बिलकुल नया शहर।
जान न पहचान।
न खाने के लिए जेब में पैसा और
न रात बिताने के लिए साढ़े तीन हाथ जगह ही! पतझड़ के मौसम में ऐसी .
थी एक दिन मेरी हालत!
जिन-जिन कपड़ों के बगैर काम चल सकता था, सो मैंने सब एक-एक .
कर के पहले तीन-चार दिन में बेच डाले और फिर शहर के उस भाग की
ओर चला, जहां जहाज़ों के खड़े होने का अड्डा था।
इस स्थान का नाम
था ईस्ते।
जहाज़ों के चलने के लिए अनुकूल मौसम में इस्ते मज़दूरों के
कठोर जीवन के कोलाहल से जैसे उफूनता रहता है, परंतु वह अब सुनसान
और वीरान था, क्योंकि अक्टूबर का महीना समाप्त हो चला था।
गीली रेतीली भूमि पर मेरे पैर मुझे किसी तरह घसीटे ही लिए चले
जा रहे थे, और उसे क्रेद-कुरेद कर कैसे भी खाने के टुकड़े की तलाश
में लगे थे। और मैं भरपेट भोजन पा जाने की आशा में सूने मकानों और
गोदामों की ख़ाक छान रहा था।
आज की सभ्य दुनिया में हमारे पेट की भूख की अपेक्षा दिमाग की
भूख आसानी से मिट जाती है। आप सड़कों पर चक्कर काठते हैं, बड़ी
बड़ी आलीशान इमारतें देखते हैं, जो बाहर से तो खूबसूरत हैं ही, और अंदर
से भी होंगी ही; उन्हें देखकर आपके दिल में भवन-निर्माण-कला, सफाई
तथा आरोग्य, और अक़्लमंदी से भरे हुए अनेक विषयों पर बड़े-बड़े ख्यालात
उठते है। निहायत सफाई और सलीके से पहने-ओढ़े शरीफ़ लोग आप को
राह चलते दिखाई देते हैं, जो बड़ी होशियारी से आपकी अपनी असली बुरी
हालत को देखकर भी नहीं देखते, और शाइस्ता तौर से आपसे नजर बचाकर
चल देते हैं! खैर जो कुछ भी हो, लेकिन भूखे आदमी का दिमाग पेट-भरे
आदमी के दिमाग से कहीं ज्यादा दुरुस्त और ताकतवर होता है और ऐसी
हालत में भी आप नंगे-भूखों के हक् में कुछ काम की ज़रूरी बातें सोच
शाम बढ़ती चली आ रही थी, और पानी तो बरस ही रहा था। उत्तरी
हवा तेज़ी से चल रही थी।
ख़ाली दूकानों और डुटियल झोपड़ों में से वह
सनसना कर निकल जाती, और सराय की पुती हुई खिड़कियों से जा टकराती।
रेतीले तट पर शोर करके छपछपाती हुई तरंगें उत्तरी हवा के इस भयानक
झोंके के कोड़े की मार खाकर जैसे बिलबिलाकर फेन उगलने लगतीं! उन
तरंगों के ऊंचे उठे हुए सफेद हिस्से एक दूसरे के पीछे भागते हुए घुंध की
तरफ चले जा रहे थे, और आपस में भिड़-भिड़ जाते थे! मालूम होता था
कि कहीं नदी को सर्दी आने का पता लग गया था, और इस डर से कि
बर्फ की सर्द और क्रूर बेड़ियां यहीं आज ही रात में उसे बांध न लें, वह
बेतहाशा भागी चली जा रही थी। आसमान अंधेरा था।
बादल जम गए
थे।
धड़ाधड़ बरसने वाले पानी की एक बूंद भी नहीं दिखाई देती थीं ।
एक
उल्टी हुई डोंगी, जो अंधड़ द्वारा खूब झकझोरे गए बेंत की जड़ से बंधी
हुई थी, मेरे चारों तरफ फैली हुई प्रकृति की इस मौत की-सी भयानकता
को और भी बढ़ा रही थी।
यह उल्टी हुई डोंगी और झकझोरे गए पेड़-सारा का सारा दृश्य वीरान,
और सुनसान था-मौत की तरह मरा हुआ और डरावना; और आसमान
के आंसू रोके न रुकते थे...सब कुछ ऊजड़ और म्लान...निर्जीव, केवल मैं
ही जीता था-लेकिन मेरे लिए भी सर्दी मौत बनकर निगलने के लिए खड़ी
थी!
