उस दिन सवेरे जान पड़ा कि काठ का उल्लू ही नहीं, काठ का शेर भी होता है। अपनी बुद्धिमानी की प्रशंसा करते हुए हम लोग अपने कैंप में लौटे। हमारे साथ ही साथ आकाश से पानी भी आया। पानी बरसने लगा। मुझे भारतवर्ष में आये सात महीने हुए थे। पुस्तकों में पढ़ा था, मानसूनी पानी भारतवर्ष में बरसता है। परन्तु मानसून क्या बला है, आज देखने में आया।

मैं लन्दन से दूर एक काउंटी स्कूल में पढ़ता था। वहीं से लन्दन विश्वविद्यालय की मैट्रिकुलेशन परीक्षा पासकर मैं वूलविच के सैनिक स्कूल में भरती हो गया। जब मैं काउंटी स्कूल में पढ़ता था तब भूगोल की एक पुस्तक पढ़ायी जाती थी। ढाई सौ पृष्ठ की वह एक पुस्तक थी जिसमें सोलह पृष्ठ भारत के लिये भी थे। उसमें केवल इतनी बातें मुख्यतः हमें बतायी गयी थीं - भारत बहुत बड़ा देश है। उसकी आबादी पैंतीस करोड़ के लगभग है। इसमें सैकड़ों जातियाँ रहती हैं। चार सौ भाषायें बोली जाती हैं। लोग सदा लड़ते हैं। हम लोगों ने अपने बाहुबल से उसे विजय किया है, तब से शान्ति हुई है। हम लोगों ने वहाँ सड़कें बनवायी हैं और स्कूल खोले हैं। दुकानें भी खोली हैं। अब भारतवासी नैकटाई बाँधना जान गये हैं। बिस्कुट खाना जान गये हैं। उस पुस्तक में लेखक ने बड़े गर्व से लिखा था कि यह हम लोगों की कार्यक्षमता है कि भारतवर्ष में भी स्त्रियाँ वैसी ही कला से लिपस्टिक लगा लेती हैं जैसे लन्दन नगर की रहनेवाली महिलायें।

बारह पृष्ठों में यही सब बातें थीं। चार पृष्ठों में भारत की जलवायु के सम्बन्ध में भी लिखा था। उसी में पहले-पहल मानसून का विवरण मिला था। जो बताया गया, वह समझ में कुछ ठीक नहीं आया। मैंने समझ रखा था कि मानसून एक प्रकार का बादल होता है जो हिमालय से टकराता है और पानी बरसाता है।

आज जब पानी बरसने लगा तब मैंने समझा कि मानसूनी बरसात कैसी होती है। आकाश में बादल छा जाते हैं और पानी बरसना आरम्भ होता है। मटर के बराबर बूँदें होती हैं और एक-एक सप्ताह तक लगातार बरसती हैं। यदि छाता लगाइये तो छाता छेदकर बूँदें आपके सिर पर कूदने लगती हैं। अभी तक कोई ऐसा कपड़ा नहीं बना जिसका छाता लगाकर मानसूनी पानी से आप बच सकें।

दोपहर जब हो गयी तब भी पानी रुकने की कोई आशा नहीं थी। राजा साहब ने कहा कि अब तो शिकार असम्भव है। खेमे के भीतर एक झील-सी बन गयी थी। हम लोग कार पर घर लौटे। नौकरों को आज्ञा दी गयी कि सारा सामान गाड़ी पर लेकर लौट चलें।

हम लोगों की मोटर गाड़ी का आधा भाग पानी में था। ऊपर से पानी बरस रहा था और नीचे चारों ओर जहाँ तक दृष्टि जा सकती थी जल ही जल दिखायी पड़ता था। घर तक हम लोगों की मोटरगाड़ी एक प्रकार से पानी में तैरती आयी। जंगल तो जंगल, जब नगर में हम पहुँच गये तब भी सड़कों पर जल लहरा रहा था। सड़कों पर न नालियाँ दिखायी पड़ती थीं न परनाले।

नगर में प्रवेश करते ही मैंने एक और दृश्य देखा जिससे जान पड़ा कि इस देश के नागरिक बड़े चतुर होते हैं और अपने यहाँ की म्यूनिसपैलिटी को विशेष कष्ट नहीं देना चाहते। साल-भर अनेक प्रकार के कूड़े घर के भीतर लोग एकत्र कर रखते हैं और जब सड़कों पर मानसूनी बरसात की नदी बहने लगती है तब उसमें बहा देते हैं। इतना काम म्यूनिसपैलिटी का हल्का हो जाता है।

