इल्लीस जातक की गाथा – [दोनों लँगड़े हैं, दोनों लूले हैं, दोनों की आंखें भेंड़ी हैं और दोनों के सिर में फुन्सियाँ हैं। मैं इल्लीस कहकर किसी को भी पहचान नहीं सकता।]
वर्तमान कथा – कंजूस सेठ की पूरियाँ
राजगृह नगर में मच्छरिय नामक एक अति धनी परंतु अत्यन्त कृपण सेठ रहता था। वह प्रायः ही राज-दरबार में आता जाता था। मार्ग में उसे बहुत-से लोग नाना प्रकार के भोजन करते तथा मनोविनोद करते दिखाई देते थे। परंतु वह कृपण खर्च अधिक होने के भय से न अच्छा खाता था, न उत्तम वस्त्र पहनता था और न किसी प्रकार अन्य सुख ही भोग पाता था। उसके मन में कई बार सुख भोगने की इच्छा होती थी, परन्तु वह मन मारकर रह जाता था।
एक बार उसने कुछ लोगों को मीठी पिट्ठी से भरी उत्तम पूरियाँ खाते देखा। उन परियों से बड़ी अच्छी सुगन्ध निकल रही थी। उसकी इच्छा भी वैसी ही पूरियाँ खाने की हुई। परन्तु पैसे ख़र्च करने होंगे – यह सोचकर वह उदास मन घर आकर लेट गया।
सेठानी ने उसे उदास देख पूछा, “क्यों क्या कुछ तबियत ठीक नहीं है?”
सेठ ने कहा, “नहीं तो, मैं बिलकुल स्वस्थ हूँ।”
“तो क्या राजा के यहाँ कोई असाधारण चिन्ताजनक बात हो गई है।”
“नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।”
“तो फिर क्या आपके मन में किसी वस्तु के भोग की इच्छा उत्पन्न हुई है।”
अन्तिम प्रश्न का उत्तर सेठ न दे सका। वह चुप-चाप लेटा रहा। सेठानी ने फिर पूछा, “नाथ, मुझसे मत छिपाइये। स्पष्ट कहिये किस वस्तु की इच्छा आपके मन में हुई है। मैं उसे ही सुलभ करूंगी।”
सेठ ने मीठी पूरियों की बात कही।
सेठानी ने कहा, “मैं अभी व्यवस्था करती हूँ।”
सेठ ने कहा, “ना-ना-ना, इस घर में बहुत-से आदमी हैं। नौकर चाकर हैं। सबकी जानकारी में पकाने से उन्हें भी देना पड़ेगा।”
“मैं किवाड़े बन्द करके पका दूँगी”, सेठानी ने निवेदन किया।
सेठ ने इस प्रस्ताव को भी स्वीकार न किया। अंत में तय हुआ कि हवेली की सबसे ऊपर की मंजिल पर ऊपर जाने का रास्ता बंद करके सेठानी मीठी पूरियाँ पकाए। सेठानी ने वैसा ही किया। सेठ ने कहा, “देख, मेरे खाने से अधिक एक भी मत पकाना।”
सेठानी ने स्वीकार किया और तयारी में लग गई।
इधर भगवान बुद्ध ने अपने प्रमुख शिष्य और स्थविर महामोग्गलन से कहा, “मेरी इच्छा है कि आज भिक्षुओं को मीठी पूरियाँ खिलाऊँ। कंजूस मच्छरिय सेठ अपने घर की छत पर पूरियाँ बनवा रहा है। तुम ऋद्धि बल से वहाँ उसके सामने प्रगट होकर उससे पूरियाँ प्राप्त करो।”
स्थविर महामोग्गलन ने वैसा ही किया।
सेठ ने आकाश में एक भिक्षु को देखकर समझा, यह पूरियाँ माँगेगा। अतः क्रोध से बोला, “आकाश में टहलने से तो क्या यदि तू खिड़की पर भी आकर खड़ा होगा तो भी तुझे कुछ न मिलेगा।”
स्थविर खिड़की पर आ खड़ा हुआ।