तब मैं अठारह बरस का था-कितनी प्यारी अवस्था होती है यह!
और उस ठंडी और गीली रेती पर मैं चलता ही चला गया। कंपकंपी
ले मेरे दांत बज रहे थे, जैसे भूख और ठिठुरन का स्वागत कर रहे हों।
मैं कुछ खाने की तलाश में बड़ी सतर्कता के साथ एक खाली पेटी को खखोड़
था कि यकायक उसके पीछे मुझे पानी से तरबतर एक औरत अपने
झुकते हुए कंधों को मजबूती और मोह से पकड़े हुए ज़मीन से चिपटती
दिखाई पड़ी। मैं जाकर उसके पीछे खड़ा हो गया और देखने लगा कि वह
कर क्या रही है। उन पेटियों के नीचे रेती के नीचे रेती में वह अपने हाथों
से ही गड़ढा खोद रही थी।
मैं उसके और नजदीक सरक आया और बोला-“यह क्या कर रही
हो?”
वह चीख पड़ी और हड़बड़ाकर खड़ी हो गई!
भय से फटी हुई अपनी बड़ी-बड़ी भूरी आंखों से वह मुझे देख रही
थी और मैं अपने सम्मुख देख रहा था एक समवयस्क सुंदर लड़की, किंतु
उसके मुखपर तीन नीले दाग थे, जिनने दुर्भाग्यवश उसके सौंदर्य को कम
कर दिया था, यद्यपि वे बड़े अच्छे ढंग के साथ पड़े थे-दो छोटे दाग उसकी
दोनों आंखों के नीचे थे और जरा बड़ा तीसरा दाग बिंदी की जगह माथे
पर था! इस प्रकार की तरतीब किसी ऐसे ही कलाकार की करतूत थी,
जिसका काम केवल मनुष्य के सौंदर्य को बिगाड़ना ही हों।
उस लड़की ने मुझे देखा-और देखती रही। डर उसकी आंखों से
धीरे-धीरे दूर हो गया था!
उसने रेत को अपने हाथों से झाड़कर सिर की सूती ओढ़नी संभाली,
बैठ गई, और तब बोली-“तुम भी शायद खाने की फिराक में हो? अच्छा
तो फिर खोदना शुरू करो! मेरे तो हाथ थक गए हैं। वहां...” उसने एक
ओर झोपड़ी की तरफ उंगली उठाते हुए कहा, “रोटी जरूर होगी...और
तरकारी भी...उस दूकान में अब भी काम होता है।”
मैं खोदने लगा। वह ज़रा देर खड़ी मुझे देखती रही, फिर मेरे पास
बैठकर मुझे मदद देने लगी।
हम चुपचांप खोदते गए। इस समय मैं नहीं कह सकता कि उस वक्त
मैंने ज़ाब्ता फौज़दारी, सदाचार, पराया माल, और भी बहुत-सी इसी क्स्म
की बातों को, जिनपर अकू्लमंद और तजुर्बेकार आदमियों की राय में ज़िंदगी
के हरेक कृदम को उठाने से पहले गौर करना चाहिए, जरा भी सोचा-विचारा
था।
सच्चाई के नजदीक से नजदीक रहने की वजह से मैं यह जरूर कहूंगा
कि खुदाई करनें में मैं इतना व्यस्त थां कि मुझे इसके सिवाय कि उसपेटी
में नीचे क्या होगा, दुनिया की किसी भी अन्य बात का ध्यान उस वक़्त
नहीं था!
