रात के आकाश की गहरी नीलिमा में से प्रभात ने झांक कर देखा कि
एक युवक तेजी के साथ संकेत की तरह उठे हुए पर्वत की ओर चला जा
रहा है।  
उसका हृदय समस्त संसार की गति से स्पंदित था।  
बिना तनिक
सी भी चिंता किए हुए वह समतल मैदान पर घंटों ही चलता रहा। जब
वह जंगल के निकट पहुंचा, तो उसे एकदम समीप और सुदूर से आती
हुई एक बड़ी ही रहस्यमय सी ध्वनि सुनाई पड़ी, “युवक! अगर तुम हत्या
नहीं करना चाहते, तो इस जंगल में होकर मत जाओ!” 
 युवक आश्चर्य से स्तंभित खड़ा रह गया। 
 चारों तरफ घूमकर देखा,
पर उसे एक चिड़िया भी नज़र नहीं आई। तब उसे निश्चय हो गया कि
कोई प्रेत बोल रहा था। किंतु उसके जन्मजात साहस ने विचित्र चेतावनी
की ओर ध्यान नहीं देने दिया।
पर उसने अपनी चाल जरा धीमी ज़रूर
कर दी और बिना किसी भय के अपने रास्ते पर चल दिया। संज्ञा उसकी
जागृत थी और राह में मिलनेवाले किसी भी अज्ञात शत्रु का सामना करने
के लिए पूरी तरह से सतर्क भी।  
पेड़ों की घनी परछाई में से निकल कर
वह बाहर खुले में आ पहुंचा, किंतु उसे कोई भी संदेह भरी ध्वनि फिर सुनाई
नहीं पड़ी और न कोई ललकार ही! 
अब वह एक बड़े पेड़ के नीचे आ पहुंचा था। वहां विश्राम करने
के लिए वह बैठ गया। उसकी आंखें अपने सामने पड़े हुए बड़े मैदान पर

तिरती हुई पर्वत की उस नग्न और सुरेख चोटी तक पहुंची, जो उसका
गंतव्य थी।
 
 पर उस स्थान से वह उठे उठे कि दुबारा वही भेद-भरी
सुनाई पड़ी-एकदम समीप से-एकदम सुदूर से आती हुईं, कप या
कहीं अधिक गंभीरता के साथ

“युवक! इस मैदान को पार मत कर जाना, अगर अपनी मातृभूमि
पर आफृत नहीं बुलाना चाहते हो,तो!”
इस बार युवक के स्वाभिमान ने उसे कोई परवाह नहीं करने दी,और
स्वयं उस अर्थहीन तथा मूर्खतापूर्ण चेतावनी पर, जिसमें जैसे कुछ भारी भेद
भरा हो, मुस्करा पड़ा और तेजी से चल दिया। मालूम नहीं कि अशांति
या आकुलता, किसने उसके पैरों में गति भर दी थी। 
जब वह पर्वत के नीचे अपने गंतव्य के निकट पहुंचा, शाम का गीलां
धुंध मैदान पर छा चुका था। पत्थर पर वह पूरी तरह से अपना पैर भी
नहीं रख पाया था कि वही ध्वनि फिर गूंजने लगी--एकदम समीप से एकदम
सुदूर से-रहस्यमय-किंतु इस बार वह अधिक डरावनी थी-

“युवक और आगे कृदम मत रखो, वरना मार डाले जाओगे!”
 