अब सेठ को और भी क्रोध आया। वह बोला, “खिड़की पर खड़े होने से तो क्या, देहली पर आने से भी तुझे कुछ न मिलेगा।”
स्थविर चट-से देहली पर जा खड़ा हुआ।
इसी समय सारे घर में धुआँ भर गया। सेठ हवेली में आग लगने के भय से घबड़ा उठा और सेठानी से बोला, “अरी देख, ये भिक्षु जादू जानते हैं। इनसे पीछा छुड़ाने के लिये एक छोटी-सी पूरी पकाकर इसे दे दे।”
सेठानी ने पूरी पकाई, पर सेठ को लगा कि वह बहुत बड़ी है। अतः उसने उससे भी छोटी पकाने को कहा। सेठानी पूरी पकाती थी, पर सेठ को वह बहुत बड़ी मालूम होती थी। इसी प्रकार बहुत-सी पूरियाँ बन गईं।
सेठ ने खीझकर कहा, “भद्रे, दे दे इसे इन्हीं में से एक पूरी और बिदा कर दे।”
सेठानी ने ज्योंही पूरियों को हाथ लगाया तो मालूम हुआ कि वे सब एक में एक चिपकी हुई हैं और छुड़ाने से भी नहीं छूटतीं। सेठ ने कहा, “मैं पृथक करता हूँ।” सेठ और सेठानी ने मिलकर बहुत यत्न किया पर पूरियाँ अलग न की जा सकी। सेठ ने अत्यन्त दुःखी होकर कहा, “मुझे भूख नहीं है। तू ये सब पूरियाँ इस भिक्षु को देकर बिदा कर दे।”
सेठानी टोकरी लेकर स्थविर के समीप गई। उस समय उस विद्वान भिक्षु ने उसे धर्म और ज्ञान की कुछ बातें बताईं। सेठ ने भी उस उपदेश को सुना। यह जानकर कि भगवान आज उसकी पूरियों की प्रतीक्षा में बैठे हैं, उसे बड़ी ग्लानि हुई। वह पत्नी सहित पूरियों की वह टोकरी और अन्य खाद्य सामग्री लेकर वह भगवान बुद्ध की सेवा में उपस्थित हुआ।
समस्त भिक्षुषों के भोजन कर चुकने पर भगवान ने कहा, “इस सेठ का उद्धार मोग्गलन ने आज प्रथम बार नहीं किया है। पूर्व जन्म में भी इन्होंने ऐसा ही किया था।” भिक्षुओं की जिज्ञासा शान्त करने के लिये उन्होंने पूर्व जन्म में घटित हुई कंजूस सेठ की कहानी इस प्रकार सुनाई।
अतीत कथा – इन्द्र की सीख
पूर्व काल में वाराणसी में इल्लीस नामक एक परम कृपण वैश्य रहता था। उसके मन में तरह-तरह के भोग भोगने की इच्छा उत्पन्न होती थी, परंतु वह धन खर्च होने के डर से मन मारकर रहता था और सूखता जाता था।
एक दिन उसने एक व्यक्ति को प्याले में शराब डालकर पीते देखा और उसकी भी इच्छा शराब पीने की हुई। परन्तु धन खर्च होगा और बहुत-से मुफ्त के पीनेवाले आ जुड़ेंगे, ऐसा सोच वह चुप रह गया। शाम को उसने नौकर से चुपके-से अपने पीने भर को शराब मंगाई। किसी को पता न लगे, इस भय से वह शराब को छिपाकर बस्ती के बाहर एक झाड़ी में ले जाकर पीने लगा। वहाँ उसे नशा हो गया और वह बड़ी देर तक वहीं पड़ा रहा।
