प्रोत था । वह बड़े गौर से बोवरोव की आंखों को देख रहा था। "हां," वोवरोव ने खिन्न मुद्रा में सिर हिला दिया। 'दिल में कोई चीज चुभती रहती है क्या ? हां । "हूं ... यह बात है ! फिर तो भाई तुम्हें शायद और जरूरत पड़ेगी।" 'गिलास भर दो।" बोबरोब का स्वर एकदम निरीह सा हो आया । कोनियक पीते हुए उसे उबकाई सी आ रही थी, किन्तु अपनी पीड़ा को दवाने के लिए वह गिलास-पर-गिलास चढाये जा रहा था । विचित्र बात यह थी कि शराब का उस पर कोई असर नहीं हो रहा था । उलटे उसकी उदासी और अधिक धनी, गहरी होती गयी और उसकी आंखें गर्म अांसुओं से जलने लगीं। वैरों ने गिलासों को शैम्पेन से भरना शुरू कर दिया था। क्वाश निन दो अंगुलियों से गिलास को पकड़ कर कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और गिलास के शैम्पेन के बीच में से शमादान की रोशनी को देखने लगा। चारों ओर निस्तब्धता छा गयी। पार्क लैंपों की बत्तियों की सर्र-सरी और झींगुरों के अनवरत गुंजन के अतिरिक्त और कुछ भी सुनायी नहीं देता था। क्वाश निन ने खंखार कर गला साफ किया । 'महानुभावो, महिलाप्रो !" यह कह कर वह कुछ देर के लिए चुप हो रहा। यह चुप्पी भी लोगों को प्रभावित करने की एक अदा थी। "आप मुझ पर विश्वास करें कि यह जाम पीते हुए मेरे मन में आपके प्रति कृतज्ञता की भावना 'उमड़ रही है। इवानकोवो में आप लोगों ने मेरा जो भव्य स्वागत किया, उसे मैं कभी नहीं भूलूंगा। आज रात को पिकनिक ~~ जिसकी सफलता का बहुत बड़ा श्रेय उन महिलाओं को है, जिन्होंने यहां आने का कष्ट किया है - मेरे जीवन में चिरस्मरणीय रहेगी। मैं यह जाम उपस्थित महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए उठाता हूं !" उसने गिलास घुमाकर हवा में अर्ध-वृत्त सा खीच दिया और फिर उसे मुंह के पास ले पाया। एक छोटा सा चूंट पीकर उसने अपना भाषण शुरू किया। इस अवसर पर मैं कुछ बातें अपने साथियों और सहयोगियों से भी कहना चाहूंगा । अगर मेरी बातों से लेक्चर की गन्ध आने लगे, तो आप बुरा न 11 ७६
था " मानइगा। आप लोगों की अपेक्षा मेरी उम्र काफी पक गयी है, एक बूढ़े आदमी को कम-से-कम लेक्चर देने की छूट तो आप को देनी ही चाहिए !" " उस मक्कार स्वेजेवस्की को तो जरा देखो, कैसा मुंह बना रहा है । आन्द्रेयस बोबरोव के कान में धीरे में फुसफुसाया। स्वेजेवस्की गहरी भक्ति और श्रद्धा भाव से क्वाशनिन की ओर ताक रहा - मानो क्वाशनिन के मुंह से शब्दों के बदले मोती झर रहे हों। जब क्वाशनिन ने अपने बुढ़ापे का जिक्र किया, तो स्वेजेवस्की ने बड़े जोरों से अपना सिर और हाथ हिला कर असहमति प्रकट की। 'मैं एक बहुत पुरानी और घिसी-पिटी बात कहने जा रहा हूं-जो आप लोगों ने अक्सर अखबारों के संपादकीय लेखों में पढ़ी होगी। " ववाशनिन ने अपना भाषण जारी रखते हुए कहा । "हमें अपना झंडा हमेशा ऊंचा रखना चाहिये। हम धरती के सर्वोत्तम रत्न है, भविष्य हमारा है। यह एक ऐसा निर्विवाद सत्य है, जिसे हमें कभी नहीं भूलना चाहिये। सारी पृथ्वी पर रेलों का जाल बिछाने का श्रेय क्या हमें नहीं जाता? क्या हमने धरती के गर्भ में निहित अमूल्य निधियों को बाहर निकालकर उन्हें बन्दूकों, इंजनों, रेल की पटरियों, पुलों और वृहतकाय मशीनों में परिणत नहीं कर दिया ? हमने जिन विशाल, दुर्गम उद्योगों को प्रारम्भ करके करोड़ों रूबलों की पूंजी का निर्माण किया है, क्या प्रौद्योगिक प्रगति के लिये वह कम महत्वपूर्ण वात है ? सज्जनो और महिलाओ, प्रकृति अपनी समूची सृजनात्मक शक्ति को एक राष्ट्र का निर्माण करने में केवल इसलिये लगाती है कि उसमें से एक-दो दर्जन ऐसे व्यक्ति निकल सकें, जो असाधारण, विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न हों। इसलिये महानुभावो और महिलाओ! हमें अपने में इतना साहस और शक्ति उत्पन्न करनी चाहिये कि हम भी इन असाधारण पुरुपों की कोटि में अपने को शामिल कर सके !" "हुर्रा !" सब लोग एक-कंठ से चिल्लाए । स्वेजेवस्की का स्वर सबसे ऊंचा था। एक-एक करके सब लोग उठने लगे। उनमें से हर व्यक्ति यह चाहता था कि वह जल्द-से-जल्द क्वाशनिन के पास पहुंचकर उसके गिलास से अपना गिलास खनखना सके। 'इससे बढ़कर और निंदनीय भाषण क्या होगा ?" डॉक्टर ने दबे होंठों से कहा । अगला वक्ता शेलकोवनिकोव था । " महानुभावो और महिलामो !" वह जोर से चिल्लाया। " यह जाम हमारे आदरणीय संरक्षक, प्रिय गुरु और इस समय हमारे मेजबान-वासिली तेरन्त्येविच ववाशनिन के स्वास्थ्य के लिये है !'
हुर्रा !"
