तब गांव में इक्का दुक्का लोग ही जागे होंगे, जब अकेली सुभद्रा ने स्टेशन आकर सीधे भोपाल की टेªन पकड़ ली थी।

भोपाल की टेªन दादा के गाँव यानी सुभद्रा के मायके से हो कर निकलती है। बस्ती से चार किलोमीटर दूर रेल पटरी के समानांतर ही सड़क हे और सड़क किनारे ही दादा के खेत हैं। पूरी चौंतीस बीघा जमीन है। पुराना आम का बगीचा, नीम के घनी छांव वाले पेड़ , बैलों से चलने वाले रेंहट के जमाने का पुराना कुंआ और घर के बुजुर्गों की मुकरबा ( मकरबे-समाधियाँ ) हैं इस जमीन पर। सुभद्रा की बहुत सी यादें जुड़ी हैं इन खेतों से। ...अम्माँ की डांट खाकर इन्ही खेतों में समय बिताती थी सुभद्रा। ...वैशाख के महीने में अक्ति (अक्षयतृतीया) के दिन अपने गुड्डे का ब्याह  पेड़ों की छांव में करती थी  । ...घर में जब भी शादी हुई नये बच्चों  के रक्कस की पूजा बगिया और खेत के कुये पर ही होती आई है। ...दीवाली के बाद इच्छा-नवमी के दिन आंवले के पेड़ के नीचे बैठ कर बचपन में दादा , सरूप और सुभद्रा ने हर साल खाना खाया है । बारहमास फलने वाले अमरूदों  में  लगे गदराये और सुआ-कटेल  खट्टे फल पेड़ से तोड़कर खेतों में टहलते हुए खाने का मज़ा लिया है उसने। खेतों की याद आते ही दादा याद आये....और सुभद्रा की आँखों में पानी भर आया ।

सड़क पर जहाँ चार किलोमीटर वाला पत्थर गड़ा है वहीं से दादा और सरूप के खेत षुरू होते हैं । सुभद्रा ने खिड़की  के बाहर ताका तो  जी धक्क से रह गया उसका। दादा के खेत की मेढ़ पर खड़ा नीम का पेड़ अपनी जगह पर नहीं था ।  ध्यान से देखा तो और ज्यादा अचरज हुआ...... हर किसान के खेत में बुलडोजर और उसके मिलते जुलते आकार की अनगिन मषीनें खड़ीं थीं, जहां देखो तहां काम चल रहा था। कही जमीन खोदी जा रही थी तो कहीं पेड़ , कही ऊंची नीची जमीन के लिए रौलर चल रहे थे तो कहीं मजदूरो की अस्थायी  झोंपड़ियां डली थीं । सुभद्रा की आँख से आँसू नहीं ,दिल से भी कुछ बहने लगा । साड़ी का पल्लू खींच  उसने आंख मूंद ली-दादा की तबियत को क्या हुआ होगा?

कल रात पप्पू के फोन से सिर्फ इतना पता लगा था कि भोपाल गैस पीड़ितों वाले अस्पताल में ले आये हैं  और मोबाइन के सिगनल चले गये थे बात नहीं हो पाई।  

.सुभद्रा कल रात से ही परेशान है और बार बार सोच मेंपड़ जाती है कि अचानक ऐसा क्या हुआ कि अस्पताल में भर्ती कराने की नौबत आ गयी।   राखी पर कोसा के नये कुर्ते और खादी के सफेद पैजामा में हष्ट-पुष्ट और  मुस्कराते चेहरे मेंहमेशा की तरह वे कैसे जांच रहे थे, ।

दादा ने पूछा था, बोल सुभद्रा इस बार क्या चाहिए तुझे।

आपने सब कुछ दे दिया दादा ।हम दोनों सुखी हैं। आप अस्सी ऊपर दो साल के होने को आये और मैं स़़त्तर  की हो चुकी।आपके दोनों बेटे सपूत निकले । आपके सहयोग से मेरी तीनों बेटी ब्याह गई । आप हमेशा ऐसे ही स्वस्थ और खुश मिज़ाज बने रहें।

