सोफिया और विनय रात-भर तो स्टेशन पर पड़े रहे। सबेरे समीप के गाँव में गए, जो भीलों की एक छोटी-सी बस्ती थी। सोफिया को यह स्थान बहुत पसंद आया। बस्ती के सिर पर पहाड़ का साया था, पैरों के नीचे एक पहाड़ी नाला मीठा राग गाता हुआ बहता था। भीलों के छोटे-छोटे झोंपड़े, जिन पर बेलें फैली हुई थीं, अप्सराओं के खिलौनों की भाँति सुंदर लगते थे। जब तक कुछ निश्चय न हो जाए कि क्या करना है,कहाँ जाना है, कहाँ रहना है, तब तक उन्होंने उसी गाँव में निवास करने का इरादा किया। एक झोंपड़े में जगह भी आसानी से मिल गई। भीलों का आतिथ्य प्रसिध्द है, और ये दोनों प्राणी भूख-प्यास, गरमी-सरदी सहने में अभ्यस्त थे। जो कुछ मोटा-झोटा मयस्सर हुआ, खा लिया, चाय और मक्खन, मुरब्बे और मेवों का चस्का न था। सरल और सात्तिवक जीवन उनका आदर्श था। यहाँ उन्हें कोई कष्ट न हुआ। इस झोंपड़ें में केवल एक भीलनी रहती थी। उसका लड़का कहीं फौज में नौकर था। बुढ़िया इन लोगों की सेवा-टहल सहर्ष कर देती। यहाँ इन लोगों ने मशहूर किया कि हम दिल्ली के रहनेवाले हैं, जल-वायु बदलने आए हैं। गाँव के लोग उनका बड़ा अदब और लिहाज करते थे।
किंतु इतना एकांत और इतनी स्वाधीनता होने पर भी दोनों एक दूसरे से बहुत कम मिलते। दोनों न जाने क्यों सशंक रहते थे। उनमें मनोमालिन्य न था, दोनों प्रेम में डूबे हुए थे। दोनों उद्विग्न थे, दोनों विकल, दोनों अधाीर, किंतु नैतिक बंधानों की दृढ़ता उन्हें मिलने न देती। सात्तिवक धार्म-निरूपण ने सोफिया को साम्प्रदायिक संकीर्णताओं से मुक्त कर दिया था। उसकी दृष्टि में भिन्न-भिन्न मत केवल एक ही सत्य के भिन्न-भिन्न नाम थे। उसे अब किसी से द्वेष न था, किसी से विरोधा न था। जिस अशांति ने कई महीनों तक उसके धार्म-सिध्दांतों को कुंठित कर रखा था, वह विलुप्त हो गई थी। अब प्राणिमात्रा उसके लिए अपना था। और यद्यपि विनय के विचार इतने उदार न थे, संसार की प्र्रेम-ममता उनके लिए एक दार्शनिक वाद से अधिाक मूल्य न रखती थी; किंतु सोफिया की उदारता के सामने उनकी परंपरागत समाज-व्यवस्थाएँ मुँह छिपाती फिरती थी। वास्तव में दोनों का आत्मिक संयोग हो चुका था, और भौतिक संयोग में भी कोई वास्तविक बाधा न थी। किंतु यह सब होते हुए भी वे दोनों पृथक् रहते, एकांत में साथ कभी न बैठते। उन्हें अब अपने ही से शंका होती थी! वचन का काल समाप्त हो चुका था, लेख का समय आ गया था। वचन से जबान नहीं कटती। लेख से हाथ कट जाता है।