सांझ घनी हो गई और उसके साथ ही खाकी चिपचिपाता और ठंडा
कोहरा भी घना होता चला गया। लहरें पहले से कहीं ज़्यादा शोर के साथ
सरसरा रही थीं। उन पेटियों के ऊपर पानी की धरें ज़्यादा ज़ोर के साथ
पड़ने लगी थी। और कहीं दूर पर पहरेवाले ने अपना पहरा भी शुरू कर
दिया था; बहकती हुई-सी उसकी आवाज, सुनाई पड़ जाती थी, कभी-कभी ।
इसकी तली भी है या नहीं?” मेरी सहायिका ने कोमल स्वर में पूछा।
मेरी समझ में नहीं आया कि वह किसके विषय में पूछ रही है, इसलिए
मैं चुप रहा।
“मैं पूछती हूं कि इस पेटी की गहराई की कोई थाह भी है? अगर
है, तो हम उसे पाने की बेकार कोशिश कर रहे हैं। हम इस तरह से खाई
खोद रहे हैं, जिसकी तह पर हमें खाली तख़्तों के सिवाय शायद और कुछ
न मिले। फिर हम उन्हें इतने नीचे घुसकर हटाएंगे कैसे? इससे तो अच्छा
यही है कि ताला तोड़ दो! ताला बिल्कुल रही है।”
औरतों के दिमाग़ में अच्छे ख़्यालात ज़रा कम उठा करते हैं, परंतु
उठा जरूर करते हैं। और मैंने अच्छे ख़्यालातों की हमेशा कुद्र की है और
जहां तक हो सका है, उनको काम में लाने की कोशिश भी! मैंने ताला
टटोला और पा लेने पर उसे झटकना शुरू किया! जरा देर में ही वह खुलकर
चोट खाए सांप की तरह बिलबिलाता हुआ एक तरफ जा पड़ा। पेटी का
चौखूंटा ढकक््कन खुल गया । इस पर वह धीमे प्रशंसात्मक स्वर में बोली-“तुम
तो बिलकुल पत्थर जैसे हो!”
आज स्त्री के मुंह से मुझे रत्ती भर तारीफ भी पुरुष की ढेर सारी
चापलूसी के मुकाबले में ज़्यादा प्यारी लगती है,चाहे वह चापलूसी प्राचीन
और अर्वाचीन सभी महान व्याख्यान दाताओं की सम्मिलित कला से भी
उत्तम क्यों न हो! लेकिन तब मैं लड़कियों का ज़रा कम ख़्याल करता था,
इसलिए उस वक़्त मैंने अपनी साधिन की प्रशंसा पर कोई ध्यान देना तो
अलग रहा, प्रत्युत कड़ाई और परेशानी के साथ पूछा-
क्या बात है?”
बड़े मलिन स्वर में उसने हमारी प्राप्ति का ब्यौरा देखना शुरू ॥9
“टोकरी भर बोतलें-मोटी-मोटी फ्रें-एक छतरी,एक लोहे का बर्तन!
लेकिन यह सब तो खाए नहीं जा सकते थे; सो मैं रही-सही आशा
भी खो बैठा था कि वह बड़े ललचाए स्वर में बोल उठी-“अहाहा! मिल
गया!”
“क्या?”
“रेटी...रोटी...जरा गली हुई है-लो!”
एक रोटी मेरे पैरों के पास आकर गिर पड़ी और उसके बाद मेरी
साहसी साथिन भी; लेकिन तब तक मैं एक कौर काट चुका था, उससे
मेरा मुंह भरा हुआ था, और मैं उसे जल्दी-जल्दी चबाने की कोशिश कर
रहा था।
वहीं
“लाओ-जरा-सी मुझे भी दो-और हमें अब यहां ठहरना नहीं
चाहिए-लेकिन हम जाएंगे कहां?”
उसने प्रश्नसूचक दृष्टि से चारों ओर
देखा-चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा, पानी-पानी-और डरावरा!
“देखो-वहां एक उल्टी डोंगी पड़ी है, चलो वहीं चलें!”
“अच्छा तो चलो!” और हम लोग चल दिए, अपनी लूट को मुंह
भर-भर कर जल्दी जल्दी खाते हुए!