सुनकर वे मुस्कराये थे। दादा सदा से ही अच्छे खान पान से लेकर कसरत तक के शौकीन रहे हैं । छैः फुट के कद के हिसाब से बिल्कुल सही वजन है उनका, न कम न ज्यादा। पाचन की मशीन एकदम दुरस्त है। थाली पर बैठते हैं तो इस उमर में भी आठ रोटी खा जाते हैं। किसान की तरह जीवन में न बदहज़मी हुई उन्हें, न भूख की कमी, न कभी ब्लड प्रैशर , न ही डायबिटीज।

स्टेशन पर  सुभद्रा उतरी और  टूसीटर से अस्पताल की ओर चल पड़ी थी। बाहर ताका , भोपाल उसके लिए अन्जाना शहर नहीं है। पहली बार अपने पति को लेकर भी महीनों भोपाल मेंरही है वह। फिर छोटे भाई सरूप की तीमारदारी के लिए भी हफते भर वह भोपाल रही थी, छोटे भाई सरूप् की दोनों किड़नी फेल हो गई थी  और उसी दर्द में तिलतिल करके उसको मौत ने निगला था।

''उतरो'' ऑटो वाला अस्पताल के दरवाजें पर खड़ा उसे टोक रहा था। वह चौंकी, और आँखों के किनारे पर जमा हो आये आंसुओं को साड़ी के पल्लू से पोंछती वह नीचे उतर गई।

भाभी और उनका पचास वर्षीय बेटा पप्पू सुभद्रा को आसानी से मिल गए, जनरल बार्ड मेंआयी तो भाभी गले लगाकर  बिलख पड़ी। सुभद्रा ने भाभी का कंधा थपथपाया।

एक पलंग पर बेसुध से सोये पड़े थे दादा। बोतल चढ़ रही थी। दादा के पलंग पर दवाईयों का लम्बा चार्ट टंगा था। पप्पू ने बताया कि महीने भर से रोज रात को बुखार आ रहा था,रात विरात घबराये से उठते तो बदन पसीना पसीना होता था, कहते थे बुरे सपने आ रहे हैं।

जरा से बुखार की वजह से ये हालत हो गई ? सुभद्रा को ताज्जुब हुआ।

'बुखार क्या करता जीजी, वे तो जमीन के गम में गिर पड़े,' भाभी बेसाख्ता चीख पड़ी तो सुभद्रा बोली ''जमीन का गम ?''

पप्पू ने बताया - सारी जमीन जायदाद पीढ़ियों से विरासत में मिली थी तो पटवारी के खाता खतौनी में शामिलात मौरूसी हक में लिखी चली आ रही थी, न खेतों का बंटवारा हुआ, न खाताखतौनी में लकीर खिंची और सरूप का  बेटा  टिंकू चुपचाप अपनी हक की जमीन बेचकर भाग गया| सुभद्रा  चौंकी ''टिंकू चुपचाप अपनी जमीन बेचकर भाग गया ? "  

पप्पू ने आँसू पोंछे और बोला 'हा, दादा के तो प्राण बसते हैं जमीन में। एक तरफ इतना बड़ा हादसा। और दूसरी तरफ सरकार का खौफ| दादा इस सदमें को सह नहीं सके और इसी कारण....।

'अरी वे तो गम में बीमार हैं । जिस दिन पटवारी ने जनम-जिन्दगी की पीढ़ियों की जमीन बिकने  की खबर दी उसी दिन से खटिया पकड़ गए हैं।'भाभी ने एक बार फिर जताया|  सुभद्रा  बोली- सरकार का खौफ केसे?

पप्पू ने सुभद्रा को नया किस्सा सुनाया  ' बुआ, हमारा गाँव मिलिट्री को सोंपा जा रहा है। ..कोई बटालियन रहेगी यहां। हम सब कहीं और भेज दिये जायेंगे। गाँव वालों ने विरोध किया तो सरकार का डण्डा चला। ना कोई वकील, न कोई अपील। वकील कहते हैं कि किसी अदालत में मुकद्मा नहीं हो सकता क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का ऐसा कोई पुराना फैसला है कि सरहद की रखवाली करने वालों के सेंटर के लिए सरकार कोई भी जगह तय कर सकती है,। वो तो हम सबका  दुर्भाग्य कि हमारे गाँव और जमीन के लिए एक तरफा फैसला किया  है  सरकार ने । जमीन चली जायेगी.... तो जमीन क्या किसान की तरह हमारी तो जिन्दगी ही खत्म है बुआ...' कहता पप्पू सिसकी भर के रो उठा था।

