दूत जातक की गाथा – [“हे राजा! आपके सामने उदर देव का दूत उपस्थित है; हे रथपति! आप अप्रसन्न न हों; समस्त भूमंडल के समस्त मानव रात-दिन उदर-देव के सर्वग्रासी प्रभाव के ही नीचे निवास करते हैं।”]
वर्तमान कथा – वासनाओं से विचलित भिक्षु
जिस समय भगवान बुद्ध जेतवन में निवास करते थे, उस समय उनके आश्रम का एक भिक्षु भोगेच्छाग्रस्त हो गया था। दूसरों को अपने से अधिक सुख भोग करते देखकर उसका मन विचलित हो गया था। वासनाओं से विचलित इस भिक्षु के विषय में भगवान ने नीचे लिखी “उदर देव के दूत” नामक कथा कही–
अतीत कथा – सभी उदर देव के दूत
एक बार बोधिसत्व का जन्म काशी के राजा ब्रह्मदत्त के पुत्र के रूप में हुआ। पिता के देहान्त के पश्चात् राज्याधिकार प्राप्त होने पर स्वादिष्ट भोजनों में बोधिसत्व की विशेष रुचि हुई। उनकी तृप्ति के लिये अनेक प्रकार के स्वादिष्ट भोजन हजारों रुपये के व्यय से नित्य प्रस्तुत होने लगे। परन्तु बोधिसत्व की तृप्ति इतने से ही नहीं हो सकी। वे अपने देव-दुर्लभ भोज्य पदार्थों का उपभोग बहुत से लोगों की उपस्थिति में करना चाहते थे। अतः एक भव्य भोजशाला का निर्माण किया गया, जिसमें सोने के सिंहासन पर बैठकर वे हज़ारों मनुष्यों के सामने उन सुस्वादु और परम सुगन्धित खाद्य पदार्थों का उपभोग करते थे।
एक दिन बोधिसत्व के भोजन के समय मसालों की सुगंधि से विचलित हो एक ब्राह्मण अपने को न रोक सका और साहस पूर्वक “दूत-दूत” चिल्लाता हुआ उनके निकट जा पहुँचा। उन दिनों के राज-नियमों के अनुसार दूत का मार्ग रोकना वर्जित था। इसी से रक्षकों ने उसे वहाँ तक जाने दिया।
निकट पहुँचते ही उस लालची ब्राह्मण ने बोधिसत्व के थाल में से उठा-उठाकर पदार्थों को खाना प्रारम्भ कर दिया। रक्षक खड्ग खींचकर उसका वध करने को दौड़े। परन्तु बोधिसत्व ने मना कर दिया।
जब ब्राह्मण भोजन कर चुका और हाथ मुंह धोकर निश्चित हुआ, उस समय पान सुपारी ग्रहण कर लेने के पश्चात् बोधिसत्व ने पूछा, “हे दूत! तुम कहाँ से पधारे हो और क्या संदेश लाए हो? निर्भय होकर कहो।”
ब्राह्मण ने कहा, “राजन! मैं वासना और उदर का दूत हूँ। वासना की प्रेरणा से ही में उनका दूत बनकर यहाँ तक आया हूँ।” इतना कहकर उसने उपरोक्त गाथा कही – “हे राजा! आपके सामने उदरदेव का दूत उपस्थित है; हे रथपति! आप अप्रसन्न न हों; समस्त भूमंडल के समस्त मानव रात-दिन उदरदेव के सर्वग्रासी प्रभाव के ही नीचे निवास करते हैं।”
उसकी बात सुन राजा ने कहा, “तुम ठीक कहते हो ब्राह्मण! उदर के दूत वासना की प्रेरणा से ही इधर-उधर जाते हैं। अपनी बात तुमने बड़े सुन्दर ढंग से कही है।”
इस प्रकार प्रसन्न होकर बोधिसत्व ने भी एक गाथा प्रस्तुत की–
“हे विप्र! मैं एक सहस्र रक्त वर्ण की गाएँ दान करता हूँ और उनकी पूर्ति के हेतु आवश्यक साँड़ भी। जिससे एक दूत (मैं) दूसरे दूत की (तुम्हारी) आवश्यकता की पूर्ति कर सके, क्योंकि समस्त जीव ही उदर देव के दूत हैं।”
ब्राह्मण की उक्ति से राजा बहुत ही प्रभावित हुआ और दान-मान से उसे संतुष्ट कर विदा किया।