उस दिन सबेरे स्कूल जाने में मुझे बहुत देर हो गई थीं।  
मन में बड़ा डर लग रहा था।  
वैसे तो कोई बात नहीं थी, लेकिन हेमिल मास्टर साहब ने यह जो कह दिया था कि मैं सबसे सकर्मक और अकर्मक क्रियाओं की परिभाषा पूछूंगा और मुझे एक फूटा शब्द भी याद नहीं था। 
 एक क्षण के लिए मेरे मन में आया कि आज स्कूल ही न जाऊं और सारा दिन इधर-उधर कहीं घर से बाहर ही बिता दूँ। 
 दिन बड़ा अच्छा था। 
  आसमान साफ़ था और मीठी-मीठी धूप फैली हुई थी। 
सड़क के किनारे वाले जंगल में चिड़ियाँ खूब चहक रहीं थी और लड़की चीरने की जो मिल है, उसके पिछवाड़े सिपाही कवायद कर रहे थे। यह सब कुछ उन अकर्मक और सकर्मक क्रियाओं से कहीं ज्यादा दिलचस्प था, लेकिन फिर भी अपनी तबीयत को रोकने का बल मुझमें था, इसीलिए मैंने स्कूल की तरफ लंबे-लंबे डग बढ़ाए।  
टाउनहाल के पास से गुजरते हुए मैंने देखा कि बुलेटिन बोर्ड के सामने बड़ी भीड़ इकट्ठी है।  
 गत दो वर्षों में लड़ाई हारने, सेनापति की आज्ञाओं बजट आदि की जितनी भी बुरी खबरें थीं, वे सब इसी बुलेटिन बोर्ड पर प्रकाशित हुई थी - और मैंने चलते-चलते ही सोचा - अब कौन सा  नया मामला उठ खड़ा हुआ ?
पर मैं रुका नहीं, भरसक तेजी से लमक-लमक कर चलने लगा। 
 वाकटर लोहर, जो अपने नौकर के साथ खड़ा वहां बुलेटिन पढ़ रहा था, चिल्लाया - बबुए भागो मत जाओ - वक्त से बहुत पहले स्कूल पहुंच जाओगे।   
 मैंने सोचा की यह मेरा मजाक उदा रहा है और मैं अपनी उसी रफ्तार से चलता ही चला गया। हांफता-हांफता स्कूल पहुंच गया। 

स्कूल लगने पर हमेशा ही इतना शोरगुल होता था कि वह सड़क पर सुनाई पड़ता था।  डैस्क के खुलने-बंद होने की फट-फटाहट, जोर-जोर से एक साथ सबक पढ़े जाने की एक तेज आवाज - यहाँ तक कि ठीक-ठीक शब्दों को समझने के लिए कान पर हाथ रखने पड़ते थे।
और सबसे ऊपर मास्टर साहब के रूल का रोर, जो उसे बार-बार मेज पर घर पटकने से होता था।  
 
किन्तु इस समय सब कुछ शांत था। 
मैं सोच रहा था कि जब मैं चुपके से जाकर अपने डेस्क पर बैठने की कोशिश करूंगा, तो बड़ी हलचल मचेगी, परन्तु उस दिन तो वास्तव में सब ऐसी चुप नजर आ रहा था, जैसे इतवार की सुबह हो।  
खिड़की में से ही मुझे दिखाई दिया कि क्लास में सब लड़के अपनी-अपनी जगह पर बैठे हैं और हेमिल मास्टर साहब अपना लोहेवाले भयानक रूल बगल में दाबे हुए चक्कर काट रहे हैं।  
मुझे सामने के दरवाजे को ही खोलकर अंदर क्लास में घुसना पड़ा!  
अंदाज लगाया जा सकता कि उस समय मैं कितना डरा और सहमा हुआ हूँगा। 
 
किन्तु कुछ हुआ नहीं।  
 मास्टर साहब ने बड़ी मुलायमियत से कहा - बच्चू फैंज! जाकर जल्दी से अपनी जगह पर बैठ जाओ। हम तुम्हारे बिना ही पढ़ाई शुरू करने वाले थे।   
 