सुभद्रा को याद आया सुभद्रा ने टेªन खिड़की  के बाहर ताका था कि  हर किसान के खेत में बुलडोजर और उसके मिलते जुलते आकार की अनगिन मषीनें खड़ीं थीं, जहां देखो तहां काम चल रहा था।

सुभद्रा ने पप्पू के सिर पर हाथ फेरा ' अरे पगले, ऐसे दिल पर क्यों लेता है? जमीन चली जायेगी तो सब कुछ नहीं चला जायेगा न! जिनकी जमीनें बाढ़ निगल जाती हैं, बीहड़ में बदल जाती हैं, बांध में डूब जाती हैं या फिर नयी फैक्ट्रीयों और सड़कों की वजह से मिट जाती हैं, आखिर वहां के लोग भी जिन्दा रहते हैं।  जमीन-जायदाद नहीं,आदमी का जीवन बड़ा होता है और जीवन से बड़ा होता है हौसला। ऐसे हौसला खो दोगे तो केसे चलेगा? दादा का ध्यान रखो पप्पू।'

"कितना हौसला रखें जीजी, घर वाले भी तुम्हारे दादा के दुष्मन हो गये," भाभी बोली तो सुभद्रा चौंकी-"घर वाले , कौन  घर वाला?"

वे तीनों फर्स पर बैठे बतिया रहे थे कि तभी नर्स आई और उसने पप्पू को एक पर्ची पकड़ाते दवाई लाने को कहा।

पप्पू बाहर निकल गया तो उठकर सुभद्रा ने पास खड़े हो जी भर के दादा को एक बार और ताका। लग रहा था कि खेतों से लौटकर आए दादा गहरी नींद में सो रहे हैं। सुभद्रा को अपने भाग्य पर रोना आ रहा था, पहले पति गए फिर छोटा भाई और अब शायद बड़े भाई, ...वो तो शायद काले कौआ खा के आई है उसे मौत नही आती। वो अब तक ज्यों की त्यों बनी है।

पति खजानों की तलाश में तांत्रिकों और सयानों के चक्कर में पड़े बियावान जंगलों, श्मशानों, खण्डहरों और पुरानी हवेलियों में घूमने लगे थे। ऐसे में दिमाग चल निकला था, वो पति को लेकर भोपाल में रही,  एक दिन उसी बौराई अवस्था में पति देह त्याग गए थे। छोटे भाई सरूप को ब्लड प्रैशर के साथ में आई थी किडनी की बीमारी जिसने सरूप के सोने से बदन को काले चमड़े में बदल डाला था ।

और दादा.... ! पन्द्रह साल की उमर में पिता ने बंजर से खेत दादा को सौंपे और आँखे मूंद ली थी। दादा को तो तीनों से ज्यादा खब्त थी-अपनी जमीन की। पिता की विरासत में मिले चौतीस बीघा जमीन में प्राण बसते थे उनके।

दादा ने खेतों के लिए अपनी जी जान लगा दी। राजस्थान से आये मिट्टी पलटने वाले ट्रेक्टरों से खेतों की मिट्टी पलटवाई। मजदूर लगाकर पार बंधवाई। कुंआ खुदवाया और पानी के बरहा के किनारे-किनारे फलदार पेड़ लगवाये। अपनी जमीन को बहुत लाड़ करते थे वे। जरा कहीं औगुन दिखा तुरत मिटा डाला। पूरी जमीन में एक भी पलाश नहीं होने दिया कि जमीन के भीतर गांठ जमे। बबूंल नहीं पनपने दिया कि कांटे फैलें। सफेदा नहीं लगाया कि जमीन के भीतर का पानी न निचुड़ जाये। बहुत संभलकर बीज बोते। देखभाल कर खाद देते। सदा आजमाये हुए बीज काम में लाते और वही खाद डालते जिसे पहले वापर चुके हों।    औरों की तरह नहीं कि दूसरों की देखा-देखी नई कम्पनी के बीज बो डालें या नई खाद बुरक दें फसल पर। ऐसे लोगों को कपार ठोंकते देखा था दादा ने सो खेती के मामले में वे बेहद सजग रहे इसलिए संभले भी रहे। कम पैदावार हुई लेकिन उम्दा नस्ल का अन्न उपजा।

