इन सुधारों से नैपोलियन को यथेष्ट सफलता प्राप्त हुई और मार्च १८०४ ई॰ में वह फ्रांस का सम्राट् बन गया। इस घटना से सारे यूरोप में एक हलचल पैदा हुई। फ्रांस और ब्रिटेन के बीच फिर युद्ध के बादल मंडराने लगे। नैपोलियन ने इंगलैंड पर आक्रमण करने के लिए उत्तरी समुद्री तट पर बोलोन (Boulogne) में अपनी सेना भेजी। इंगलैंड ने इसके उत्तर में अपने इंग्लिश चैनल स्थित नौसेना की टुकड़ी को जागरुक किया और फिर हर भिड़ंत में नैपोलियन को चकित करता गया। आमिऐं की संधि के समाप्त होते ही विलियम पिट शासन में आया और उसने इंगलैंड, ऑस्ट्रिया, यस आदि राष्ट्रों को मिलाकर एक तृतीय गुट (१८०५) बनाया। नैपोलियन ने फिर ऑस्ट्रिया के विरुद्ध मोर्चाबंदी की और सिसआलपाइन गणतंत्र को समाप्त कर स्वयं इटली के राजा का पद ग्रहण किया। ऑस्ट्रिया को उल्म (Ulm) के युद्ध में हराया। ऑस्ट्रिया का शासक फ्रांसिस भाग गया और जार की शरण ली। इधर ट्राफलगर के युद्ध में नेलसन ने नैपोलियन की जलसेना को हरा दिया था, जिससे ऑस्ट्रिया को फिर से नैपोलियन को चुनौती देने का मौका मिल गया था। लेकिन आस्टरलिट्ज के युद्ध में हार जाने पर आस्ट्रिया को प्रेसवर्ग की लज्जापूर्ण संधि स्वीकार करनी पड़ी। इस सफलता से नैपोलियन का उल्लास बढ़ गया और अब उसने जर्मनी को रौंदना प्रारंभ किया। जेना (Jena) और आरसटेड (Auerstedt) के युद्धों में १४ अक्टूबर १८०६ ई॰ में हराकर राइन संधि की रचना कर अपने भाई जोसेफ बोनापर्ट के शासन को मजबूत किया। अब केवल रूस रह गया जिसे नैपोलियन ने जून १८०७ ई॰ में फ्रीडलैंड (Friedland) के युद्ध में हराकर जुलाई १८०७ की टिलसिट (Tilsit) की संधि के लिए विवश किया।
सारे यूरोप का स्वामी हो जाने पर अब नेपोलियन ने इंगलैंड को हराने के लिए एक आर्थिक युद्ध छेड़ा (महाद्वीपीय व्यवस्था, देखें)। सारे यूरोप के राष्ट्रों का व्यापार इंगलैंड से बंद कर दिया तथा यूरोप की सारी सीमा पर एक कठोर नियंत्रण लागू किया। ब्रिटेन ने इसके उत्तर में यूरोप के राष्ट्रों का फ्रांस के व्यापार रोक देने की एक निषेधात्मक आज्ञा प्रचारित की। ब्रिटेन ने अपनी क्षतिपूर्ति उपनेवेशों से व्यापार बढ़ा कर कर ली, किंतु यूरोपीय राष्ट्रों की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी और वे फ्रांस की इस यातना से पीड़ित हो उठे। सबसे पहले स्पेन ने इस व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह किया। परिणामस्वरूप नैपोलियन ने स्पेन पर चढ़ाई की और वहाँ की सत्ता छीन ली। इस पर स्पेन में एक राष्ट्रीय विद्रोह छिड़ गया। नेपोलियन इसको दबा भी नहीं पाया था कि उसे ऑस्ट्रिया के विद्रोह को दबाना पड़ा और फिर क्रम से प्रशा और रूस ने भी इस व्यवस्था की अवज्ञा की। रूस का विद्रोह नेपोलियन के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ। उसके मॉस्को अभियान की बर्बादी इतिहास में प्रसिद्ध हो गयी है। पेरिस लौटकर नेपोलियन ने पुन: एक सेना एकत्र की किंतु लाइपत्सिग (Leipzig) में उसे फिर प्रशा, रूस और आस्ट्रिया की संमिलित सेनाओं ने हराया। चारों ओर राष्ट्रीय संग्राम छिड़ जाने से वह सक्रिय रूप से किसी एक राष्ट्र को न दबा सका तथा १८१४ ई॰ में एल्बा द्वीप (Elba Island) भेज दिया गया। मित्र राष्ट्रों की सेनाएं वापस भी नहीं हो पायीं थीं कि सूचना मिली कि नेपोलियन का शतदिवसीय शासन शुरू हुआ। अत: मित्र राष्ट्रों ने उसे १८१५ में वाटरलू के युद्ध में हराकर सेंट हेलेना (St. Helena) का कारावास दिया। वहाँ १८२१ ई॰ में पाँच मई को उसकी मृत्यु हुई।