"हुर्रा !" उपस्थित श्रोतागण एक साथ जोर से चिल्लाए और एक बार फिर क्वाशनिन की ओर लपके, ताकि उसके गिलास से अपना गिलास खनखना सकें। फिर तो धुआंधार भाषण दिये जाने लगे । उद्योग की सफलता, अनुपस्थित भागीदारों, पिकनिक में उपस्थित महिलाओं और सामान्य रूप से सब महिलाओं के नाम पर जाम पिये जाने लगे। कुछ जामों को पीने से पूर्व ऐसे अस्पष्ट संकेत भी किये गये, जिनसे अश्लीलता की गन्ध आती थी। एक दर्जन के करीव शैम्पेन की बोतलें खोली जा चुकी थीं। लोगों पर नशे का रंग चढ़ने लगा । पेवेलियन ऊंची-नीची आवाजों के कोलाहल से गूंजने लगा। हर व्यक्ति को जाम उठाने से पूर्व चाकू से देर तक गिलास खटखटाना पड़ता था, ताकि वह अपने भाषण के प्रति लोगों का ध्यान आकर्षित कर सके। एक अलग मेज पर खूबसूरत जवान मिलर चांदी के एक बड़े प्याले में विभिन्न मदिराएं मिला 'काकटेल' तैयार कर रहा था। सहसा क्वाशनिन अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुा । उसके होठों पर एक भेद-भरी मुस्कान खेल रही थी। महानुभावो और महिलाओ ! आज रात इस समारोह के अवसर पर मैं एक खुशखबरी की घोषणा करना चाहता हूं।" उसकी भाव-मुद्रा से शिष्टाचार की आकर्षक मधुरिमा टपक रही थी। आज के दिन नीना ग्रिगोरयेवना जिनेन्को की शादी ..." क्वाशनिन बीच में हकलाने लगा। वह स्वेजेवस्की का नाम और पितृ-नाम भूल गया था। " हमारे साथी श्री स्वेजेवस्की के संग होनी निश्चित हुई है। आइए, इस शुभ अवसर पर हम दोनों के स्वास्थ्य के लिए जाम उठाएं और उन्हें अपनी सदभावनाएं और बधाइयां भेट करें।" इस सर्वथा अप्रत्याशित समाचार को सुनकर लोग हैरत में पड़ गये और जोर-जोर से करतल-ध्वनि करने लगे। प्रान्द्र यस को लगा मानो उसके पास बैठे हुए किसी व्यक्ति ने एक गहरा दर्द भरा उच्छवास छोड़ा हो। उसकी आंखें अचानक वोबरोव पर टिक गयीं। बोबरोव का चेहरा घनीभूत मर्मान्तक पीड़ा से विकृत हो गया था। "प्यारे साथी, तुम सारी कहानी नहीं जानते," आन्द्रे यस ने दबे होठों से कहा । " जरा मेरा भाषण ध्यान से सुनना, प्रांखें खुल जाएंगी। एक गहरे आत्मविश्वास के साथ वह कुर्सी पीछे धकेल कर खड़ा हो गया। मेज पर झटका लगने से उसके गिलास की आधी शराब नीचे छलक आयी। 'महानुभावो और महिलाओ !” उसने ऊंची आवाज में बोलना शुरू किया । "ऐसा जान पड़ता है कि हमारे मेजबान ने विवेकपूर्ण उदारता के कारण कुछ बातें अनकही छोड़ दी है। हमें अपने प्रिय साथी श्री स्वेजेवस्की को उनकी तरक्की पर बधाई देनी चाहिये। अगले महीने से वह कम्पनी के ७८
" संचालक-मंडल के व्यापार-मैनेजर के उच्च पद को सुशोभित करेगे। माननीय वसिली तेरन्त्येविच की ओर से विवाह के शुभ अवसर पर यह पद नव-दम्पत्ति को उपहार-स्वरूप भेंट किया जाएगा । आदरणीय संरक्षक के चेहरे को देखकर मुझे लगता है कि वह मेरी इस घोषणा से अप्रसन्न हो गये हैं । शायद वह इस बात को अन्त तक गुप्त रखना चाहते थे ताकि ऐन मौके पर श्री स्वेजेवस्की की नियुक्ति की घोषणा करके वह आप लोगों को चकित करने का आनन्द उठा सकें । मुझे अपनी इस भूल पर खेद है और मैं उनसे क्षमा मांगे लेता हूं। किन्तु श्री स्वेजेवस्की के प्रति मेरे मन में मित्रता और सम्मान की गहरी भावना है । इसलिए यह उचित ही होगा यदि इस अवसर पर मैं यह आशा प्रकट करू कि जिस प्रकार यहां उन्होंने एक सक्षम कार्यकर्ता और हितैषी मित्र के गुण हमारे सम्मुख प्रदर्शित किये हैं, उसी प्रकार पीटर्सबर्ग के इस नये पद पर वह अपने गुणों से दूसरों को प्रभावित कर सकेगे। किन्तु सज्जनो और महिलाओ, मैं यह भी जानता हूं कि आप में से कोई भी व्यक्ति श्री स्वेजेवस्की के सौभाग्य पर ईर्ष्या नहीं करेगा।" आन्द्रेयस ने स्वेजेवस्की पर एक व्यंग्यात्मक दृष्टि फेंकी और कहता गया, “क्योंकि उनके प्रति अपनी शुभकामनाएं प्रकट करते हुए हमें इतना हर्ष हो रहा है कि ... किन्तु उसी समय घोड़े की टापों की आवाज सुनायी दी। आन्द्रेयस का भाषण बीच में ही रुक गया । वृक्षों के पीछे से घोड़े पर सवार एक व्यक्ति प्रकट हुआ, जिसका सिर नंगा था और चेहरे पर गहरे अातंक की छाप थी। घोड़े का मुंह झाग से लथपथ था । मैदान के बीच में थकान से थर-थर कांपते घोड़े से नीचे उतरकर वह व्यक्ति दौड़ता हुआ क्वाशनिन के पास पहुंचा और उसके कान में कुछ कहने लगा। वह एक फोरमैन था जो ठेकेदार देखतेरेव के अधीन काम किया करता था। पेवेलियन में अचानक मरघट का सा मौन छा गया। केवल लालटेनों की बत्तियों की सरसराहट और झींगुरों के टर्राने की बेतुकी आवाज सुनाई पड़ रही थी। क्वाशनिन का चेहरा, जो अधिक शराब पीने के कारण लाल हो गया था, अचानक पीला पड़ गया। उसने कांपते हाथों से गिलास मेज पर रख दिया शराब की कुछ बूंदें मेजपोश पर छलक पायीं। और बेल्जियन लोग क्या कर रहे है ? उसने रु'धे स्वर से पूछा । फोरमैन ने अपना सर हिलाया और एक बार फिर क्वाशनिन के कानों में कुछ फुसफुसाने लगा। सब सत्यानाश कर दिया !" क्वाशनिन चीख उठा। वह कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और अपने हाथों से नेपकिन को मसलने लगा। 