खेतों को उपजाऊ बनाते हुये दादा बड़े हुए। उनकी जिन्दगी एक किसान की जिन्दगी थी अभाव ही अभाव  लेकिन सारे रिवाज जरूरी और उन्होने  सारे काम संभाले। पहले ख्ुद का ब्याह किया, फिर सुभद्रा का ब्याह | सरूप को खूब ऊंचा  पढ़ाया। अपना मकान बनाया । लेकिन किसी भी समय जमीन की तरफ आंख उठा कर नही देखा। मोटा खाया मोटा पहना, सस्ते ब्याह काज निपटाये। जमीन और खेत के लिये उनके मन में हर किसान की तरह अपने पुरखों के बराबर आदरथा।

किसान का जीवन। बीच में कई मौके आये जब लगा कि घर के सारे काज रूक जाऐंगे। सुभद्रा के ब्याह के वक्त दहेज जुटाने के लिए भी और सरूप के ब्याह के वक्त दुलहन के गहने गढ़ाते वक्त भी। रिश्तेदारों ने सुझाया ''न हो तो जमीन बेच दो थोड़ी सी।''

....और दादा फिरंट ' आपने कही कैसे कि जमीन बेच दो। आड़े वक्त के लिए होती है जमीन। इसके लिए नहीं कि तनिक जरूरत पड़ी और उठाकर बेच डाली।'

कहने वाला खिसियाकर चुप रह जाता। दादा जाने कहां से इंतजाम कर लेते, अपना काम चला लेते ....और जमीन बच जाती।

खानदान के दूसरे लोग किसी न किसी गलती की वजह से दादा के देखते देखते बरबाद हो गए, लेकिन दादा ज्यों के त्यों रहे। ताऊ का लड़का हरकिसन नई किस्म, नई कम्पनी के बीज और खाद के चक्कर में  फसलें मिटा बैठा, खेत बिके, घर बिका और देश छोड़ परदेश में बस के दूसरों की चाकरी करना पड़ी। चाचा के  लड़का बालकिसन ने बच्चों को पढ़ने के वास्ते शहर में क्या छोड़ा, लड़कों के पर ही निकल आये। वे सदा बाजार की सड़कों पर फर्राटा मारते नजर आते।  बच्चे तो पढ़े नहीं, खेती बरबाद हो गई और कर्ज के दलदल में फंसते चले गए बालकिसन को भी आखिर में जमीन बेचना पड़ी। सुभद्रा को बैंक का किसान क्रेडिट कार्ड अब दुश्मन लगने लगाहै, पहले साहूकार से पैसा मांगते लाज आती थी सो कम खच्र होता था अब तनिक जरूरत पड़ी और किसान क्रेडिट कार्ड  जा फंसाया एटीएम में , करकरे रूप्या निकाल लिये । पता तो तब लगता है जब सरकारी खरीद का रूप्या बैंक में आता है और बैंक मैनेजर किसान क्रेडिट कार्ड से निकाले पैसे काट लेता है।

अकेले किसान क्या, खेती से जुड़े सब लोग निराश हैं इन दिनों। खेतिहर मजदूर, चरवाहे और  लोहार-बढ़ई सब बेकार हो गये हैं गांव में।

हाइवे से लगे इन खेतों पर शुरू से ही नजर रही है खरीददारों की। पहले बड़े किसान खरीदना चाहते थे, फिर शहर के व्यापारियों ने प्रस्ताव भेजा और बाद में कई नेताओं ने। जबकि अब तो स्वयं सरकार ले रही है, इलाके में बन रहे मिलिट्री सेंटर के वास्ते या किसी धन्नासेठ की फेक्ट्री के लिए ले ती ।  दादा ने नहीं बेचे वे खेत, उनके शरीर में धड़कते थे खेत, नसों में खून बन बहते थे खेत, सांस में हवा बनकर रहते थे खेत।  साल भर सुबहो-शाम इंच-इंच पर विचरते रहते  अपने खेतों पर। जब दादा खेत पर हों तब उनके चेहरे के भाव देखते ही बनते थे। वे भरे पूरे दिखते थे।