इस कंजूस इल्लीस सेठ का पिता बड़ा धर्मात्मा था। मरने पर उसे इंद्र पद प्राप्त हुआ था। अपने पुत्र के द्वारा अपनी कीर्ति का नाश होते देख उसे बड़ी चिन्ता हुई। वह उसे घर से अनुपस्थित जान, उसी का रूप बनाकर राजा के पास गया। राजा ने उसे इल्लीस समझकर उसका सत्कार किया। सेठ ने निवेदन किया कि “महाराज, मेरा सब धन लेकर अच्छे कार्यों में लगाएं।” परन्तु राजा ने उसका प्रस्ताव स्वीकार न किया। अंत में उसने कहा, “तो मुझे अपनी सम्पत्ति दान करने की अनुमति दीजिए।”
राजा ने कहा, “तुम ऐसा कर सकते हो।”
घर आकर उसने इल्लीस की पत्नी से परामर्श किया। अपने पति की धर्म में रुचि देख वह बहुत प्रसन्न हुई। नगर में घोषणा कर दी गई कि इल्लीस सेठ अपनी समस्त सम्पत्ति दान कर रहा है। सेठ के द्वार पर भीड़ इकट्ठी हो गई। खजाने और भंडार खोल दिये गए। जिससे जितना बन पड़ता था, लेकर जा रहा था।
एक व्यक्ति सेठ के रथ-बैल लेकर अपार सम्पत्ति सहित राज मार्ग पर जा रहा था। इसी समय इल्लीस घर लौटकर आ रहा था। उसने रथ को रोका और कहा, “मेरी अनुमति के बिना मेरी कोई वस्तु ले जाने का तुम्हें क्या अधिकार है?”
उस व्यक्ति ने धक्का मार कर उसे गिरा दिया और कहा, “आज हमारा सेठ अपनी सारी सम्पत्ति दान कर रहा है। तू उसमें बाधक क्यों हो रहा है?”
इल्लीस सेठ की समझ में कुछ न आया। घर आने पर मालूम हुआ कि कोई दूसरा व्यक्ति इल्लीस बनकर उसकी सम्पत्ति लुटाए दे रहा है। वह बड़ा दुःखी हुआ और राजा के पास जाकर कहा, “महाराज, असली इल्लीस तो में हूँ।”
राजा ने कहा, “कोई तुम्हें पहचानता है?”
“क्यों नहीं? मेरी पत्नी तथा सब घर वाले पहचानते हैं।” यह कह सेठ ने सबको बुलवाया। दूसरा इल्लीस भी बुलवाया गया।
राजा ने लोगों से पूछा, “इन दोनों में से तुम किसे असली इल्लीस समझते हो?”
इल्लीस की पत्नी तुरन्त जाकर इन्द्र की बगल में खड़ी हो गई और बोली, “क्या मैं अपने धर्मात्मा पति को भी नहीं पहचानती?” अन्य लोगों ने भी वैसा ही किया।
इल्लीस घबड़ा गया और सोच में पड़ गया। उसे याद आया कि उसके सिर में एक छोटी-सी फुन्सी है, जिसका हाल सिवा नाई के और किसी को नहीं मालूम था। उसने राजा से निवेदन किया, “महाराज, ये सब लोग पहचानने में भूल कर सकते हैं, परन्तु मेरा नाई कभी भूल नहीं कर सकता।”
इन्द्र ने सब रहस्य समझकर अपने सिर में भी उसी प्रकार की एक फुन्सी उगा ली। नाई ने दोनों को ध्यान से देखा और कहा, “इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है।” नाई की यही बात उपरोक्त गाथा में दी हुई है कि दोनों एक जैसे हैं।
नाई की बात सुन इल्लीस मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। इसी समय इंद्र ने अपने को प्रगट करके सब रहस्य खोल दिया। चेतना होने पर इल्लीस ने पिता को प्रणाम किया और उनके आदेशानुसार चलने का वचन दिया।
कंजूस सेठ की कहानी का अंत भगवान बुद्ध ने यह कहकर किया – इंद्र मोग्गलायन है, इल्लीस मच्छरिय सेठ है और नाई तो मैं ही हूँ।