'कैसी खुराफात है। जरा ठहरो, गवर्नर को फौरन एक तार देना होगा। सज्जनो और महिलामो !" उसने ऊंची, कांपती हुई आवाज में कहा, "मिल 1 " 11
में फसाद हो गया है। हमें तुरन्त कोई कार्रवाई करनी होगी। मेरे विचार में हमें फौरन यहां से चल देना चाहिये ।" " मैं जानता था कि एक दिन जरूर कुछ-न-कुछ हो कर रहेगा,” अान्द्रेयस ने स्थिर, प्रकृतस्थ भाव से कहा । किन्तु उसकी शान्त मुद्रा के पीछे घृणा और क्रोध की भावना छिपी थी। लोग बेचैनी और घबड़ाहट में इधर-उधर भागने लगे। किन्तु आन्द्रेयस उनके प्रति सर्वथा उदासीन था। उसने धीरे से एक नया सिगार निकाला, अपने गिलास को कोनियक से भर लिया और जेब में हाथ डालकर दियासलाई की डब्बी टटोलने लगा । ग्यारह चारों ओर भगदड़ मची हुई थी। पेवेलियन की भीड़ में लोग एक-दूसरे को धकेलते, घसीटते, चीखते-चिल्लाते, गिरी हुई कुर्सियों से टकराते बेतहाशा भागे जा रहे थे । स्त्रियां कांपते हाथों से जल्दी-जल्दी अपने हैट पहन रही थीं। न जाने क्यों, किसी ने बिजली के बल्बों को बुझाने का आदेश दे दिया था, जिससे और भी ज्यादा खलबली मच गयी थी। स्त्रियों की बदहवास, घबड़ायी हुई चीखें बार-बार अंधेरे पे गूंज उठती थीं। लगभग पांच बजे होंगे। अभी सूर्योदय नहीं हुआ था, किन्तु आकाश का रंग काफी फीका पड़ गया था। उसके भूरे, मटियाले रंग को देखकर बारिश के आसार नजर आते थे । विद्युत प्रकाश के बाद सहसा सुबह के धुंधले उजले- पन में आदमियों की यह भगदड़ और कोलाहल और भी अधिक भयावह और कुछ-कुछ अवास्तविक से जान पड़ते थे। आदमियों की चलती-फिरती आकृ. तियों को देखकर लगता था मानो किसी भयावह पैशाचिक परी-देश की प्रेत-छायाएं विचर रही है । रात भर जागते रहने के कारण सबके चेहरे इतने अधिक मुरझा गये थे कि उन्हें देखकर दिल कांप उठता था । खाने की मेज पर शराब के धब्बों और चारों ओर बिखरी हुई तश्तरियों, गिलासों और बोतलों को देखकर लगता था मानो राक्षसों द्वारा आयोजित किसी विराट भोज को किसी ने अचानक बीच में ही भंग कर दिया हो। बग्गियों के इर्द-गिर्द जो गड़बड़ हो रही थी, वह तो और भी ज्यादा खौफनाक थी। भयभीत घोड़े जोर-जोर से हिनहिना रहे थे, दुलत्तियां झाड़ रहे थे और लगाम छुड़ाकर काबू से बाहर हुए जा रहे थे। दूसरी तरफ बग्गियों का बुरा हाल था- - पहिये आपस में उलझ कर टूट रहे थे। इंजीनियर अपने- अपने कोचवानों को बुला रहे थे, किन्तु कोचवानों को आपस में लड़ने-झगड़ने ८०
। से ही फुरसत नहीं थी। यह एक ऐसा भयंकर दृश्य था, जिसे देखकर लगता था मानो रात के समय अचानक उस स्थान पर बड़ी भारी आग लग गयी इतने में शोर और कोलाहल चीरती हुई एक चीख सुनायी दी- शायद कोई पहियों के नीचे दब गया था अथवा धक्कम-धक्का में कोई आदमी कुचल कर मर गया था। इस भीड़-भड़क्कम में बोवरोव को मित्रोफान कहीं न दिखायी पड़ा। एक-दो बार उसे लगा था कि गाड़ियों के अपार समूह में से वह उसे तुला रहा है, किन्तु वीच का रास्ता, जो वग्गियों और लोगों की भीड़ से अटा पड़ा था, पार करके मित्रोफान तक पहुंचना उसके लिए असम्भव था । अचानक भीड़ के ऊपर अंधेरे में एक मशाल दिखलायी दी। सड़क के दोनों ओर से आवाजें सुनायी देने लगी : " एक तरफ हो जाइए बहिन जी ! रास्ता छोड़िए, महानुभावो !" पीछे से भीड़ का एक जबरदस्त मेला आया और वोबरोब को धकेलता हुआ आगे की ओर ले गया । बोबरोव के पांव जमीन से उखड़ गये और वह बड़ी मुश्किल से अपने को गिरने से बचा पाया । जब वह कुछ संभला तो उसने देखा कि वह दो बग्गियों के बीच फंस गया है। उसने अपनी आंखें ऊपर उठायीं। सामने चौड़ी सड़क खाली पड़ी थी और गाड़ियां दोनों तरफ किनारों पर सिमट आयी थीं। बीच सड़क पर क्वाशनिन की बग्गी चली जा रही थी। बग्गी के ऊपर मशाल की ज्वाला का जगमगाता रक्तिम भालोक क्वाशनिन के भारी-भरकम शरीर पर पड़ रहा था। भीड़ के लोग, एक-दूसरे