दादा केलिए जमीन थी तो सब था। सुभद्रा जानती है कि किसान की हालत हमेशा खराब रहती है-कभी बरसात नही होती तो कभी झलाझल,कभी ऐसी सर्दी होती कि पाले सेू फसल मर जाती तो कभी क्वांर के घाम में पौधे सुलग उठते। ऐसे में निराश हो घर वालों को निरारित छोड़ किसी बदनसीब घड़ी में कुंए में छलांग लगा लेता। सोचते हुए फुरहरी आ गयी सुभद्रा को।

दादा के बच्चे भी शहर में जाकर पढ़े लिखे लेकिन उनकी डांट ऐसी कसी रही कि आज भी दादा की एक आवाज में काँपते हैं दोनों बेटे। लेकिन सरूप के बेटे.....! हाँ सरूप के बेटे उतना नहीं डरते थे दादा से।

फिर दादा की खेतों के प्रति जमी आसक्ति दोनों परिवारों में दूरी का सबसे बड़ा कारण बन गयी थी । हाँ, दादा इतने आसक्त थे खेतों पर कि किडनी बंद हो जाने के बाद म्त्यु शैया पर पड़े सरूप की बहू ने एकमात्र इलाज किडनी बदलवाने के लिए दादा से खेत बेचने की बात की तो  दादा का वही जबाब था 'खेत और जमीन तो आड़े वक्त के लिए होती है।'

ये आड़ा वक्त सरूप की बीबी और उसके बच्चों पर आया। अचानक एक रात सरूप ने तड़पते हुए देह त्याग दी थी, सरूप् का परिवार एक भीषण संकट में आगया था।

भाभी पानी लेकर आ गई तो सुभद्रा ने ओक लगाकर पानी दिय, उसने भाभी से कहा कि वे खाना लेकर बाहर चली जायें और आराम से खा पीकर लौटें। तब तक दादा को देखती रहेगी सुभद्रा।

नानुकर करती भाभी रोटी का डिब्बा उठाकर बाहर चली गई थी और दीवार से टिक कर अलसायी सी बैठ गयी थी सुभद्रा ।

''बुआ, तुम कब आई?'' सुनकर वह जागी , ये तो टिंकू की आवाज है। आँख मलती वह उठी- बहुत बुरा सपना था।

सपना न था वह तो सच था कि इसघर को विपदा में डालने वाला टिंकू  उनके पाँव छू रहा था। कहाँ से आ गया ? अभी पप्पू नाराज होगा और हो सकता है कि झगड़ा भी हो जाये।

''बुआ ऐसी काँप काहे रही हो ?'' टिंकू उन्हें टोक रहा था '' मैं ताऊ की तबियत देखने आया हूँ।'

उन्होनें खुद को संभाला और आवाज में नर्मी भरती बोली, ''तुम गलत आ गये टिंकू, अभी सब लोग तुम पर गुस्सा होंगें।''

''क्यों गुस्सा होंगे बुआ। मैंने क्या गलत कहा? ताऊजी कहते थे न कि जमीन आड़े वक्त के लिए होती है सो आड़ा वक्त देख के ही तो जमीन बेच दी मैंने।''

''आड़ा वक्त'' ? सुभद्रा समझी नहीं।

'हाँ बुआ मैं वही तो कहने आया हूँ कि अब कुछ नही होने वाला, सरकार ये जमीन छीन कर रहेगी । जिस आड़े वक्त के लिए हम जमीन जी से लगाये बैठे थे वो आड़ा वक्त अब खुद जमीन पर आ गया है ।इसलिए बेच  दी मैंने इलाके के एमएलए को अपने हिस्से की जमीन।

तुम्हारा ए मेंले ये जमीन बचा लेगा क्या सरकार से

या तो बचा लेगा या इतना मुआवजा लेगा कि पीढ़िया खायेंगी उसकी।

तुम तो निकल लिये, लेकिन दादा की जमीन?