लेकिन लेख से हाथ चाहे कट जाए, इसके बिना कोई बात पक्की नहीं होती। थोड़ा-सा मतभेद, जरा-सा असंयम समझौते को रद्द कर सकता है। इसलिए दोनों ही अनिश्चित दशा का अंत कर देना चाहते थे। कैसे करें यह समझ में नहीं आता था। कौन इस प्रसंग को छेडे? क़दाचित् बातों में कोई आपत्तिा खड़ी हो जाए। सोफिया के लिए विनय का सामीप्य काफी था। वह उन्हें नित्य ऑंखों से देखती थी, उनके हर्ष और अमर्ष में सम्मिलित होती थी, उन्हें अपना समझती थी। इससे अधिाक वह कुछ न चाहती थी। विनय रोज आस-पास के देहातों में विचरने चले जाते थे। कोई स्त्राी उनसे अपने परदेसी पुत्रा या पति के नाम पत्रा लिखाती, कहीं रोगियों को दवा देते, कहीं पारस्परिक कलहों मेेंं मधयस्थ बनना पड़ता। भोर के गए पहर रात को लौटते। यह उनकी नित्य की दिनचर्या थी। सोफिया चिराग जलाए उनकी बाट देखा करती। जब वह आ जाते, तो उनके हाथ-पैर धुलवाकर भोजन कराती, दिन-भर की कथा प्रेम से सुनती और तब दोनों अपनी-अपनी कोठरियों में सोने चले जाते। वहाँ विनय को अपना घास का बिछौना बिछा हुआ मिलता। सिरहाने पानी की हाँड़ी रखी होती। सोफिया इतने ही में संतुष्ट थी। अगर उसे विश्वास हो जाता कि मेरा सम्पूर्ण जीवन इसी भाँति कट जाएगा, तो वह अपना अहोभाग्य समझती। यही उसके जीवन का मधाुर स्वप्न था। लेकिन विनय इतने धौर्यशील, इतने विरागी न थे। उनको केवल आधयात्मिक संयोग से संतोष न होता था। सोफिया का अनुपम सौंदर्य, उसकी स्वर्गोपम वचन-माधुरी, उसका विलक्षण अंग-विन्यास उनकी शृंगारमयी कल्पना को विकल करता रहता था। उन्होंने कुचक्रों में पड़कर एक बार उसे खो दिया था। अब दुबारा उस परीक्षा में न पड़ना चाहते थे। जब तक इसकी सम्भावना उपस्थित थी, उनके चित्ता को कभी शांति न हो सकती थी।
ये लोग रेलवे स्टेशन के पते से अपने नाम पत्रा-पत्रिाकाएँ, पुस्तकें आदि मँगा लिया करते थे। उनसे संसार की प्रगति का बोधा हो जाता था। भीलों से उनको कुछ प्रेम-सा हो गया था। यहाँ से कहीं और चले जाने की उन्हें इच्छा ही न होती थी। दोनों को शंका थी कि इस सुरक्षित स्थान से निकलकर हमारी न जाने क्या दशा हो जाए, न जाने हम किस भँवर में जा पड़ें। इस शांति-कुटीर को दोनों ही गनीमत समझते थे। सोफिया को विनय पर विश्वास था। वह अपनी आकर्षण-शक्ति से परिचित थी। विनय को सोफिया पर विश्वास न था। वह अपनी आकर्षण-शक्ति से अनभिज्ञ थे।
इस तरह एक साल गुजर गया। सोफिया विनय को जल-पान कराकर अंगीठी के सामने बैठी एक किताब देख रही थी। कभी मार्मिक स्थलों पर पेंसिल से - निशान करती, कभी प्रश्नचिद्द बनाती, कहीं लकीर खींचती। विनय को शंका हो रही थी कि कहीं वह तल्लीनता प्रेम-शैथिल्य का लक्षण तो नहीं है? पढ़ने में ऐसी मग्न है कि ताकती तक नहीं। कपड़े पहन, बाहर जाना चाहते थे। ठंडी हवा चल रही थीं जाड़े के कपड़े थे ही नहीं। कम्बल काफी न था। अलसाकर ऍंगीठी के पास आए और माँची पर बैठ गए। सोफिया की ऑंखें किताब में गड़ी हुई थीं। विनय की लालसा-युक्त दृष्टि अवसर पाकर निर्विघ्न रूप से उसके रूप-लावण्य की छटा देखने लगी। सहसा सोफिया ने सिर उठाया, तो विनय को सचेष्ट नेत्रों से अपनी ओर ताकते पाया। लजाकर ऑंखें नीची कर लीं और बोली-आज तो बड़ी सरदी है, कहाँ जाओगे! बैठो, तुम्हें इस पुस्तक के कुछ भाग सुनाऊँ। बहुत ही सुपाठय पुस्तक है। यह कहकर उसने ऑंगन की ओर देखा, भीलनी गायब थी। शायद लकड़ी बटोरने चली गई थी। अब दस बजे से पहले न आएगी। सोफिया कुछ चिंतित-सी हो गई।