को धकेलते ठेलते, भय, पीड़ा और क्रोध से चिल्लाते हुए क्वाशनिन की बग्गी के पीछे भाग रहे थे । वोबरोव की कनपटियां फड़कने लगीं । उसे लगा मानो बग्गी में क्वाशनिन के स्थान पर प्राचीन काल के किसी भीमकाय, भयंकर, रक्तरंजित देवता की मूर्ति विराजमान है, जिसके रथ के नीचे धार्मिक जलूसों के दौरान में धर्मोन्मादित लोग अपने-आपको न्योछावर कर देते हैं। वोबरोव का समूचा शरीर असहाय क्रोध से थरथर कांप उठा। क्वाशनिन के जाने के बाद भीड़ का जोर कुछ कम हुा । बोबरोव ने पीछे मुड़कर देखा कि उसकी अपनी फिटन की बल्ली ही उसकी पीठ पर चुभ रही थी। उसका कोचवान मित्रोफान फिटन की अगली सीट के पास खड़ा मशाल जला रहा था । 'मित्रोफान ! झटपट मिल की तरफ चलो!" बोबरोव जोर से चिल्लाया और उछलकर फिटन में बैठ गया। " हमें दस मिनट में वहां पहुंच जाना चाहिए। समझ गये ?" 'जी, हजूर," मित्रोफान ने अनमने भाव से उत्तर दिया । ( क ६ ८१
" वह नीचे उतर गया और फिटन का चक्कर काटकर दूसरी तरफ चला आया। हर मर्यादाशील कोचवान की तरह वह हमेशा दाहिने दरवाजे से ही बग्गी में घुसा करता था। घोड़ों की लगाम हाथ में पकड़ते हुए उसने कहा: 'अगर घोड़े मर-मरा जाएं मालिक, तो मुझे दोप मत दीजियेगा।" "कोई परवाह नहीं ... जरा जल्दी करो।" मित्रोफान बग्गियों और घोड़ों की भीड़ में रास्ता बनाता हुआ बड़ी मावधानी और कठिनता से धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा । घोड़े नागे भागने के लिए बेचैन थे। आखिर जंगल की पगडंडी पर आते ही उसने लगाम ढीली छोड़ दी। खुली छूट मिलते ही घोड़े सरपट दौड़ने लगे । ऊबड़-खाबड़ सड़क पर झाड़-झकाड़ उग आए थे, जिसके कारण वगी कभी दायीं तो कभी बायीं ओर डोलने लगती थी । मुसाफिर और कोचवान- दोनों को ही झटके लगते थे और उन्हें बार-बार अपना सन्तुलन कायम रखना पड़ता था। मशाल की रक्तिम ज्वाला सिरी-सिरी करती हवा में कांप रही थी। पेड़ों की लम्बी, विकृत छायाएं मशाल के आलोक में बग्गी के इर्द-गिर्द नाच उठती थीं। ऐसा जान पड़ता था मानो भूत-प्रेतों की लम्बी, पतली छायानों का दल बग्गी के साथ-साथ विचित्र, बेढंगी नृत्य-मुद्राएं बनाता, नाचता हुआ दौड़ा चला जा रहा है। कभी-कभी ये प्रेत-छायाएं विशालकाय रूप धारण करती हुईं घोड़ों से आगे बढ़ जाती थी, किन्तु कुछ ही क्षण बाद उनका वृहत् आकार धरती पर झुकता हुआ सिकुड़ने लगता था और वे तेजी से बोबरोव के पीछे खिसकती हुई अंधकार में विलीन हो जाती थीं; कुछ क्षणों के लिए उनकी आकृतियां आस-पास की झाड़ियों पर नाचने लगतीं, फिर एकदम झाड़ियों से उतर कर वग्गी के बिलकुल निकट फुदक आती; कभी-कभी वे एक लम्बी पांत बनाकर डोलते, डगमगाते पैरों पर बग्गी के साथ धीरे-धीरे खिसकने लगतीं, मानो आपस में दबे स्वरों में बातचीत करती हुई चली आ रही हों। अनेक वार, सड़क के दोनों ओर लगी हुई घनी झाड़ियों की वाहर को निकली हुई टहनियां, लम्बे पतले हाथों के समान झपटकर मित्रोफान और बोबरोव के चेहरों पर थप्पड़ जमाती हुई निकल जाती। आखिर वे लोग जंगल' के बाहर निकल आये । घोड़े गंदले पानी के एक पोखर को छप-छप करते हुए पार करने लगे। पोखर के पानी में मशाल की रक्तिम ज्वाला का प्रतिबिंब कभी लहरों के साथ उछलता तो कभी छितरकर बिखर जाता । पोखर पीछे छूट गया। अचानक घोड़े चौकड़ी भरते हुए बग्गी को एक ऊंचे टीले पर खींच लाए । सामने एक भयावह, काला मैदान फैला हुआ था। "मित्रोफान, जरा और तेज, वरना हम वक्त से न पहुंच पाएंगे !" बोबरोव अधीर होकर चिल्लाया, यद्यपि बग्गी पूरी रफ्तार से सरपट भागी जा ८२
" रही थी। मित्रोफान अपनी दनदनाती अावाज में बुड़बुड़ाया और फेयरवे पर, जो साथ-साथ चौकड़ी भरता हुआ दौड़ रहा था, सड़ाक से चाबुक जमा दी । मित्रोफान समझ नहीं पा रहा था कि उसका मालिक, जो अपने घोड़ों को जी- जान से प्यार किया करता था, आज क्यों उनकी जान लेने पर तुला हुआ है। एक भयंकर आग की लपटों की अरुण आभा दूर क्षितिज पर तिरते बादलों को अपनी लालिमा से रंग रही थी। रक्त-रंजित आकाश को देख कर वोबरोव की आंखें क्रूर अट्टाहास में चमकने लगीं। अब कोई गलतफहमी बाकी नहीं रह गयी थी । अान्द्रेयस ने जाम पेश करते हुए जो भाषण दिया था, उसने उसके तमाम भ्रमों को बड़ी निर्दयता से चूर-चूर कर दिया था और उसकी आंखे खुल गयी थीं। उसके प्रति नीना का रूखा उदासीन भाव, माजुर्का-नृत्य के अवसर पर नीना की मां का उस पर आंखें तरेरना, क्वाशनिन के साथ स्वेजेवस्की