युवक जोर से हंसा और बिना जल्दबाजी या हिचकिचाहट के अपनी
- राह पर चलता ही गया। 
 और जैसे-जैसे वह ऊपर चढ़ता जाता था, अंधेरा होता जाता था, किंतु
उसका उत्साह बढ़ता ही गया। जिस समय वह ऐन शिखर पर पहुंचा, उसके

मस्तक को सूर्य की अंतिम किरण ने चूमकर ज्योतित कर दिया।

 “लो मैं आ पहुंचा!” उसने विजयोल्लास से भर कर कहा, “ओ बुरे
या भले अज्ञात प्रेत! यदि तू मेरी परीक्षा लेना चाहता था, तो मैं सफल
हो गया! किसी भी हत्या का पाप मेरी आत्मा पर नहीं है; मेरी मातृभूमि
. नीचे चैन से शांत लेटी हुई है, और मैं अभी भी जीवित हूं। तू जो कोई
भी हो, मैं तुझसे अधिक शक्तिशाली हूं, क्योंकि मैंने तेरी आज्ञा का उल्लंघन
<करके अपने कर्तव्य का पालन किया है!”
 पर्वत में से जैसे कड़ककर बिजली फट पड़ी-“युवक तू भूलता है!”

इन शब्दों के अति दुर्वह बोझ के नीचे युवक दब सा गया।
चट्टान के किनारे पर बैठकर वह जैसे आराम करने के लिए लेटने 
लगा, और ओठों को मरोड़ कर चाबा और बड़बड़ाया-“तो मालूम होता
है कि मैंने अनजाने ही कोई हत्या कर डाली!” 
 "तेरे लापरवाह कृदमों ने एक कीड़े को कुचल दिया-” प्रत्युत्तर
प्रतिध्वनित हुआ,

और युवक ने फिर अन्यमनस्क होकर उत्तर दिया-“ओह ! अब समझा !
कोई बुरा या भला प्रेत मुझमें नहीं बोल रहा था, बल्कि एक ऐसा प्रेत, जो
मजाक भी करना जानता है। मुझे नहीं मालूम था कि इस मृत्युलोक में
भी ऐसे विचित्र प्राणी रमण किया करते हैं।
अंधेरी में मिटती हुई द्वाभा में जो वे ऊंची-ऊंची पर्वत श्रेणियां खोई
जा रही थीं, उन्हीं में से फिर प्रत्युत्तर प्रतिध्यनित हुआ-“क्या तुम अब
भी वही युवक हो जिसकी आत्मा प्रातःकाल विश्व-संगीत से स्पंदित थी?
क्या तुम्हारी आत्मा इतनी गिर गई है कि वह एक कीड़े के भी दुख दर्द
से द्रवीभूत नहीं हो सकती ?”
 
 “क्या यही तुम्हारा मतलब था?” युवक ने माथे में बल डालते हुए
पूछा “तब क्‍या मैं उन्हीं असंख्य जीवों की तरह हज़ारों लाखों गुना हत्यारा
हूं, जिनके पैरों तले अनजाने ही अनगिनती कीड़े-मकोड़े कुचल जाते हैं?”

“सो हो या न हो, पर इस विशेष जीव की हत्या न करने के लिए
तुम्हें पहले ही चेतावनी दे दी गई थी। क्‍या तुम जानते हो कि सृष्टि के
शाश्वत विधान में इस कीड़े का क्‍या महत्त्व था?” 
 सर झुकाकर युवक ने उत्तर दिया-“क्योंकि न तो मैं इस बात को
जानता ही था और न जान ही सका था, इसलिये तुम्हें विनयपूर्वक यह
मानना ही पड़ेगा कि मैंने उन अनेक संभाव्य हत्याओं में से, जिन्हें तुम रोकना
चाहते थे, केवल एक ही की है। किंतु मैं यह जानने के लिए बहुत उत्सुक
हूं कि आखिर उस मैदान को पार करके मैंने अपनी मातृभूमि पर कैसे आफृत
बुला ली है।”