पानी और भी ज़ोर से बरसने लगा। नदी की गड़गड़ाहट भी बढ़ रही
थीं। कहीं न कहीं सीटी की एक लंबी, तेज, उपहास सी करती हुई आवाज़
आती मालूम पड़ रही थी-मानो वह कोई महान-व्यक्ति, जिसे ईश्वर कहते
हैं, और जो किसी से नहीं डरता,-समस्त सांसारिक संस्थाओं की, इस पतझड़
की क्रूर वायु की, और हमारी हंसी उड़ा रही हो। और इस सीटी को सुन
कर मेरा दिल दर्द से कराह उठा; किंतु तब भी मैं लालच से खाए ही चला
गया और इस मामले में मेरे बराबर बाई तरफ चलती हुई मेरी साथिन लड़की
ने पूरी-पूरी तरह मेरा साथ दिया । नहीं जानता क्यों मैं उससे पूछ बैठा--
“तुम्हारा नाम क्या है?”
खूब चबर-चबर खाते हुए उसने छोटा-सा उत्तर दिया-- “नातशा ।”
मैंने उसे तन्मयता से देखा।
मेरे अंतर में कड़ी पीड़ा उठी। और फिर मैंने
अपने सामने और चारों तरफ फैले हुए धुंध में आंखें गड़ा दीं। मुझे लगा
कि मेरा दुर्भाग्य मुझपर एक रहस्यभरी क्रूर और रूखी हंसी-हंस रहा है!
डोंगी के तख़्तों पर पानी मूसलाधार पड़ रहा था और अंदर बूंदों की
आवाज बड़ी धीमी-धीमी आ रही थीं। इस धीमी मृदुल ध्वनि ने मेरे मन
में निराशा और दुख से भरे विचार जागृत कर दिए। नाव की तली के तख्ते
कुछ ढीले होने की वजह से हवा के जोर से खड़खड़ा रहे थे। इस खड़खड़
से बड़ी अशांति हो रही थी और जी बैठा जा रहा था। नदी की उत्ताल
तरंगें तट पर जैसे दुख के थपेड़े खा-खा कर, जीवन की आशा खोकर सर
पटक रही थीं; वे जैसे अपनी मलीनता को, निर्जीवता को सदैव के लिए
मृत्यु की गोद में सुला देना चाहती थीं; जैसे वे असह्य बोझ से आक्रांत
और शिथिल होकर खीझ उठी हों, और जिससे वे अब छुटकारा पाकर कहीं
दूर जाने की प्रबल लालसा कर रही हों-फिर भी उन सब दुखों का, निराशाओं
का, आभारों का, और मलीनताओं का रोना रोने में उन्हें शांति मिलती थी,
सुख मिलता था।
यह भी आवाज लहरों की छपछपाहट में मिल गई। डोंगी के ऊपर
से एक लंबी सर्द आह आती मालूम हुई-वह अनन्त थकित आह जैसे पृथ्वी
ने ग्रीष्म से शरद तक के ऋतु-परिवर्तन से आहत और क्रांत होकर खींची
हो। फेनिल नदी और उसके सुनसान किनारे पर झंझावात बहता ही रहा
अपने मातमी गीत गाते हुए।
डोंगी के नीचे हमें कृतई आराम नहीं मिल रहा था। जगह तंग और
सीली हुई थी। डोंगी की तली में नन्हें-नन्हें सूराख़ों से पानी टपक रहा था
और उन्हीं में से होकर हवा भी ठंडी तीर सी आ रही थीं हम चुपचाप बैठे
ठंड से ठिठुर रहे थे। मेरी तबियत सोने को कर रही थीं। नातशा डोगीं
की दीवार से चिपट कर बैठे रही और गुड़ीमुड़ी होकर गेंद की तरह हो
गई। अपने दोनों घुटनों को छाती में दाबे हुए वह उन पर अपनी ठोड़ी
टिकाए आंखें फाड़-फाड़कर नदी को देख रही थी। नीले निशानों की वजह
से उसकी वे आंखें सूखे हुए मुख पर बहुत बड़ी-बड़ी मालूम हो रही थीं।
वह हिली न डुली, और चुप ही रही ।
मुझे डर लगने लगा। मेरे जी में आया
उससे बोलूं-लेकिन बात किस तरह शुरू करूं, यह समझ में नहीं आता था।
फिर वही बोली-
“जीवन कितना भयानक शाप है!”