की घनिष्टता-उसे अब इन सब पहेलियों का उत्तर मिल गया था। क्वाशनिन और नीना को लेकर मिल में जो अफवाहें उड़ी थीं, वे अब उसे याद आने लगीं। लाल बालों वाला राक्षस ! ठीक ही हुआ जो यह आग लगी !" वह गुस्से में दात पीसता हुआ बुड़बुड़ाया। उसके हृदय में क्रोध और पाहत आत्माभिमान की ऐसी प्रचण्ड ज्वाला धधक उठी कि उसका मुंह सूख चला । “अगर इस समय उससे मुलाकात हो जाय," बोबरोव ने सोचा, "तो बच्चू की सारी ढीटाई दूर कर दूं। बूढ़ा बदमाश कहीं का-जवान लड़कियों का मोल-तोल करता फिरता है ! आदमी नहीं है धूर्त । सोने की मोहरों से भरा गन्दा तोदिल थैला है ! अब कभी मिला तो उसके तांबे के मस्तक पर ऐसा धौल जमाऊं कि जिन्दगी भर के लिए यादगार छूट जाय ।" इतनी शराब पीने के बावजूद उसके होश-हवास गुम न हुए थे । वह अपने में एक अजीब, असाधारण-सी स्फूर्ति का अनुभव कर रहा था। कुछ कर गुजरने के लिए उसका मन उतावला हो रहा था। उसका समूचा शरीर पत्ते की तरह कांप रहा था, दांत किटकिटा रहे थे और एक ज्वरग्रस्त व्यक्ति के समान उसका उद्भ्रान्त मस्तिष्क अनर्गल विचारों के प्रवाह में वहने लगा था। वह कभी जोर- जोर से बुदबुदाने लगता, तो कभी कराह उठता, और कभी-कभी अपने आप ठहाका मार कर हंसने लगता था। उसकी तनी हुई मुट्ठियां खुद-ब-खुद उठ जाती थीं। " मालिक ! आप कुछ अस्वस्थ से दिखायी देते हैं। क्या यह बेहतर नहीं होगा कि घर जाकर आप आराम करें?" मित्रोफान ने डरते-डरते पूछा । बोबरोव गुस्से से तिलमिला उठा । चुप हो जा, गधे !" वह कर्कश आवाज में चिल्लाया। “बढ़े चल !" कुछ ही देर में वे एक टीले की चोटी पर पहुंच गये, जहां से उन्होंने देखा कि ८३
" दूधिया-गुलाबी धुएं ने सारी मिल को ढंक लिया था। उसके परे लकड़ी जमा करने का गोदाम आग की लपटों से घिरा हुआ धू-धू करके जल रहा था । प्राग की जगमगाती पृष्ठभूमि में छोटी-छोटी मानव आकृतियों की काली छायाएं इधर-उधर मंडरा रही थीं। सूखी लकड़ी के तड़-तड़ जलने की आवाज़ दूर से ही सुनायी दे जाती थी। एक क्षण के लिए उष्ण-पवन चूल्हों और भट्टियों की गोल बुर्जियां चमक जातीं और फिर अंधेरे में विलीन हो जाती। मिल के पास ही चौकोर तालाब के मटियाले जल में आग की लपलपाती लपटों का रक्तिम आलोक फैल गया था। तालाब के बांध पर लोगों की विशाल भीड़ कसमसाती हुई धीरे-धीरे आगे सरक रही थी। इस छोटे से, तंग, संकुचित स्थान में सिमटी विशाल भीड़ में से एक विचित्र, अस्पष्ट और भयावह गर्जना उठ रही थी, मानो कहीं दूर समुद्र की लहरें चट्टानों से टकरा रही हों । 'गाड़ी को इधर कहां हांक रहा है, बेवकूफ ! देखता नहीं, आगे कितना जमघट है, कुतिया के पिल्ले ?" सामने सड़क पर कोई चिल्लाया। अगले ही क्षण एक लम्बा दाढ़ीवाला आदमी इस तरह प्रकट हुआ, मानो घोड़ों के खुरों के नीचे से निकलकर आया हो उसके नंगे सिर पर चारों ओर सफेद पट्टियां बंधी थीं। बढ़ते जानो, मित्रोफान !" बोबरोव जोर से चिल्लाया। " मालिक, उन्होंने मिल' को आग लगा दी है," मित्रोफान का स्वर कांप रहा था। दूसरे ही क्षण पीछे से एक पत्थर सनसनाता हुआ पाया। बोबरोव को अपनी दाहिनी कनपटी के ऊपर गहरी पीड़ा अनुभव हुई । उसने अपनी कनपटी को छुया और हाथ उठाया तो देखा कि वह गर्म खून से लिसा हुआ था। बग्गी सरपट दौड़ती रही आग की रक्तिम आभा अधिक उज्ज्वल हो गई । घोड़ों की लम्बी छायाएं कभी सड़क के एक ओर तो कभी दूसरी ओर दौड़ती प्रतीत होती थीं; कभी-कभी बोबरोव को ऐसा महसूस होता था कि वह अंधाधुध एक ढलुवां सड़क पर फिसलता जा रहा है और पल दो पल में वह गाड़ी और घोड़ों समेत एक गहरी अंधेरी खाई में लुढ़क पड़ेगा। वह संज्ञा- हीन-सा अपनी सीट पर बैठा था। बग्गी जिस रास्ते से गुजर रही थी, उसे पहचान पाना भी उसके लिए कठिन हो रहा था। अचानक घोड़ों के पांव रुक गये । बग्गी ठहर गयी। रुक क्यों मये, मित्रोफान ?" उसने झंझलाकर पूछा। अब और आगे कैसे चलूं ? सारी सड़क तो लोगों से अटी पड़ी है !" मित्रोफान के स्वर से दबा क्रोध झलक रहा था। " ८४