बेंचपर कूदकर मैं अपने डेस्क पर जा डटा। जब तक कि मेरा डर कुछ कुछ दूर नहीं हो गया, मैंने नहीं देखा कि मास्टर साहब आज हरा कोट, चुन्नटोंदार कमीज और काली रेशमी टोपी - सबकी सब चीजें बेल बुतों से कढ़ी हुई - पहने हुए हैं। 
 
 यह कपड़े वे केवल उस दिन पहनते थे जिस दिन इनाम बंटता था। 
 यही नहीं बल्कि सारा स्कूल एकदम शांत और गंभीर था। 
 और मुझे ताज्जुब तो सब हुआ, जब मैंने देखा कि पिछली बेंचों पर जो हमेशा खाली पड़ी रहती थीं, ग्वार लोग भी बिलकुल हमारी तरह चुप बैठे थे ;
तिपंखा टोप लगाए बुड्ढा हौसर बैठा था, जो किसी जमाने में नगर का मेयर था। 
इसके सिवाय एक भूतपूर्व पोस्ट साहब भी अन्य कई व्यक्तियों के साथ बैठे हुए थे। 
सब के सब मातमी मुद्रा बनाए हुए थे। हाउसर साहब अपने साथ एक पुराणी फ़टी चिथड़ा प्राइमर उठा लाए थे ; उसी खोले हुए अपने घुटनों पर रखे थे।
उनकी बड़ी-बड़ी ऐनक भी उसी पर रखी हुई थी।  
मैं यह सब देखकर आश्चर्य ही कर रहा था की हेमिल साहब अपनी कुर्सी पर चढ़े और उसी मुलायम तथा विन्रम स्वर में जिसमें कि आते-आते ही मुझे बोले थे, कहने लगे - लड़को!  
आज मैं तुमको सबक पढ़ा रहा हूँ। बर्लिन से आज्ञा आई है कि आलजक और लौरेन के स्कूलों में सिर्फ जर्मन ही पढ़ाई जाए। तुम्हारे लिए कल से कोई नए मास्टर साहब आ जाएगें। इसलिए आज फ्रेंज का यह तुम्हारा आखिरी सबक है - खून ध्यान से पढ़ना। 
 
और यह शब्द मेरे कानों पर जैसे बिजली की तरह गिरे ! अब समझ में आया कमबख्तों ने उस बुलेटिन बोर्ड पर क्या लिखा था।  
फ्रेंच का मेरा आखिरी सबक - आखिरी ! और अभी तो मुझे अच्छी तरह लिखना भी नहीं आया हैं, 
 और यहीं सब खतम है ! मैं अब आगे नहीं पढ़ सकूंगा क्या ?
 हाय हाय मैंने अभी तक अपने सबक न याद करके कितना बुरा किया ! 

 बेकार ही चिड़ियों के अंडों की तलाश में घूमता रहा - बेकार ही अपना वक्त इधर-उधर आवारागर्दी में खोया किया! 
 वे किताबें जिनकी सूरत देखकर मुझे बुखार चढ़ता था - व्याकरण इतनी भारी थी कि ले जाने में आफत पड़ती थी - और वह महात्माओं की कहानियां - आज सब मुझे पुराने दोस्तों की तरह लग रहा थी, जिनसे जुड़ा होना अब असंभव मालुम हो रहा था। 
और बेचारे मास्टर भी तो! वे अब हमेशा के लिए जा रहे हैं और मैं अब उन्हें कभी नहीं देख सकूंगा- सिर्फ इस कल्पना मात्र से ही मैं हेमिल साहब सख्ती को भूल गया और भूल गया उनके उस लोहे के रूलर को भी! 

हाय बेचारा! आज इस आखिरी सबक के उपलक्ष्य में ही तो उसने अपने इतवार वाले बढ़िया कपड़े पहने थे ! हाँ और मेरी समझमे आया कि गावं के वे वृद्ध सज्जनगण क्यों पीछे बेंचों पर बैठे थे और इतने सुस्त थे। अब वे फिर कभी स्कूल में आ जो नहीं सकेंगें।  
मास्टर साहब की चालीस वर्ष की सेवा के प्रति अपनी कृतग्यता प्रकट करने और उस देश का अभिनन्दन करने, जो अब उनका नहीं रहा था, वे लोग आए थे।  
मैं यही सोच-विचार कर रहा था कि मेरा नाम पुकारा गया। अकर्मक क्रिया की परिभाषा सुनाने का अब मेरा नंबर था। क्या उस अकर्मक क्रिया की कठिन परिभाषा को बिना एक ही गलती किए हूँ मैं जोर से और साफ़-साफ़ नहीं कह सकता था ? 
 लेकिन पहले ही शब्द मैं गड़बड़ा गया, और बुत बना खड़ा रह गया , दिल मेरा धक-धक कर रहा था और ऊपर आँख उठाने की हिम्मत नहीं होती थी। 