उसने एकदम सीधे-सीधे कह
डाला-लेकिन उसके स्वर में अनमनापन था और था आत्मविश्वास । उसका
यह कथन जीवन के प्रति उसकी कोई शिकायत नहीं थी। इन शब्दों में
इतनी उपेक्षा थी इतनी अन्यमनस्कता थी कि वे शिकायत तो कहे ही नहीं
जा सकते ! शिकायत करने में अपना एक लगाव रहता है। नातशा की भोली
आत्मा ने जैसे समझा, कह डाला; और अपने सीधे-सादे विचार से जो निष्कर्ष
उसने निकाला था, वह प्रगट कर दिया। मैंने उसके कथन का विरोध नहीं
किया, क्योंकि मुझे डर था कि कहीं वास्तव में मैं अपना ही विरोध न कर
बैठ! इसलिए मैं चुपचाप रहा और वह भी ऐसे ही अचल बैठी रही, जैसे
उसको चलायमान करने के लिए वहां कोई भी न हो।
“अगर हम बलबलाएं भी...तो फायदा?”-नातशा ने शांति और
विचारशीलता पूर्वक फिर कहना शुरू किया, और अब भी उसके स्वर से
किसी प्रकार की शिकायत की ध्वनि नहीं टपकती थी। यह स्पष्ट था कि
वह बेचारी जो कुछ भी बोल रही है और कह रही है, सो अपने अनुभवों
को ही दृष्टिगत करके ही तो!
जीवन के विकराल व्यंग और विकट उपहास
से अपनी रक्षा करने के लिए ही तो उसे ऐसी धारणाएं बनाने के लिए मजबूर
होना पड़ा है। और जिस परिस्थिति में वह थी, उसमें “बलबलाने”” के सिवाय
वह और कुछ कर भी तो नहीं सकती थी!
इस विचारधारा की सच्चाई मेरे लिए प्राण-पीड़क हो उठी! और मुझे
लगा कि अगर मैं कुछ देर और चुप रहा, तो रोने की नौबत आ जाएगी।
और औरत के सामने रोना बड़ी शर्म की बात होती, और खासतौर से तब,
जब वहीं स्वयं नहीं रो रही थीं मैंने उससे बोलने का संकल्प कर ही तो
लिया।
“नातशा-बतलाओ तो तुम्हें किसी ने ठुकराया है?”-मैंने पूछा। इस
प्रश्न से अधिक सीधी और मुलायम दूसरी बात मेरी समझ में नहीं आई।
“यह सब पाशका ने किया,” उसने मेरी सी आवाज में कहा।
पाशका कौन ?
प्रेरा प्रेमी; वह नानबाई था।
क्या वह अक्सर पीटा करता था?
जब भी वह नशे में रहता मुझे मारता था-और अक्सर ही।
और फिर एकदम मेरी तरफ् मुड़कर वह मुझसे पाशका और उससे
अपने परस्पर संबंध के बारे में बात करने लगी। उसने बतलाया कि पाशका
नानबाई था। उसके लाल मूछें थीं और वह बैंजो बहुत बढ़िया बजाता था।
वह नातशा से अक्सर मिलने आता था, और उसे खुश करता था। बड़े
मजे का आदमी था वह। कपड़े भी एकदम साफ पहनता था। उसकी बास्कट
पंद्रह रूबल की थी और घुटनों तक के बूट थे, इसीलिए वह उससे प्रेम
करने लगी थी और धीरे-धीरे पाशकां उससे पैसा भी उधार लेने लगा था।
पैसा जो कि और लोग नातशा को मिठाई खाने के लिए देते थे, उन्हें भी
पाशका उससे छीन ले जाता था और उनकी शराब पी डालता था। शराब
पीकर फिर नातशा को मारता था।
लेकिन वह बोली-“सो तो कुछ बात
नहीं थी-वह चाहे मुझे जितना और मार लेता-लेकिन और दूसरी लड़कियों
के पीछे जो फिरने लगा था-सो यह क्या मेरा अपमान नहीं था? मैं क्या
उन लड़कियों से भी बुरी हूं! इसके साफ मानी यह थे कि वह मेरी उपेक्षा
ही नहीं, उपहास भी करने लगा था! निर्दयी कहीं का!-परसों मैं अपनी
मालकिन से जरा देर के लिए घूमने की इजाजत लेकर बाहर निकली थी!