बड़े भोर के झुटपुटे में वोबरोव को कुछ भी दिखायी नहीं दे रहा था, केवल सामने एक ऊंची-नीची सी काली दिवार खड़ी थी और ऊपर रक्तरंजित आकाश फैला था। 'ख्वामख्वाह क्यों बकते हो, कहां है लोगों की भीड़ ?" बोबरोव बग्गी से नीचे उतर कर घोड़ों के पास आ गया, जो झाग से लथपथ थे। घोड़ों को पीछे छोड़कर जब वह कुछ आगे बढ़ा तो उसने देखा कि जिसे वह अब तक काली दीवार समझे बैठा था, वह मजदूरों का एक विशाल हजूम था, जो सड़क पर चुपचाप धीरे-धीरे चला जा रहा था। बोबरोव भी लगभग पचास कदमों तक मजदूरों के पीछे-पीछे यंत्रवत् चलता रहा। फिर वह मित्रोफान को यह कहने के लिए पीछे मुड़ा कि वह मिल तक जाने के लिए बग्गी को किसी दूसरे रास्ते पर मोड़ ले । किन्तु बोबरोव ने वापिस आकर देखा कि मित्रोफान और घोड़ों का कहीं पता नहीं। बोबरोव समझ न पाया कि मित्रोफान उसे कहीं ढूंढने निकल गया या वह स्वयं रास्ते से भटक गया है। उसने कोचवान को दो-चार आवाजें दीं, किन्तु कोई उत्तर नहीं मिला। आखिर निराश होकर वह मजदूरों के जलूस में शामिल होने के लिए उसी दिशा में चल पड़ा। वह दूर तक उस सड़क पर चलता रहा, किन्तु मजदूरों का कहीं पता न चला । न जाने इतनी सी देर में वे कहां गायब हो गये थे ? मजदूरों के बजाय वह एक लकड़ी की नीची मेड़ से जा टकराया। उस मेड़ का कहीं अन्त न दिखाई देता था, न दायीं ओर, न बायीं ओर । बोबरोब उसे कूद कर पार कर गया और एक ऊंची पहाड़ी पर-जो लम्बी धनी घास से ढंकी हुई थी-चढ़ने लगा। उसके चेहरे पर ठंडे पसीने की धार बहने लगी और जुबान सूखकर काठ के टुकड़े की तरह ऐंठ गयी। हर सांस के साथ उसकी छाती में दर्द की एक लहर उमड़ पड़ती थी। उसके सिर की रक्त- नाड़ियां बहुत तेजी से स्पन्दित हो रही थीं। उसकी कनपटी के घाव में बुरी तरह दर्द हो रहा था। चढ़ाई का कोई ओर-छोर नजर नहीं आता था। चलते-चलते उसका क्लान्त-श्रान्त मन एक गहरी निराशा के बोझ के नीचे दबने लगा। किन्तु एक जिद थी, जो उसे आगे घसीटे ले जाती थी। वह बार-बार ठोकर खाता था, घुटने लहु-लुहान हो गये थे, फिर भी गिरता-पड़ता, कांटेदार झाड़ियों को पकड़ता हुआ वह चढ़ता जाता था । क्या यह सत्य है। अथवा मानसिक संताप के कुहरे में घिरा एक दुःस्वप्न, जहां वह एक ज्वरग्रस्त प्राणी की तरह भटक रहा है ? भयाकुल मन की कातरता, सड़क पर निरुद्देश्य भटकते रहना, अन्तहीन चढ़ाई-रात के डरावने सपनों की तरह यह सब कुछ कितना यातना- पूर्ण और अर्थहीन, भयावह और अप्रत्याशित था।" 16 ८५
आखिर चढ़ाई समाप्त हुई। बोबरोव ने अपने आपको रेलवे लाइन के सामने खड़ा पाया। दो दिन पहले इसी स्थान पर सुबह की प्रार्थना के अवसर पर फोटोग्राफर ने मिल के इंजीनियरों और मजदूरों की तसवीर खींची थी। थकामांदा बोबरोव रेल की पटरी की धरन पर बैठ गया। अचानक एक विचित्र सी अनुभूति उसके सारे शरीर को झिझोड़ गयी। उसके पांव थर-थर कांपने लगे, मानो किसी ने उनका सारा खून चूस लिया हो, छाती और पेट में सूइयां सी चुभने लगीं, गाल और माथा बर्फ के समान ठंडे हो गये। उसकी आंखों के सामने हर वस्तु धुंधली पड़ने लगी, उसे लगा मानो उसकी चेतना किसी अंधेरी खाई की अथाह गहराइयों में डूबती जा रही है । लगभग आध घंटे बाद उसे होश आयी। रेलवे लाइन के नीचे, जहां कारखाने की मशीनें दिन-रात दहाड़ा करती थीं, अब धनी, खौफनाक चुप्पी छायी हुई थी । वह बड़ी मुश्किल से अपनी टांगों पर खड़ा हो पाया और धीरे-. धीरे भट्टियों की दिशा में चलने लगा। उसका सिर इतना भारी हो गया था कि उसे सीधा रखना भी उसके लिए असह्य हो उठा था। हर कदम पर उसकी कनपटी का जख्म पीड़ा से जल उठता। जरूम पर हाथ रखते ही उसकी अंगुलियां गर्म खून से चिपचिपा उठीं । उसके मुंह और होठों पर भी खून लगा हुआ था, जिसका कसला, नमकीन स्वाद वह अपनी जुबान पर महसूस कर रहा था। होश पाने के बावजूद उसकी चेतना अभी पूरी तरह से वापिस नहीं लौटी थी। जब कभी वह बीती हुई घटनाओं को याद करने, उनका अर्थ समझने की चेष्टा करता, तो उसका सिर-दर्द और भी अधिक तेज हो जाता। एक उन्मत्त, लक्ष्यहीन क्रोध और अथाह, असीम विपाद उसकी आत्मा को सीलने लगा। सुबह होने में अब देर नहीं थी। चारों ओर-धरती, आकाश, छितरी हुई पीली घास और सड़क के दोनों ओर पत्थरों के बेडौल ढूह --- सभी एक ही मटमैली, सीलन भरी चादर-सी अोढ़े थे । बोबरोव मिल की सूनी, सुनसान इमारतों के इर्द-गिर्द कुछ बुदबुदाता हुआ निरुद्देश्य भटक रहा था। उसकी अवस्था उन लोगों से मिलती जुलती थी, जो किसी आकस्मिक मानसिक आघात के कारण अपने होश-हवास खो बैठते हैं और अनर्गल प्रलाप करने लगते हैं। बोवरोव अपने उलझे, विशृ'खलित विचारों को एक अर्थपूर्ण, निश्चित दिशा देने का भरसक प्रयत्न कर रहा था। देखो, मेरी तरफ देखो ! मुझसे यह दुख नहीं सहा जाता !" बोवरोव को लगा मानो वह अपनी समूची व्यथा उस अजनबी के सामने उंडेल देगा, जो कहीं उसके भीतर बैठा है, जो उसके व्यक्तित्व का अभिन्नतम अंग होने के बावजूद उससे अलग है। वह बार-बार उस अजनबी से उत्तेजित होकर पूछता है, " बतानो, अब मैं क्या करू ? कहाँ जाऊं ? मुझे कुछ नहीं सूझता, खुदा के वास्ते ८६