 “युवक! तुमने वह रंगीन तितली देखी,” एक फुसफुसाहट सी युवक
के कान में हुई, “जो एक बार तुम्हारी दाहिनी तरफ उड़ रही थी?
“तितलियां तो बहुत सी देखीं और वह भी जिसका जिक्र तुमने किया ।” 
“बहुत सी तितलियां! और बहुत सी तितलियों को तेरी सांस ने उनके ठीक रास्ते से उड़ाकर भटका दिया है; किंतु अभी मैंने जिसका जिक्र किया
है, वह पूर्व की ओर चली गई है और बहुत दूर तक उड़ती-उड़ती राजमहत
के उपवन में पहुंच गई। अब उस तितली का जो बच्चा होगा,वह अगले
वर्ष ग्रीष्म की एक तपती दोपहरी के बाद निद्रा की गोद में सोई हुई गर्भवती
सुकुमारी युवती राजरानी की श्वेत सुकोमल ग्रीवा पर रेंग कर उनको यकायक
इतनी जोर से जगा देगा कि उनका हृदय धक से रह जाएगा और अजात
शिशु गर्भ में ही मर जाएगा। 
 इस प्रकार राज्य का शासक उचित उत्तराधिकारी
न होकर राजा का भाई होगा। और उचित उत्तराधिकारी की हत्या के कारण
तुम्हीं हो। राजा का भाई क्रूर, निर्दयी, अन्यायी और अत्याचारी है। उसके
शासन से निराश होकर प्रजा पागल हो जाएगी, और तब अपनी जान बचाने
के लिए वह राजा समस्त देश में एक भयानक युद्ध खड़ा करवा देगा, जिससे
तेरी प्यारी मातृभूमि का सर्वनाश हो जाएगा! 

 

 और इस सबका दोष तेरे सिवाय
और किसी के सिर न मढ़ा जाएगा और इस सबका कारण है तेरी सांस
से उस तितली का पूर्व की ओर राजमहल के उपवन में उड़ जाना!”
 युवक ने अपने कंधे उचकाए, “हे अद्दृष्ट प्रेत! मैं यह कैसे मना कर
सकता हूं कि जो कुछ भविष्यवाणी तुमने की है, वह सब नहीं होगी, क्योंकि
इस पृथ्वी पर एक चीज़ से ही दूसरी चीज़ उत्पन्न होती है, और अक्सर
ही अत्यंत भयानक घटनाएं अत्यंत तुच्छ घटनाओं के कारण हो जाती हैं,
और इसी तरह अत्यंत तुच्छ घटनाएं भी अत्यंत विकराल घटनाओं के कारण
हो जाती हैं? 

और फिर मैं इसी भविष्यवाणी में क्‍यों विश्वास करूं, जब
कि मेरी मृत्यु के विषय में तुमने कहा था कि वह तुम्हारे चोटी पर पहुंचते
ही हो जाएगी सो अभी तक नहीं हुई है!” 
 “जो चढ़ता है, उसे लौटकर भी जाना ही होगा; अगर वह फिर अपने
मानव भाई बंधुओं के साथ रहना चाहता है,” वह भयावह आवाज गूंज
उठी, “क्या तुमने कभी यह भी सोचा था।”
युवक यकायक रुका और उसने सोचा कि वह सुरक्षित रास्ते से नीचे
उतर जाएगा, किंतु रात का अभेद्य अंधकार उसे अपने अंदर पहले ही बंदी
कर चुका था ओर जब तक प्रभात न हो, उसका छुटकारा असंभव था।
इतने खतरनाक रास्ते को तय करने के लिए दिन का उजाला अनिवार्य रूप 
 से अपेक्षित था ही। वह दिन कल सवेरे आएगा ही, और तब पूरे साहस
के साथ वह अपनी राह चल देगा-यह सोचकर वह वहीं चट्टान पर लेटकर
विश्वांतिदायक नींद को बुलाने की चेष्टा करने लगा।
 वहां अविचल वह लेट रहा। मन में तरह-त्तरह की भावनाएं उठ उठ
कर उसे सोने नहीं दे रही थीं! आखिर उसने अपनी मुंदी हुई आंखों के
आरी पलकों को खोला, पर अपने चारों ओर देखते ही डर के मारे उसका
दिल और रोम-रोम सिहर उठे! एक काला कगार उसे दीख पड़ रहा था,
केवल जिसके ऊपर ही होकर नीचे पृथ्वी पर जीवित लौटने के लिए एक
राह थी। अभी तक अपने पथ की पूर्ण जानकारी का विश्वास उसे था,
पर अब संदेह उसके मन में उपजा और बढ़ता ही चला गया, यहां तक
कि फिर वह इतनी भीषण परेशानी में परिवर्तित हो गया कि युवक उसे
सह सकने में सर्वथा असमर्थ हो गया। इसलिये अनिश्चितता की दुविधा
में पड़े रह कर सवेरे की प्रतीक्षा में परेशान रहने की अपेक्षा उसने तत्काल
ही अपनी राह पकड़ने का संकल्प किया, क्योंकि लौटना तो उसे था ही।