मास्टर हेमिल ने कहना शुरू कर दिया था - फ्रेंज मैं तुम्हें फटकारूँगा नहीं तुम्हें खुद ही शर्म आनी चाहिए। 

 कितनी बुरी बात है !  
हम लोग रोज-रोज यही कहते थे की ओह बहुतेरा वक्त है। कल पढ़ लेंगें - और तुम देखो कि यही कहते-कहते हम कहाँ आ पहुंचे हैं - कल अब हमारे लिए नहीं आएगा।  
कल आजकल में वे जर्मन लोग आ जायेंगें और कहेंगें, यह क्या बात है ?  

 

तुम लोग बनते तो फ्रांसीसी हो पर अपनी ही भाषा न लिख सकते हो, और न पढ़ सकते हो। और फ्रेंज एक तुम ही ऐसे नहीं हो, वरन हममें से और भी ना जाने कितने ही ऐसे हैं, जिन्हें यह भर्त्सना सुनने को मिल सकती है। 
 
तुम्हारे पिता तुम्हें पढ़ाने के लिए चिंतित नहीं थे।  

वे तुम्हें किसी खेत या मिल में काम पर लगा देना पसंद करते थे, जिससे कि कुछ और आमदनी ही हो। और मैं भी दोषी हूँ ही।  
क्या मैंने अक्सर ही पढ़ाने के बजाय तुम्हें अपने बगीचे में पानी देने नहीं भेजा है ? 
और जब मैं मछली के शिकार को जाता था, तब भी तो तुम्हें एक दिन की छूटी दे जाता था !   

   इस प्रकार हेमिल साहब इधर-उधर की बातचीत करते करते फ्रैंच भाषा पर ही आ गए, कहने लगे - संसार की सबसे सुन्दर भाषा है यह सबसे ज्यादा साफ़ और सही ! 
हमें इसकी पूरी पूरी रक्षा करनी होगी, क्योंकि जब देश गुलाम हो जाता है, तब उसकी स्वतंत्रता वापस लेने की केवल एक ही कुंजी शेष रह जाती है और वह कुंजी है उसकी भाषा। परतंत्रता की जेल में बंद मनुष्य के लिए उसकी अपनी भाषा ही उसकी स्वतंत्रतादायक कुंजी है। 
 
यह कह चुकने के बाद मास्टर साहब ने व्याकरण खोली और सबक पढ़ाने लगे !  

मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि वह तो सब समझ में खूब अच्छी तरह आ रहा था। मेरा ख्याल है कि न तो मैंने कभी इतना ध्यान लगाकर कभी पढ़ा ही था, और न मास्टर साहब ने ही तबियत लगा कर इतनी अच्छी तरह कभी पढ़ाया ही था। 
 
ऐसा मालूम होता था की वे बेचारे जो कुछ जानते थे, जाने से पहले वह सब ही पढ़ा देना चाहते थे - और सो भी एक ही बार में हमारे दिमागों में ठूंस देना चाहते थे। 
 
व्याकरण के बाद सुलेख शुरू हुआ। आज हेमिल साहब हम लोगों के लिए नई-नई कापियां लाए थे।  

जिनमें बड़े ही खूबसूरत गोल-गोल अक्षरों में लिखा हुआ था : आलजक, फ़्रांस, आलजक! 