11 कुछ तो बोलो ! मैं कब तक इस तरह तड़पता रहूंगा ? नहीं, अब मैं बरदाश्त नहीं कर सकता । मैं खुद अपने को मारकर खत्म कर दूंगा। वस, तभी मेरी आत्मा को शान्ति मिलेगी ... 'नहीं. .तुम महज बातें बनाते हो, अपने को मारना इतना आसान नहीं है," बोबरोव की आत्मा की अतल गहराइयों के भीतर से उस 'अजनबी' का रूखा व्यंग्यात्मक स्वर सुनायी दिया। बोबरोव की तरह 'वह' भी जोर से बोल रहा था । " नाहक क्यों अपने को धोखा देते हो। तुम कमजोर और कायर हो, शारीरिक पीड़ा से डरते हो, अपने को मारकर तुम जीने के आनन्द से कभी अपने को वंचित नहीं कर पाओगे । सोचना तुम्हारा काम है, जिन्दगी भर तुम केवल सोचते ही रहोगे। "तो फिर मैं क्या करूं'... क्या अब कुछ भी नहीं हो सकता?" बोबरोव हाथ मसलता हुआ एक विक्षिप्त व्यक्ति की तरह बुड़बुड़ाने लगा। " नीना ... तुम कितनी पवित्र, कितनी कोमल हो... सारी दुनिया में केवल एक तुम्हीं थीं, जिसे मैं अपना समझता था... और फिर अचानक एकदम यह तुमने क्या कर दिया ? नीना, नीना ! तुम अपना यौवन, अपनी कुंवारी देह बेच डालने के लिये कैसे राजी हो गयीं ? छि: ! छि: !!" 'बस केवल जुत्रान हिलाना ही आता है ?" बोबरोव के भीतर दूसरे व्यक्ति ने उसे चिढ़ाते हुए कहा । " नाटकीय मुद्रा में रोनी सूरत बनाकर कब तक विलाप करते रहोगे ? अगर तुम सचमुच क्वाशनिन से इतनी घृणा करते हो तो जाकर उसका काम तमाम क्यों नहीं कर देते ?" " करूगा, जरूर करूगा!" बोबरोब गुस्से में मुट्ठियां चलाता हुआ जोर से चीख उठा । “अब वह ज्यादा देर तक अपनी गन्दी सांसों से नेक, ईमानदार लोगों की आत्माओं को दूपित नहीं कर सकेगा। मैं उसे जान से मार दूंगा। किन्तु दूसरे व्यक्ति ने उपहास भरे स्वर में ताना मारते हुए कहा- 'तुम यह सव कुछ नहीं करोगे। ऊपर से चाहे कितनी डींगें मार लो किन्तु तुम स्वयं अच्छी तरह से जानते हो कि क्वाशनिन का तुम बाल भी बांका नहीं कर सकोगे । तुममें साहस और संकल्प-शक्ति, दोनों का प्रभाव है । कल के दिन तुम एक कमजोर व्यक्ति की तरह फूंक-फूंक कर पांव रखना शुरू कर दोगे। आत्म-संघर्ष की इन भयावह घड़ियों के बीच कभी-कभी ऐसे क्षण भी आते थे, जब बोबरोव की चेतना लौट आती थी। चौंककर अपने चारों ओर विस्मित होकर देखने लगता और अपने मस्तिष्क पर जोर डालकर सोचने लगता कि वह इस अवस्था में वहां क्यों खड़ा है, कैसे उस स्थान पर वह अचानक श्रा पहुंचा, कौन सी चिन्ता उसे धुन की तरह खाए जा रही है.? फिर उसे याद आता कि वह कोई बड़ा असाधारण और महत्वपूर्ण काम करने के लिये यहां r "
प्राया था। किन्तु कौन सा काम ? वह अपनी स्मृति को कुरेदने लगता, किन्तु फिर भी जब कुछ याद न पाता तो एक गहरी, घनीभूत पीड़ा से उसका चेहरा विकृत हो जाता । चेतनावस्था के एक ऐसे क्षण में उसने देखा कि वह उस भट्टी के किनारे पर खड़ा है, जिसमें मजदूर कोयला झोंकते हैं। बिजली की तेजी से उसके मस्तिष्क में वे सब बातें कौंध गयों, जो हाल में ही उसने इसी भट्टी के किनारे पर खड़े होकर डॉक्टर से कहीं थीं। उसने भट्टी के नीचे झांका, किन्तु उसे एक भी मजदूर की शक्ल दिखायी न दी । वे सब भट्टी को खाली छोड़कर जा चुके थे। बॉयलर कब के ठंडे हो चुके थे। केवल दायीं और बायीं ओर के अन्तिम सिरों पर स्थित दो भट्टियों में अब भी बुझी-बुझी सी अांच सुलग रही थी। हठात बोबरोव के मस्तिष्क में एक विचित्र, बेतुका सा विचार दौड़ गया । वह भट्टी के किनारे पर बैठ गया, अपने दोनों पांव नीचे लटका लिये और जमीन पर दोनों हाथ टेककर नीचे कूद पड़ा। नीचे उतर कर उसने देखा कि पास ही कोयले के ढेर में एक फावड़ा फंसा हुआ है । उसने झट उसे खींच लिया और तेजी से दोनों भट्टियों के गढ़हों में कोयला झोंकने लगा। दो मिनट में ही भट्टी से आग की सफेद लपटें उठने लगी और बॉयलर का पानी उबलने लगा। बोबरोव फावड़े में कोयला भरकर भट्टी में झोंकता जाता था। उसके होठों पर एक रहस्यभरी मुसकान खिल गयी थी और वह किसी अदृश्य व्यक्ति को देखता हुआ सिर हिलाता जाता था। भट्टी में कोयला डालते हुए अक्सर उसके मुंह से विस्मय से भरे कुछ अनर्गल, अर्थहीन वाक्य निकल जाते थे। सड़क पर चलते हुए प्रतिहिंसा की जो भयंकर उन्मत्त भावना बार-बार उसे कचोट जाती थी, अब मौका पाकर