विनय ने उत्सुकता के साथ कहा-नहीं सोफी, आज कहीं न जाऊँगा। तुमसे कुछ बातें करने को जी चाहता है। किताब बंद करके रख दो। तुम्हारे साथ रहकर भी तुमसे बातें करने को तरसता रहता हूँ।
यह कहकर उन्होंने सोफिया के हाथों से किताब छीन लेने की चेष्टा की। सोफिया किताब को दृढ़ता से पकड़कर बोली-ठहरो-ठहरो! अब यही शरात मुझे अच्छी नहीं लगती। बैठो, इस फ्रेंच फिलॉसफर के विचार सुनाऊँ। देखो उसने कितनी विशाल हृदयता से धार्मिक निरूपण किया है।
विनय-नहीं, आज दस मिनट के लिए तुम इस फिलॉसफर से अवकाश माँग लो और मेरी ये बातें सुन लो, जो किसी पिंजर-बध्दपक्षी की भाँति बाहर निकलने के लिए तड़फड़ा रही हैं। आखिर मेरे इस वनवास की कोई अवधिा है या सदैव जीवन के सुख-स्वप्न ही देखता रहूँगा?
सोफिया-इस लेखक के विचार उस जवाब से कहीं मनोरंजक हैं, जो मैं तुम्हें दे सकती हूँ। मुझे इन पर कई शंकाएँ हैं। सम्भव है, विचार परिवर्तन से उनकी निवृत्तिा हो जाए।
विनय-नहीं, यह किताब बंद करके रख दो। आज मैं सफर के लिए कमर कसकर आया हूँ। आज तुमसे वचन लिए बिना तुम्हारा दामन न छोड़ईँगा। क्या अब भी मेरी परीक्षा कर रही हो?
सोफिया ने किताब बंद करके रख दी और प्रेम-गम्भीर भाव से बोली-मैंने तो अपने को तुम्हारे चरणों पर डाल दिया, अब और मुझसे क्या चाहते हो?
विनय-अगर मैं देवता होता, तो तुम्हारी प्रेमोपासना से संतुष्ट हो जाता; लेकिन मैं भी तो इच्छाओं का दास, क्षुद्र मनुष्य हूँ। मैंने जो कुछ पाया है, उससे संतुष्ट नहीं हूँ। मैं चाहता हूँ, सब चाहता हूँ। क्या अब भी तुम मेरा आशय नहीं समझीं? मैं पक्षी को अपनी मुँडेर पर बैठे देखकर संतुष्ट नहीं, उसे अपने पिंजड़े में जाते देखना चाहता हूँ। क्या और भी स्पष्ट रूप से कहूँ? मैं सर्वभोगी हूँ, केवल सुगंधा से मेरी तृप्ति नहीं होती।
सोफिया-विनय, मुझे अभी विवश न करो, मैं तुम्हारी हूँ। मैं इस वक्त यह बात जितने शुध्द भाव और निष्कपट हृदय से कह रही हूँ, उससे अधिाक किसी मंदिर में, कलीसा में या हवन-कुंड के सामने नहीं कह सकती। जिस समय मैंने तुम्हारा तिरस्कार किया था, उस समय भी तुम्हारी थी। लेकिन क्षमा करना, मैं कभी ऐसा कर्म न करूँगी, जिससे तुम्हारा अपमान, तुम्हारी अप्रतिष्ठा, तुम्हारी निंदा हो। मेरा यह संयम अपने लिए नहीं, तुम्हारे लिए है। आत्मिक मिलाप के लिए कोई बाधा नहीं होती; पर सामाजिक संस्कारों के लिए अपने