पाशका के पास पहुंची, तो देखा कि दिसका उसकी बगल में बैठी हुई है,
नशे में चूर! और वह भी गुलटंग था। मैंने फटकारा-““बदमाश !”” बस उसने
मेरी कुटंती करनी शुरू कर दी।
मेरी चोटी पकड़ कर घसीटा और लातों
से मारा!
लेकिन जो कुगति उसने इसके बाद मेरी की, सो कुछ न पूछो!
उसने मेरे पास जो कुछ भी था, उसकी खूब दुर्दशा की। और इस हालत
को, जिसमें इस वक़्त मैं हूं, मुझे पहुंचाकर छोड़ दिया । फिर मैं अपनी मालकिन
के पास कौन सी सूरत लेकर जाती ?-उसने मेरा सब कुछ बिगाड़ दिया-मेरा
साया-और मेरी बिल्कुल नई कुर्ती भी, जिसके लिये मैंने पांच का नोट
खर्च किया था-सर से रूमाल खींच कर फाड़ डाला। हे ईश्वर! हाय अब
मैं क्या करूं !”-वह यकायक शोकाकुल हो उठी। उसका स्वर जैसे खिंचा
जा रहा था।
हवा हूकती ही रही; और भी ठंडी होती चली जा रही थी ।...मेरे दांत
फिर किटकिटाने लगे!
नातशा सिमटी और मुझसे बिलकुल चिपटकर बैठ गई, और तब उस
अंधकार में मुझे उसके नेत्रों की चमक दिखाई पड़ी।
तुम सब आदमी कमीने हो! मेरा बस चले तो सबको भट्टी में फूंक
दूं-बोटी-बोटी काट डालूं! अगर कोई पुरुष मरता हो तो मैं उसके मुंह में
थूक दूं। रत्ती भर रहम जो करूं कभी ! कमीने ! लुच्चे कहीं के ! पहले घिधियाते
हैं, खुशामद करते हैं, कुत्तो की तरह पैरों पर लोटते हैं। और हम बेवकूफ
औरतें तुम्हारी बातों में आकर अपना संब कुछ अर्पण कर देती हैं। और
तुम हमें अपने पैरों तले रौंदते हों-अवारा गुण्डे कहीं के!
नातशा ने खूब जी भरकर पुरुषों को गालियां दीं और कोसा! लेकिन
“अवारा गुण्डों” को उसके इस कोसने में कोई जान, कोई घृणा, कोई कुत्सित
भावना मुझे मालूम नहीं पड़ी!
जितने कटु शब्द उसने कहे थे, उनका स्वर
उतना कटु नहीं था। उसकी आवाज में काफी शांति थी, और उसका जोर
बहुत कम था! फिर भी इन सबका प्रभाव मेरे ऊपर उससे भी कहीं ज़्यादा
पड़ा था, जितना कि निराशावाद की बड़ी-बड़ी पुस्तकें पढ़कर और महान
व्याख्यान सुनकर भी कभी नहीं पड़ा था! और न आगे भी पड़ सका है।
इसकी सीधी-सी वजह है : वास्तव में मरते हुए आदमी का आक्रोश मृत्यु
के सूक्ष्म और सजीवतम वर्णन से भी कहीं अधिक यथार्थ, सत्य,
स्वाभाविक और प्रभावशाली होता है।
सचमुच मुझे बड़ा बुरा लग रहा था-अपनी साधिन की गालियों से
नहीं, वरन सर्दी की वजह से!