हमने देखा कि सड़कों पर जल में सड़े-गले सामान और कतवार बहे चले जाते थे और लोग घर की ऊपर की खिड़कियों से फेंकते भी जाते थे। हमारी गाड़ी बीच सड़क ही से जा रही थी, नहीं तो ठीक गाड़ी के ऊपर एक टोकरा कतवार का आके गिरता।

तीन घंटे में हम लोग घर पहुँचे। कपड़े बदले। पानी बन्द होने का नाम नहीं। राजा साहब ने कहा कि हम लोग इस समय कुछ कर नहीं सकते, इसलिये आपके मनोरंजन के लिये संगीत का प्रबन्ध करता हूँ। मैंने कहा - 'मैं तो अपने यहाँ का संगीत भी कम जानता हूँ। यहाँ का तो कुछ भी समझ में नहीं आयेगा। फिर भी सुनूँगा कि यहाँ लोग कैसे गाते हैं।'

आदमी गया। राजा साहब की बैठक में हम लोग बैठे। कुछ राजा साहब के कर्मचारी भी थे। आध घंटे के बाद तीन आदमी आये और बैठ गये।

एक आदमी बीच में बैठा । उसके हाथ में एक विचित्र बाजा था जिसके एक ओर एक बड़े भारी कद्दू का आधा भाग था जिसमें एक पतला खम्भा लगाया था। इस खम्भे के ऊपर चार खूँटियाँ लगी थीं। जिनमें से तार नीचे तक लगे थे। खम्भे को उसने अपने कन्धे पर रखा। उसकी दूसरी ओर एक और आदमी बैठा। उसके सम्मुख दो बाजे रखे गये थे। यह बाजे बिना हैंडिल के प्याले के समान थे। केवल मुँह पर चमड़ा लपेटा था जो चमड़ों की पतली-पतली पट्टियों से कसा था। गानेवाले की तीसरी ओर एक व्यक्ति हारमोनियम लेकर बैठा।

मुझे यह अनुभव हुआ कि भारतीय बाजों में बड़ी कमी है। हारमोनियम की सहायता के बिना वह नहीं बज सकते, जैसे हम लोगों के बिना भारत का शासन-प्रबन्ध नहीं हो सकता।

गानेवाला उँगलियों से तार बजाता था और दूसरा व्यक्ति एक छोटी हथौड़ी लेकर, अपने बाजे को कभी ऊपर और कभी नीचे ठोंकता था। कभी हथौड़ी से ठोंकता, कभी उँगली से। पीछे पूछने पर पता चला कि यह लोग इस प्रकार बाजे मिलाते हैं। आध घंटे तक सब लोग बाजे मिलाते हैं। जान पड़ता है कि बाजे इतने बिगड़े थे कि मिलने में इतनी देर लगी या इन लोगों को मिलाना आता ही नहीं था। नहीं तो एक सेकेंड में मिल जाते।

इसके पश्चात् गाना आरम्भ हुआ। गानेवाले सज्जन मुँह खोलकर 'आ ओ ओ वा हो...' स्वर में चिल्लाते थे और हाथ से हवा में कभी आठ के, कभी पाँच के, कभी सात के अंक बनाते जाते थे। कभी हाथ से, ऊपर से नीचे हवा में लकीर खींचते थे। हारमोनियम से कुछ बजता जाता था और दूसरे सज्जन ताल देते जाते थे। ताल देनेवाला शायद सो रहा था क्योंकि बीच-बीच में उसका सिर झटके से नीचे गिर पड़ता था। फिर वह अपना सिर उठा लेता था।

गाने वाला ऐसा मुँह बनाता था कि मैंने पहले समझा मुझे मुँह चिढ़ा रहा है। परन्तु यह बराबर ऐसा करता जाता था। इससे जान पड़ा कि भारतीय संगीत में मुँह बनाना आवश्यक है। गानेवाले के सिर में कोई रोग था क्योंकि वह भी इधर-उधर हिल रहा था।

एक घण्टे तक उसने इसी प्रकार से गाया। लोग 'वाह-वाह' करने लगे। मेरी समझ में कुछ नहीं आया। मैं मूर्ति की भाँति बैठा रहा, मगर लोग मुझे मूर्ख न समझें, इसलिये मैंने भी दो बार कहा - 'वाह-वाह।'

पाँच मिनट बाद उसने फिर आरम्भ किया। इस बार केवल 'आ' नहीं था। उसने गाया, 'घेरि घन आये।' भारतीय गाने ऐसे ही निरर्थक होते हैं। क्योंकि इसका अंग्रेजी अनुवाद होगा - 'दि क्लाउड गैदर्ड।' इसका क्या सिर-पैर हो सकता है?

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