सम्बंधिायों और समाज के नियमों की स्वीकृति अनिवार्य है, अन्यथा वे लज्जास्पद हो जाते हैं। मेरी आत्मा मुझे कभी क्षमा न करेगी, अगर मेरे कारण तुम अपने माता-पिता, विशेषत: अपनी पूज्य माता के कोप-भाजन बनो, और वे मेरे साथ तुम्हें भी कुल-कलंक समझने लगें। मैं कल्पना भी नहीं कर सकती कि इस अवज्ञा के लिए रानीजी तुम्हें और विशेषकर मुझे, क्या दंड देंगी। वह सती हैं, देवी हैं, उनका क्रोधा न जाने क्या अनर्थ करे। मैं उनकी दृष्टि में कितनी पतित हूँ, इसका मुझे अनुभव हो चुका है, और तुम्हें भी उन्होंने कठोर-से-कठोर दंड दे दिया, जो उनके वश में था। ऐसी दशा में जब उन्हें ज्ञात होगा कि मैं और तुम केवल प्रेम के सूत्रा में नहीं, संस्कारों के सूत्रा में बँधो हुए हैं, तो आश्चर्य नहीं कि वह क्रोधावेश में आत्महत्या कर लें। सम्भव है, इस समय तुम उन समस्त विघ्न-बाधाओं को अंगीकार करने को तैयार हो जाओ; लेकिन मैं बाह्य संस्कारों को इतने महत्तव की वस्तु नहीं समझती।
विनय ने उदास होकर कहा-सोफी, इसका आशय इसके सिवा और क्या है कि मेरा जीवन सुख-स्वप्न देखने में ही कट जाए!
सोफी-नहीं विनय, मैं इतनी हताश नहीं हूँ। मुझे अब भी आशा है कि कभी-न-कभी रानीजी से तुम्हारा और अपना अपराधा क्षमा करा लूँगी,और तब उनके आशीर्वादों के साथ हम दाम्पत्य-क्षेत्रा में प्रवेश करेंगे। रानीजी की कृपा और अकृपा, दोनों ही सीमागत रहती हैं। एक सीमा का अनुभव हम कर चुके। ईश्वर ने चाहा, तो दूसरी सीमा का भी जल्द अनुभव होगा। मैं तुमसे सविनय अनुरोधा करती हूँ कि अब इस प्रसंग को फिर मत उठाना, अन्यथा मुझे कोई दूसरा रक्षा-स्थान खोजना पड़ेगा।
विनय ने धीरे से कहा-वह दिन कब आएगा, जब या तो अम्माँजी न होंगी या मैं न रहूँगा।
तब उन्होंने कम्बल ओढ़ा, हाथ में लकड़ी ली और बाहर चले गए, जैसे कोई किसान महाजन की फटकार सुनकर उसके घर से बाहर निकले।
फिर पूर्ववत् दिन कटने लगे, विनय बहुत मलिन और खिन्न रहते। यथासम्भव घर से बाहर ही विचरा करते, आते भी तो भोजन करके चले जाते। कहीं जाना न होता, तो नदी के तट पर जा बैठते और घंटाें जल-क्रीड़ा देखा करते। कभी कागज की नावें बनाकर उसमें तैराते और उनके पीछे-पीछे वहाँ तक जाते, जहाँ वे जल-मग्न हो जातीं। उन्हें अब भ्रम होने लगा था कि सोफिया को अब भी मुझ पर विश्वास नहीं है। वह मुझसे प्रेम करती है, लेकिन मेरे नैतिक बल पर उसे संदेह है।
एक दिन वह नदी के किनारे बैठे हुए थे कि बुढ़िया भीलनी पानी भरने आई। उन्हें वहाँ बैठे देखकर उसने घड़ा रख दिया और बोली-क्यों मालिक, तुम यहाँ अकेले क्यों बैठे हो? घर में मालकिन घबराती न होंगी? मैं उन्हें बहुत रोते देखा करती हूँ। क्या तुमने उन्हें कुछ कहा है? क्या बात है? कभी तुम दोनों को बैठकर हँसते-बोलते नहीं देखती?