मैंने धीरे से एक आह भरी और दांत पीसे!
और तभी मुझे दो नन्ही कोमल बाहें अपनी गर्दन और मुख को स्पर्श करती
प्रतीत हुई-और उसी क्षण में एक आतुर, कोमल, सहानुभूतिसिक्त स्वर
' भी मेरे अंतस्तल को छू गया- तुम्हें कौन सा दुख है?
इस सवाल को पूछनेवाली क्या यह वही नातशा थी जो अभी अभी
सारी पुरुष जाति को दुनिया भर की गालियां सुना चुकी थी, और उनके
आमूल नाश पर तुली हुई थी!
मैं विश्वास करने के लिए तैयार था कि
यह वही नातशा नहीं थी। परंतु वास्तविकता तो दूसरी ही थी। यही नातशा
थी वह, और वह द्वुत स्वर से कह रही थी।
ओह बोलो न!
तुम्हें क्या दुख हैं?
सर्दी लग रही है? ठंड खा गए हो
हो?
गुमसुम चुपचाप बुत बने बैठे हो! बोलते क्यों नहीं! मझसे पहले ही
क्यों नहीं कह दिया था कि सर्दी लग गई है! अच्छा आओ यहीं लेट जाओ
“पर फैला लो...हां ठीक है! कहो अब कैसा लग रहा है? ओह! अपने हाथ
मेरी कमर में तो डालो...और कसकर! ओह कितना अच्छा लगता है ! है
न?...खूब गरम हो जाओगे अभी...फिर रात भर मजे से सोना! रात बहुत
जल्द बीत जाएगी, देखना न!...अरे क्या तुम भी पीते हो...? घर से निकाल
दिए गए हो क्या, हाय!...तो क्या हुआ।” और-और उसने मेरे साथ पूरी
सहूलियत बरती...! मुझे बड़ा सुख...दिया!-और फिर ढाढ़स भी बंधाया!
कल्पना कीजिए! इस एकाकी घटना में कितना क्रूर व्यंग भरा था!
एक मैं था, जो इस समय मानवता के भाग्य पर सोच-विचार कर रहा था;
समाज के ढांचे और राजनीतिक आंदोलनों के पुनर्निमाण का इरादा कर
रहा था; महान दानवी विद्धत्ता से पूर्ण पुस्तकों के उस अथाह गंभीर ज्ञान
का, जिसे उनके लेखक भी नहीं समझते थे, इसी समय पर्यालोचन कर रहा
था। और अपनी समस्त शक्ति लगाकर अपने को एक जानदार सक्रिय
सामाजिक शक्ति बनाने की कोशिश कर रहा था। मुझे यहां तक लगने
लगा कि जैसे मैंने कुछ-कुछ सफलता भी अपने उद्देश्य में प्राप्त कर ली
है! जो भी हो, इस समय जो कुछ भी मैं अपने विषय में सोच रहा था,
उसने मुझे विश्वास दिलाया है कि मुझे संसार में जीवित रहने का पूरा हकु
है। और मैं संसार के इतिहास में महत्त्वपूर्ण भाग लेने के सर्वथा योग्य हूं।
अरे इन क्षणों में एक नारी मुझे जीवन प्रदान कर रही थी-वह नारी जो
अभागिन थी, अबला थी, सताई हुई थी, और जिसका जीवन में न कोई
मूल्य था और न कोई हस्ती; जिसकी मैंने कोई सहायता नहीं की, और
जिसने उल्टी मेरी ही सहायता की-और यदि सहायता करने की भावना
भी मेरे दिल में उठी होती, तो मैं नहीं समझ पाता कि सहायता करता तो
किस तरह!
हे आह! और मैं यह सोचने के लिए प्रस्तुत था कि यह सब यथार्थ
“एक स्वप्न है! भयानक स्वप्न! कष्टकर स्वप्न!