दिवस के वरदान स्वरूप प्रकाश के बिना ही उस अज्ञेय मार्ग पर जाने
के लिए वह कमर कसकर खड़ा हो गया, पर उसने एक पग ही आगे बढ़ाया
था कि उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो अटल न्याय उसकी भर्त्सना कर रहा
है और उसके भाग्य का निपटारा बस अब होने ही वाला है। 


क्षुब्ध और क्रोधित वह शून्य में ही चीत्कार कर उठा-“हे अदृष्ट प्रेत!
तू कौन है? मेरे प्राण लेने से पहले मुझे बतला तो सही। तेरी आज्ञाओं
की अभी तक मैं अवहेलना करता रहा हूं, पर अब तेरे सामने मैं अपनी
हार स्वीकार करता हूं-सर झुकाता हू-पर मुझे बतला कि आखिर तू है
कौन?” 
एकदम समीप से-एकदम सुदूर से फिर एक ध्वनि गूंज उठी। 
 “आज तक किसी भी जीवन ने मुझको नहीं जाना है। मेरी अनेक
संज्ञाएं हैं! धर्ममीरु मुझे “नियति” के नाम से पुकारते हैं, मूर्ख मुझे “भाग्य!
कहते हैं और पवित्रात्मा मुझे परमात्मा के रूप में पहचानते हैं। जो अपने
को बुद्धिमान समझते हैं, उनके लिए मैं वह शाश्वत शक्ति हूं, जो आदिकाल
से उपस्थित है और अंतकाल तक रहेगी?”

तब मैं अपने जीवन की इन अंतिम घड़ियों में तुझें आप देता हूँ  
मौत की कटुता से भरे हुए युवक के हृदय ने चीत्कार की, “यदि वास्तव
में तू वही शक्ति है, जो सृष्टि के आदि काल में थी और अ मृत ही अंतकाल
तक रहेगी, तब तो जो कुछ हुआ है वह पहले ही नियत था-कि मैं जंगल
में होकर जाऊं और अनजाने ही एक हत्या कर डालूं, कि मैं मैदान को
पार करने से ही अपनी मातृभूमि के सर्वनगाश का कारण बन जाऊं और
कि मैं इस पर्वत के शिखर पर आकर मृत्यु को गले लगाऊं-यह सब
हुआ तेरी चेतावनी दे देने पर भी! 
 पर यदि तेरी चेतावनी मेरी कोई भी
सहायता करनेवाली थी, तब वह मुझे व्यर्थ ही परेशान करने के लिए सुनाई
क्यों गई? और क्‍यों-हे व्यंगों के भी क्रूर व्यंग मैं अपने इस अंतिम समय
में भी तुझ से वह प्रश्न पूछ रहा हूं?”
एक कठोर और भयानक भेद भरे अट्टहास से गूंजता हुआ उत्तर
महाशून्य की अज्ञात अपरिचित सीमाओं से टकरा कर प्रतिध्वनित हो उठा! 
जैसे ही युवक उस प्रतिध्वनि को सुनने और समझने के लिए प्रस्तुत हुआ,
जमीन हिली और उसके पैरों तले से खिसक गई!  
 वह गिरा और काल के
कराल वातायन में से उच्चकती हुई अनादि अनंत रात्रियों के अमिट अंधकार
में होता हुआ असंख्य अतल गर्तों से भी कहीं नीचे गिरता चला गया...

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