विनय ने कहा-क्या करूँ माता, उन्हें यही तो बीमारी है कि मुझसे रूठी रहती हैं। बरसों से उन्हें यही बीमारी हो गई है।
भीलनी-तो बेटा, इसका उपाय मैं कर दूँगी। ऐसी जड़ी दे दूँ कि तुम्हारे बिना उन्हें छिन-भर भी चैन न आए।
विनय-क्या ऐसी जड़ी भी होती है?
बुढ़िया ने सरल विज्ञता से कहा-बेटा, जड़ियाँ तो ऐसी-ऐसी होती हैं कि चाहे आग बाँधा लो, पानी बाँधा लो, मुरदे को जिला दो, मुद्दई को घर बैठे मार डालो। हाँ, जानना चाहिए। तुम्हारा भील बड़ा गुनी था। राजा के दरबार में आया-जाएा करता था। उसी ने मुझे दो-चार बूटियाँ बता दी थीं। बेटा, एक-एक बूटी एक-एक लाख को सस्ती है।
विनय-तो मेरे पास इतने रुपये कहाँ है?
भीलनी-नहीं बेटा, तुमसे मैं क्या लूँगी। तुम बिसुनाथपुरी के निवासी हो। तुम्हारे दरसन पा गई, यही मेरे लिए बहुत है। वहाँ जाकर मेरे लिए थोड़ा-सा गंगाजल भेज देना। बुढ़िया तर जाएगी। तुमने मुझसे पहले न कहा, नहीं तो मैंने वह जड़ी तुम्हें दे दी होती। तुम्हारी अनबन देखकर मुझे बड़ा दुख होता है।
संधया समय, जब सोफिया बैठी भोजन बना रही थी, भीलनी ने एक जड़ी लाकर विनयसिंह को दी और बोली-बेटा, बड़े जतन से रखना,लाख रुपये दोगे, तब भी न मिलेगी। अब तो यह विद्या ही उठ गई। इसको अपने लहू में पंद्रह दिन तक रोज भिगोकर सुखाओ। तब इसमें से एक-एक पत्ती काटकर मालकिन को धूनी दो। पंद्रह दिन के बाद जो बच रहे, वह उनके जूड़े में बाँधा दो। देखो, क्या होता है। भगवान् चाहेंगे, तो तुम आप उनसे ऊबने लगोगे। वह परछाईं की भाँति तुम्हारे पीछे लगी रहेंगी। फिर उनसे विनय के कान में एक मंत्रा बताया, जो कई निरर्थक शब्दों का संग्रह था, और कहा कि जड़ी को लहू में डुबाते समय यह मंत्रा पाँच बार पढ़कर जड़ी पर फूँक देना।
विनयसिंह मिथ्यावादी न थे; मंत्रा-तंत्रा पर उनका अणु-मात्रा भी विश्वास न था। लेकिन सुनी-सुनाई बातों से उन्हें यह मालूम था कि निम्न जातियों में ऐसे तांत्रिक क्रियाओं का बड़ा प्रचार है, और कभी-कभी इनका विस्मयजनक फल भी होता है। उनका अनुमान था कि क्रियाओं में स्वयं कोई शक्ति नहीं, अगर कुछ फल होता है, तो वह मूर्खों के दुर्बल मस्तिष्क के कारण। शिक्षित पर, जो प्राय: शंकावादी होते हैं,जो ईश्वर के अस्तित्व को भी स्वीकार नहीं करते, भला इनका क्या असर हो सकता है? तो भी उन्होंने यह सिध्दि प्राप्त करने का निश्चय किया। उन्हें उससे किसी फल की आशा न थी, केवल उसकी परीक्षा लेना चाहते थे।
लेकिन कहीं सचमुच इस जड़ी में कुछ चमत्कार हो, तो फिर क्या पूछना। इस कल्पना ही से उनका हृदय पुलकित हो उठा। सोफिया मेरी हो जाएगी। तब उसके प्रेम में और ही बात होगी?