उसी जमीन के वास्ते आया हूं बुआ कै जिस  आड़े वक्त के लिए ताऊ जमीन बचाजे थे वो आड़ा वक्त खुद जमीन पर है, किसान पर है, जमीन की ममता में फंसे रहे, तो बहुत नुक्सान होगा।  क्या कर पायेंगे बेचारे किसान ? हमारे यहां किसान कीबात कोई नही सुनता बुआ। लापरवाह किसान न तो ठीक ढग से हड़ताल कर पाता न संगठित हो पाता कभी।

तो क्या करना चाहिए

हमेंअपने खेत के एक एक पेड़ गिनवाना है, कुआं, नाली और मकान की विगत लिखवानी है तभी मुआवजा सही मिलेगा।'

टिंकू की बात सुनकर सुभद्रा को लगा कि वह सही कह रहा है। सहसा उसे टेलीविजन पर न्यूज में देखी कितनी सारी घटनायें याद हो आई । कुछ दिन पहले अपनी बैलगाड़ियों में राशनपानी लेकर आ जमें हजारों किसानों ने रातोंरात भोपाल के सारे मुख्य मार्गों पर कर डाला र्था और सारे भोपाल को गांव बना दिया था अपनी गंदगी, गोबर के कण्डों के धुंए और बैलों के चारे व गोबर को सरे-सड़क फैला कर।

टिंकू ने बोला कि बुआ देश भर में किसानों की जमीन जबरिया हड़पी जा रही हैं जिसके खिलाफ दिलली तक जाकर देश भर के किसान आन्दोलन कर रहे थे, पिट रहे थे, लाठी और आँसू गैस और कहीं-कहीं तो गोली भी खा रहे थे। आप  ताजा हादसा याद करो आया जब किसानों  ने आंदोलन किया था और कुछ उपद्रवियों ने  सारा आंदोलन बिगाड़ डाला था। सड़क पर गुंजरते बेगुनाह लोगों के साथ मारपीट और सवारियों से भरी बस को घेर कर उसमें लगा देने की घटना याद करो बुआ जब धू धू करती बस के भीतर से किसी बच्चे और महिला की चीखें सुनाई दे रहीथी और किसानों को इसका पता ही न था, कब किसान आम आदमी की सहानुभूति खो बैठा उसे पता ही नही है।

सहसा बैचेनी हो आई सुभद्रा को। दादा को होश आ जाये तो उन्हंे पूरी स्थिति बताना चाहती है, ताकि दादा फारिग हो ले।

लेकिन दादा है कि मौत से होड़ लगाये सो रहे हैं- उस आढ़े वक्त के इंतजार में जो उन पर तो कभी नहीं आया, अब खुद जमीन पर मंड़रा रहा है।

भाभी और पप्पू ने टिंकू देर तक नहीं लौटे और माज़रा भांप कर टिंकू ही जाने के लिए उठ पड़ा था।

टिंकू के जाने के बाद पप्पू लौटा तो झटके से खड़ी हो के हड़बड़ी में सुभद्रा खुदबखुद इस आड़े वक्त के बारे में उसेबताने लगी थी।

दादा का किसान बे टा  पप्पू नासमझों की तरह भकुआया चेहरा लिये सुभद्रा का ताक रहा था और सुभद्रा अपने आधे अधूरे ज्ञान के आधार पर  अपनी लटपट आवाज में उसे समझाने लगी थी जमीन का भविष्य, भ्रम में फंसी किसान नीति, किसानी जमीन के मुआवजा के सांप सीड़ी के खेल से उलझ नियम।

सहसा सुभद्रा को खुद महसूस हुआ कि इस अड़गड़ वाणी में उसके मुंह से जो शब्द निकल रहे हैं उनका न पूरा उच्चारण हो पा रहा है न उनका कोई अर्थ था। सुभद्रा को एकबारगी लगा कि मानो किसी शव को जगाने के लिए शमशान भैरवी की तरह मरघट में खड़ी वह अघोरीतंत्र के औघड़ वाक्य शाबर मंत्र बोल रही है।

भौंचक्का होकर बुआ की बातें सुनते पप्पू लग रहा था कि बुआ किसी लोकनाटय की कलाकार हो गयी है जो बिना किसी पांडुलिपि ,बिना स्वांग और पोशाक के खेले जा रहे किसी नुक्कड़ नाटक में किसानों को जगाने के लिए सहज और मार्मिक संवाद बोल रही है-दिल से निकले दिल पर चोट करते संवाद।

सहसा वे दोनों चौंके। बेहोश पड़े दादा में एकाएक जाग्रति का बोध दिखाई दे रहा था।

नये उत्साह और भरपूर आशा के साथ वे दोनों दादा को संभालने लगे।

अब चिंता नही सब संभाल लेंगे दादा-सुभद्रा के चेहरे पर आश्वस्ति छलक उठी थी।

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