उफृ! लेकिन यह सोचना असंभव था, क्योंकि ठंडी-ठंडी बूंदें मेरे ऊपर
टपक रही थीं-और नातशा मुझसे सटी हुई थी...उसके गरम-गरम मादक
निश्वास मेरे मुख को सहला रहे थे, यद्यपि उनमें मदिरा की गंध आ रही
थी...फिर भी मुझे बड़ा प्यारा-प्यारा लग रहा था ।...बाहर हवा हूक रही थी
और झुंझला रही थी। डोंगी पर पानी भी पड़ रहा था। नदी की लहरें तट
से सिर धुन रही थीं...और हम लोग संपूर्ण आलिंगन में आबद्ध प्रेम में एक
हुए जा रहे थे फिर भी सर्दी से कांप रहे थे! मुझे विश्वास है कि किसी
ने भी इससे अधिक कष्टकर और भयंकर स्वप्न भी नहीं देखा होगा!
और नातशा बराबर बात करती रही, इधर-उधर की, न जाने कहां-कहां
की, लेकिन उसके स्वर में सहानुभूति थी-और वह चीज़ थी, जो केवल
नारी ही दे सकती है! उसकी ऐसी प्यारी सुंदर बातों के प्रभाव से मेरे अंतर
में एक चिनगारी सुलग उठी, और फलस्वरूप मेरे हृदय में से कुछ द्रवित
होकर गतिशील हो गया! ओलों की तरह आंसू मेरी आंखों से बह चले।
और उस प्रवाह में मेरी बहुत कुछ बुराइयां, दुर्गुण, दुःख और गंदगी, जो
रात मेरे हृदय को दूषित किए हुए थे, बह गए-धुल गए!
नातशा मुझे सुख जो दे रही थी!
अच्छा अच्छा बहुत हो गया। मान जाओ...मन भारी करने की कोई
बात नहीं है...ईश्वर तुम्हें और भी सुअवसर देगा...अपने को संभाल कर
फिर अपना ठीक-ठिकाना कर सकोगे!-फिर सब ठीक हो जाएगा-सब
ठीक!” और अपने प्रगाढ़ आलिंगन में कसे-कसे वह मुझ पर अनगिनती
चुंबन वारने लगी...प्यार से भरे वे मादक चुंबन...लेकिन सब व्यर्थ-!-सब
व्यर्थ-!
उस दिन जीवन में सबसे पहले किसी नारी ने मुझे चूमा था-और
शायद अंतिम बार भी-क्योंकि उतने जीवन से पूर्ण चुंबन फिर मैंने आज
तक नहीं पाए-बाद को जितना भी प्यार मुझे मिला, उसके लिए मुझे बड़ा
मूल्य चुकाना पड़ा-और वास्तव में लाभ कुछ भी नहीं हुआ।
आओ! मन को क्यों मैला करते हो! अगर तुम्हारा कहीं ठीक इंतज़ाम
नहीं होगा, तो मैं करूंगी”',--और उसका यह शांत आश्वासन से भरा-भरा
धीमा स्वर मुझे मानो स्वप्न में सुनाई पड़ रहा था
और हम दोनों ऐसे ही भोर तक लेटे रहे
सबेरा होने पर हम उस डोंगी के नीचे से निकल कर बाहर आए और
शहर में चले गए...फिर हमने अच्छे मित्रों की तरह ही परस्पर बिदाई ली,
और फिर कभी नहीं मिले! अपनी अच्छी नातशा को, उस नातशा को, जिसने
उस पतझर की भयावह रात में मुझे सुख दिया था-दूंढ निकालने के लिए
मैंने शहर का कोना कोना छान डाला।
पर नातशा न मिली,न मिली!
अगर वह मर गई है, तब तो अच्छा ही है; जीवन के दुखपूर्ण जंजाल
से छूट गई; “ईश्वर उसकी आत्मा को शांति दे!” किंतु यदि वह जीवित
है...तब भी मैं कहूंगा-“ईश्वर उसकी आत्मा को शांति दे!”...और उसे कभी
भी अपने पतन का ध्यान भी न आए!...क्योंकि वह एक बेकार की व्यथा
होगी, अगर जीवन जीवित रहने के लिए ही है तो!