कोई दिन गर ज़िंदगानी और है
अपने जी में हमने ठानी और है

आतिश-ए-दोज़ख़[1] में ये गर्मी कहाँ
सोज़-ए-ग़म-हाए-निहानी[2] और है

बारहा देखीं हैं उनकी रंजिशें
पर कुछ अब के सर-गिराऩी[3] और है

देके ख़त मुँह देखता है नामाबर
कुछ तो पैग़ाम-ए-ज़बानी और है

क़ातर-अ़अ़मार[4] हैं अक्सर नुजूम[5]
वो बला-ए-आसमानी और है

हो चुकीं "ग़ालिब" बलाएं सब तमाम
एक मर्ग-ए-नागहानी और है

शब्दार्थ:
  1. नरक की आग
  2. आंतरिक संताप की जलन
  3. रोष
  4. जान लेनेवाले
  5. सितारे
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