बक जातक की गाथा – [धूर्त अपनी धूर्तता से सदा सुखी नहीं रह सकता। धूर्त बुद्धि वाला बगुले और केकड़े के समान अपने किये का फल भोगता है।]
वर्तमान कथा – ठग की ठगी
जेतवन के विहार में एक भिक्षु चीवर बनाने का काम करता था। वह इस काम में बड़ा दक्ष था। कपड़े को काटना, रफू करना, सीना, रंगना, कलफ करना और फिर उन्हें शंख से रगड़कर सुन्दर चमकदार बना देना – सब क्रियाओं में वह अत्यंत कुशल था।
धीरे-धीरे उसके मन में पाप उदय हुआ। उसने पुराने फटे चीथड़ों को लेकर उन्हें काट छाँटकर नए चीवर बनाने में अपनी समस्त कला-कुशलता का प्रदर्शन करना आरंभ कर दिया। ये चीवर इतने सुन्दर दिखाई देते थे कि बहुत-से भिक्षु अपने नए चीवर देकर उससे वे चीथड़ों के चीवर बदलकर ले जाने लगे।
आरम्भ में वे चीवर अच्छे दिखते थे, परंतु धोने पर उनके दोष प्रगट हो जाते थे। ये चीवर टिकाऊ भी बहुत कम होते थे। धीरे-धीरे उसकी ठगी की चर्चा सर्वत्र होने लगी।
नगरों से दूर एक ग्राम में एक दूसरा चीवर वर्द्धक रहता था। वह भी इस काम में बड़ा निपुण था। एक दिन कुछ भिक्षुओं ने उसे जेतवन के ठग भिक्षु की बात सुनाई। ग्रामीण भिक्षु की इच्छा उस ठग भिक्षु की चतुरता की थाह लेने की हुई। उसने बड़े परिश्रम से एक अत्यन्त सुन्दर चीवर बनाया और उसे पहनकर जेतवन पहुँचा।
जेतवन में चीवर-वर्द्धक भिक्षु के पास जाकर उसने कहा, “मैंने आपके चीवरों की बड़ी प्रशंसा सुनी है। क्या आप मेरा चीवर बदल देंगे?” उसकी दृष्टि उस भिक्षु के चीवर पर पड़ी। “इतना सुन्दर! एकदम नया!” उसने अपने मन में ठान लिया कि वह चीवर बदलेगा। भीतर जाकर वह कई चीवर निकाल लाया।
आगन्तुक ने उनमें से एक पसन्द करके अपना चीवर उतारकर दे दिया और धन्यवाद देकर चलता बना। कुछ दिन बाद उस ठग ने उस नए चीवर को निकालकर उसे ध्यान से देखा। “अरे यह क्या! यह तो एकदम सड़े कपड़े का बना है। जगह-जगह फटा है, जिसे बड़ी सुन्दरता से रफू कर दिया गया है।” धीरे-धीरे ठग के ठगे जाने की बात भगवान बुद्ध के पास पहुँची। उन्होंने कहा, “ये ठग इसी जन्म में ठगी नहीं करते; पिछले जन्मों में भी ये ऐसा ही करते रहे हैं।”
अतीत कथा – धूर्त बगुले और केकड़े की कहानी
किसी समय एक जंगल के बीच में दो तालाब थे। एक तालाब छोटा था, दूसरा बड़ा। ग्रीष्म ऋतु में छोटे तालाब का पानी सूख जाने से उसमें रहने वाले जल-जीवों को कष्ट होने लगा। पर वे कर ही क्या सकते थे? एक दिन एक बगुला आकर उनके बीच में खड़ा हो गया। मछलियों ने पूछा, “क्यों महाशय, आप यहाँ कैसे पधारे?”
बगले ने कहा, “क्या करूं, तुम लोगों का दुःख देखा नहीं जाता। मैं जंगल के दूसरी ओर वाले बड़े तालाब के किनारे रहता हूँ। वहाँ खूब पानी है। परंतु आपका तालाब तो सूख रहा है।”
मछलियों ने कहा, “जो भाग्य में लिखा होता है वही होता है। जियें या मरें; हमारे लिये इस तालाब को छोड़ और कोई स्थान नहीं है।”
बगुले ने कहा, “यदि आप विश्वास करें तो मैं एक-एक करके आपको अपनी चोंच से उठाकर उस तालाब में छोड़ आऊँ।” मछलियों ने कहा, “तुम मछलियों को खा जाते हो। भला, हम तुम्हारा विश्वास कैसे कर सकती हैं?”
बगुला बड़ा धूर्त था। उसने कहा, “यदि आपमें से एक मेरे साथ चलकर उस बड़े तालाब को देख आवे और यदि मैं उसे फिर आपके पास लाकर छोड़ दूं, तब तो आप मेरा विश्वास अवश्य ही कर लेंगी। सच जानिये, मैंने जन्म भर जो पाप किये हैं आज उनका प्रायश्चित एक अच्छा काम करके करना चाहता हूँ।”
मछलियाँ बहुत सीधी थीं। वे उसके इस प्रस्ताव पर सहमत हो गई। एक छोटी मछली को अपनी चोंच में लेकर बगुला उड़ा और उसे ले जाकर वह बड़ा तालाब दिखाया। जिसमें जल की लहर उठ रही थीं और कमल खिल रहे थे। वापिस आने पर छोटी मछली ने उस तालाब की बड़ी प्रशंसा की। उसकी बातें सुन सब मछलियाँ उस बड़े तालाब में जाने को राजी हो गईं।
अब बगुले की बन आई। वह छोटे तालाब से मछलियों को अपनी चोंच में दाबकर अपने घोंसले पर ले जाने लगा। इस प्रकार उसने तथा उसके परिवार ने मिलकर सब मछलियाँ खा डालीं।
अंत में एक केकड़ा बच रहा। उसने कहा, “बगुला भाई! मैं तो मछली नहीं हूँ। तुम्हें मुझे चोंच में सम्हालने में कष्ट होगा। अपनी इन अनेक टाँगों के सहारे में तुम्हारे गले से चिपट जाऊँगा और तालाब के पास पहुँच कर धीरे से जल में कूद पडूंगा।” इतनी मछलियाँ खाकर बगुले का लोभ बहुत बढ़ गया था। उसने सोचा, “घोसले में चल कर इसे भी ठिकाने लगा दूंगा।” वह राजी हो गया। केकड़ा बगुले की गर्दन से लिपट गया। घोंसले के पास पहुँचकर केकड़ा बोला, “भाई साहब! तालाब कहाँ है?”
बगुले ने कहा, “सब अभी बताता हूँ। जरा नीचे उतरो।”
केकड़ा सब समझ गया। उसने अपनी टांगों से बगुले की गर्दन को इतना कसा कि उसके प्राण निकल गए। यही है धूर्त बगुले और केकड़े की कहानी। भगवान बुद्ध ने कहा कि उस समय का धूर्त बगुला आज का जेतवन वाला चीवर-वर्द्धक है और केकड़ा ग्रामवासी भिक्षु। इसलिए धूर्त बगुले और केकड़े की कहानी इस जन्म में भी घटित हुई।