ज्यों ही मंगल का दिन आया, वह नदी पर गए, स्नान किया और चाकू से अपनी एक उँगली काटकर उसके रक्त में जड़ी को भिगोया,और तब उसे एक ऊँची चट्टान पर पत्थरों से ढंककर रख आए। पंद्रह दिन तक लगातार यही क्रिया करते रहे। ठंड ऐसी पड़ती थी कि हाथ-पाँव गले जाते थे, बरतनों में पानी जम जाता था। लेकिन विनय नित्य स्नान करने जाते। सोफिया ने उन्हें इतना कर्मनिष्ठ न देखा था। कहती-इतनी सबेरे न नहाओ, कहीं सरदी न लग जाए, जंगली आदमी भी दिन-भर अंगीठी जलाए बैठे रहते हैं, बाहर मुँह नहीं निकाला जाता,जरा धूप निकल आने दिया करो। लेकिन विनय मुस्कराकर कह देते, बीमार पड़ईँगा, तो कम-से-कम तुम मेरे पास बैठोगी तो। उनकी कई उँगलियों में घाव हो गए, पर वह इन घावों को छिपाए रहते थे।
इन दिनों विनय की दृष्टि सोफिया की एक-एक बात, एक-एक गति पर लगी रहती थी। वह देखना चाहते थे कि मेरी क्रिया का कुछ असर हो रहा है या नहीं, किंतु, कोई प्रत्यक्ष फल न दिखाई देता था। पंद्रहवें दिन जाकर उन्हें सोफिया के व्यवहार में कुछ थोड़ा-सा अंतर दिखाई पड़ा। शायद किसी और समय उनका इस ओर धयान भी न जाता, किंतु आजकल तो उनकी दृष्टि बहुत सूक्ष्म हो गई थी। जब घर से बाहर जाने लगे, तो सोफिया अज्ञात भाव से निकल आई और कई फर्लांग तक उनसे बातें करती हुई चली गई। जब विनय ने बहुत आग्रह किया,तब लौटी। विनय ने समझा, यह उसी क्रिया का असर है।
आज से धूनी देने की क्रिया आरम्भ होती थी। विनय बहुत चिंतित थे-वह क्रिया क्योंकर पूरी होगी! अकेले सोफी के कमरे में जाना सभ्यता, सज्जनता और शिष्टता के विरुध्द है। कहीं सोफी जाग जाए और मुझे देख ले, तो मुझे कितना नीच समझेगी! कदाचित् सदैव के लिए मुझसे घृणा करने लगे। न भी जागे; तो भी यह कौन-सी भलमंसी है कि कोई आदमी किसी युवती के कमरे में प्रवेश करे। न जाने किस दशा में लेटी होगी। सम्भव है, केश खुले हों, वस्त्रा हट गया हो। उस समय मेरी मनोवृत्तियाँ कितनी कुचेष्ट हो जाएँगी। मेरा कितना नैतिक पतन हो गया है!