इतने बड़े-बड़े शब्दों से लिखी इन कापियों के सफे क्लास भर में ऐसे लगते थे जैसे हरेक डेस्क पर झण्डा फर रहा हो। 
 
और सब चुपचाप बैठे लिखने में तन्मय थे। पन्नों पर चलती हुई निबों की आवाज भर होती थी। 

 एक बार कुछ भौरे कमरे में उड़ आए, किन्तु किसी ने भी उनकी ओर ध्यान नहीं दिया , छोटे-छोटे बच्चों ने भी नहीं, जो अक्षरों की गोलाई को भी ध्यानपूर्वक इतनी सावधानी से बना रहे थे जैसे वे गोलाइयाँ भी फ्रेंच हों! छत पर कबूतर बोल रहे थे, मैंने सोचा - क्या वे इन कबूतरों को भी जर्मन में बोलने के लिए मजबूर करेंगे?
 
 लिखते-लिखते जब मेरी नजर हेमिल साहब की तरफ उठ जाती, तो मैं देखता कि वे कमरे की किसी एक न एक चीज पर टकटकी लगाए देखता कि वे कमरे किसी एक न एक चीज पर टकटकी लगाए देखते होते, मानों वह अपने मस्तिष्क में यह चित्रित कर लेना चाहते हों कि उस छोटे से क्लास रम में सब चीजें कैसी लग रही थी। 
ख्याल कीजिये चालीस बरस से वे इसी कमरे में रहे हैं - 
 

 इसी कमरे में जहाँ उनके सामने हमेशा उनकी क्लास बैठी रही है, और जिसकी खिड़की से बाहर बगीचा चमकता रहा है।
 पुरे चालीस वर्ष।  
सब कुछ वैसा ही था, केवल डेस्क और कुर्सियां घिस-घिस कर चिकनी हो गई थी , बगीचे में वालनटका पेड़ बड़ा हो गया था और वह हांप-बेल जो स्वयं उन्होंने अपने हाथों लगाई थी, खिड़कियों के सहारे बलखाती हुई छत पर जा पहुंची थी। 

 
 उफ़ बेचारा गरीब! यह सब छोड़ते हुए उसके दिल में कितना दर्द उठ रहा होगा ! 
छत पर ऊपर  उनकी बहन संदूक ठीक कर रही थी, सो उसकी खटर-पटर भी क्लासरूम में सुनाई पड़ रही थी।  
कल ही उन्हें देश छोड़कर चला जो जाना है।  
और वे हरेक का सबक सुनने की हिम्मत बांधे रहे। सुलेख लिखाने के बाद इतिहास का एक पाठ उन्होंने पढ़ाया।  
 फिर बच्चों ने बा बे बी, ओ, बू करके शोर करना शुरू कर दिया। 

वहां कमरे के पंखे बेंच पर वृद्ध हौसर ने चश्मा पहनकर और प्राइमर दोनों हाथ में पकड़ कर पढ़ना शुरू कर दिया।  
ओर वे भी चिल्ला से ही रहे थे, भावावेश से उनकी आवाज कांपने लगी थी।  
 और हमें सुनने में इतना मजा आ रहा था कि  खूब हसंने और शोर करने की जी चाहता था।

 आह - और वह आखिरी सबक मुझे कितनी अच्छी तरह याद है !
 यकायक गिरजे के घंटे ने बारह बजाए और इसी के बाद ऐज्जिलस के घंटे ने भी। ठीक इसी वक्त कवायद करके लौटते हुए  प्रशियन सैनिकों की तुरही भी खिड़की के पास सुनाई पड़ी। 

हेमिल मास्टर साहब भी कुर्सी से उठ खड़े हुए। 
  बिलकुल पीले-पीले और लम्बे-लम्बे लग रहे थे मुझे - इतने कि जितने मुझे कभी नहीं मालुम पड़े थे। 


दोस्तों! उन्होंने कहा, मैं -मैं - और जैसे उनके गले में कुछ अटक गया। वे आगे बोल नहीं सके।  
 मेज पर से चाक का एक टुकड़ा उठाकर वे चुपचाप बड़ी शान के साथ ब्लैक बोर्ड की तरफ चले - ो उस पर जितने बड़े-बड़े अक्षर लिखे जा सकते थे, उनमें लिख दिया - 

फ़्रांस जिंदाबाद ! 

और लिखकर उन्होंने अपना सर दीवार के शेयर टिका दिया, बिना बोले उन्होंने अपना हाथ हिलाकर आदेश दिया - जाओ स्कूल खत्म !

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