उसने अपने लौह-पंजों में उसके मस्तिष्क को जकड़ लिया था। गर्म, उबलते हुए पानी से लबालब भरा विशाल बॉयलर आग की लपटों में चमक जाता था और एक जीवित प्राणी की तरह गुनगुनाने लगता था। उसे देखकर बोबरोव का मन एक तीखी घृणा से भर उठा । उसे लगा कि वह कुछ भी करने के लिये स्वतंत्र है- किसी की भी रोकटोक वहां नहीं है । माप-यंत्र में पानी तेजी से कम होता जा रहा था। वॉयलर की गड़गड़ाहट और भट्टियों का गर्जन-तर्जन उत्तरोत्तर अधिक तीव्र और भयंकर बनता जा रहा था । किन्तु कुछ ही देर में बोबरोव का तन थकान के मारे टूटने सा लगा। शारीरिक श्रम से अनभ्यस्त उसकी देह हताश सी हो गयी। उसकी कनपटियों की नाड़ियां धुक-धुक करती हुई तीव्र गति से स्पन्दित होने लगीं। कनपटी के धाव से खून रिसता हुआ उसकी गाल पर टपकने लगा। कुछ देर पहले पाशविक-
शक्ति की जिस उन्मत्त बाढ़ ने उसे निचोड़ डाला था, अव उसका प्रवाह धीमा पड़ने लगा। उसके भीतर छिपा वह 'अजनबी' व्यक्ति अट्टहास कर उठा : "ठहर क्यों गये -आगे बढ़ो ! बस, अब कल घुमाने की देर है और तुम्हारी इच्छा पूरी हो जायगी। किन्तु तुम हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहोगे और अंगुली तक नहीं हिला सकोगे । कल तक तुममें इस सत्य को स्वीकार करने का साहस भी नहीं रहेगा कि कभी तुमने इन वाष्प-चलित बॉयलरों को उड़ाने का निश्चय किया था ! अजीब बात है न ?" * ? जब वोबरोव मिल के अस्पताल में पहुंचा तो सूरज का बड़ा लाल धब्बा क्षितिज के ऊपर टिमक आया था। डा० गोल्डबुर्ग आज बहुत व्यस्त थे। लूले लंगड़े, घायल लोगों के जख्मों पर पट्टी बांधने के बाद वह पीतल की चिलमची में हाथ धो रहे थे। उनका असिस्टेंट तौलिया हाथ में लिये उनके पीछे खड़ा था । बोबरोव को देखते ही डॉक्टर चौंक गया। 'पान्द्रेइलिच, तुम इधर कहां से चले आ रहे हो ? यह तुमने अपनी क्या धजा बना डाली है ?" डाक्टर का स्वर आतंकित सा हो उठा। बोबरोव की शक्ल-सूरत इतनी डरावनी लग रही थी कि कोई भी उसे देखकर सिटपिटा जाता । उसका पीला चेहरा खून के सूखे धब्बों से भरा पढ़ा था, जिस पर कोयले की काली गर्द जम गयी थी। उसके कपड़ों के गीले चिथड़े उसकी बाहों और घुटनों पर लटक रहे थे। अस्त-व्यस्त से बाल उसके माथे पर बिखरे हुए थे। "खुदा के वास्ते कुछ तो बोलो ! माजरा क्या है ? सारी बात' खोल कर कहो !" डॉक्टर ने झटपट अपने हाथ तौलिए से साफ किये और बोबरोव के सामने आ खड़ा हुआ। "कोई बात नहीं है डाक्टर," वोबरोव पीड़ा से कराह उठा । " डॉक्टर, मुझे थोड़ा सा 'मॉफिया' दे दो- -वरना मैं पागल हो जाऊंगा । मुझे बेहद कष्ट हो रहा है डाक्टर ! जल्दी करो, इस वक्त मुझे मॉफिया के अलावा और कुछ नहीं चाहिए .. डॉक्टर गोल्डबर्ग ने बोबरोव की बांह पकड़ ली और उसे अपने संग घसीटता हुआ दूसरे कमरे में ले गया। उसे अन्दर धकेल कर उसने बड़ी साव- धानी से कमरे का दरवाजा बन्द कर दिया। बोबरोव, सुनो," डॉक्टर ने धीरे से कहा । “ मैं अब थोड़ा-बहुत तुम्हारी पीड़ा का कारण समझने लगा हूं कम-से-कम अनुमान तो अवश्य लगा सकता डाक्टर का हूं। मुझे तुम्हारी इस अवस्था को देखकर बहुत दुख होता है, बोबरोव । सच मानो, मैं हर तरह से तुम्हारी सहायता करने के लिए तैयार हूं स्वर प्रांसुओं से रुध आया । “अान्द्रेइलिच, मेरे प्यारे दोस्त ! मेरी तुमसे केवल एक प्रार्थना है --- मॉफिया लेने का आग्रह मत करो। तुम अच्छी तरह जानते हो कि इस बुरी लत से छुटकारा पाने के लिए तुम्हें कितने हाथ-पांव मारने पड़े है। अगर आज मैं तुम्हें मॉफिया का इंजेक्शन दे देता हूं तो जानते हो, क्या होगा? भविष्य में इसकी आदत जोंक की तरह तुमसे चिपट जायगी और फिर इससे छुटकारा नहीं मिल सकेगा।" वोबरोव ने अपना सिर कपड़े से ढंके सोफे पर टिका दिया । 'मुझे इसकी रत्ती भर भी परवाह नहीं है," वोबरोव ने दांत भींचते हुए कहा । वह सिर से पांव तक थर-थर कांप रहा था। " डॉक्टर, मैं कब तक इस तरह तड़पता रहूंगा? मैं अब ज्यादा वरदाश्त नहीं कर सकता - मुझे अब किसी बात की भी परवाह नहीं है ।" डा० गोल्डबुर्ग ने ठंडी सांस ली, विवशता के भाव से अपने कंधे हिलाये और दवाइयों के बक्से से इंजेक्शन की पिचकारी निकाल ली। पांच मिनट बाद ही बोबरोब सोफा पर लेटा हुआ गहरी नींद सो रहा था। उसका पीला चेहरा, जो एक रात में ही मुरझा गया था, अब शान्त था और उस पर एक सुखद, स्निग्ध मुसकान बिखर आयी थी। डॉक्टर गोल्डबुर्ग सावधानी से उसके सिर का घाव धो रहा था।