सारे दिन वह इन्हीं अशांतिमय विचारों में पड़े रहे, लेकिन संधया होते ही वह कुम्हार के घर से एक कच्चा प्याला लाए और उसे हिफाजत से रख दिया। मानव-चरित्रा की एक विचित्राता यह है कि हम बहुधाा ऐसे काम कर डालते हैं, जिन्हें करने की इच्छा हमें नहीं होती। कोई गुप्त प्रेरणा हमें इच्छा के विरुध्द ले जाती है।
आधी रात हुई, तो विनय प्याली में आग और हाथ में वह रक्त-सिंचित जड़ी लिए हुए सोफी की कोठरी के द्वार पर आए। कम्बल का परदा पड़ा हुआ था। झोंपड़े में किवाड़ कहाँ! कम्बल के पास खड़े होकर कान लगाकर सुना। सोफी मीठी नींद सो रही थी। वह थर-थर काँपते,पसीने से तर, अंदर घुसे। दीपक के मंद प्रकाश में सोफी निद्रा में मग्न लेटी हुई ऐसी मालूम होती थी, मानो मस्तिष्क में मधुर कल्पना विश्राम कर रही हो। विनय के हृदय पर आतंक-सा छा गया। कई मिनट तक मंत्रा-मुग्धा-से खड़े रहे, पर अपने को सँभाले हुए, मानो किसी देवी के मंदिर में हैं। उन्नत हृदयों में सौंदर्य उपासना-भाव को जागृत कर देता है, वासनाएँ विश्रांत हो जाती हैं। विनय कुछ देर तक सोफी को भक्ति-भाव से देखते रहे। तब वह धीरे-से बैठ गए, प्याली में जड़ी का एक टुकड़ा तोड़कर रख दिया और उसे सोफिया के सिरहाने की ओर खिसका दिया। एक क्षण में जड़ी की सुगंधा से सारा कमरा बस उठा। ऊद और अम्बर में वह सुगंधा कहाँ? धुएँ में कुछ ऐसी उद्दीप्न-शक्ति थी कि विनय का चित्ता चंचल हो उठा। ज्यों ही धाुऑं बंद हुआ, विनय ने प्याली से जड़ी की राख निकाल ली। भीलनी के आदेशानुसार उसे सोफिया पर छिड़क दिया और बाहर निकल आए। लेकन अपनी कोठरी में आकर वह घंटों बैठे पश्चात्ताप करते रहे। बार-बार अपने नैतिक भावों को चोट पहुँचाने की चेष्टा की। इस कृत्य को विश्वासघात, सतीत्व-हत्या कहकर मन में घृणा का संचार करना चाहा। सोते वक्त निश्चय किया कि बस, इस क्रिया का आज से अंत है। दूसरे दिन दिन-भर उनका हृदय खिन्न, मलिन, उद्विग्न रहा। ज्यों-ज्यों रात निकट आती थी,उन्हें शंका होती जाती थी कि कहीं मैं फिर यह क्रिया न करने लगूँ। दो-तीन भीलों को बुला लाए और उन्हें अपने पास सुलाया। भोजन करने में बड़ी देर की, जिससे चारपाई पर पड़ते-ही-पड़ते नींद आ जाए। जब भोजन करके उठे, तो सोफी आकर उनके पास बैठ गई। यह पहला ही अवसर था कि वह रात को उनके पास बैठी बातें करती रही। आज के समाचार-पत्रों में प्रभु सेवक की पूना में दी हुई वक्तृता प्रकाशित हुई थी। सोफी ने इसे उच्च स्वर में पढ़ा। गर्व से उनका सिर ऊँचा हो गया, बोली-देखो, कितना विलासप्रिय आदमी था, जिसे सदैव अच्छे वस्त्रों और अन्य सुख-सामग्रियों की धुन सवार रहती थी। उसकी कितनी कायापलट हुई है। मैं समझती थी, इससे कभी कुछ न होगा, आत्मसेवन में ही इसका जीवन व्यतीत होगा। मानव-हृदय के रहस्य कितने दुर्बोधा होते हैं। उसका यह त्याग और अनुराग देखकर आश्चर्य होता है!
विनय-जब प्रभु सेवक इस संस्था के कर्णधार हो गए, तो मुझे कोई चिंता नहीं। डॉक्टर गांगुली उसे दवा बाँटनेवालों की मंडली बनाकर छोड़ते। पिताजी पर मेरा विश्वास नहीं, और इंद्रदत्ता तो बिलकुल उजव् है। प्रभु सेवक से ज्यादा योग्य पुरुष न मिल सकता था। वह यहाँ होते,तो बलाएँ लेता। यह दैवी सहायता है, और अब मुझे आशा ह