आशा लौट आई। रूठ कर विनोदिनी ने कहा - 'भई किरकिरी, इतने दिन पीहर रही, खत लिखना भी पाप था क्या?'

आशा बोली - 'और तुमने तो लिख दिया जैसे!'

विनोदिनी - 'मैं पहले क्यों लिखती, पहले तुम्हें लिखना था।'

विनोदिनी के गले से लिपट कर आशा ने अपना कसूर मान लिया। बोली - 'जानती तो हो, मैं ठीक-ठीक लिख नहीं पाती। खास कर तुम-जैसी पंडिता को लिखने में शर्म आती है।'

देखते-ही-देखते दोनों का विषाद मिट गया और प्रेम उमड़ आया। विनोदिनी ने कहा - 'आठों पहर साथ रह कर तुमने अपने पति देवता की आदत बिलकुल बिगाड़ रखी है। कोई हरदम पास न रहे, तो रहना मुश्किल।'

आशा - 'तभी तो तुम पर जिम्मेदारी सौंप गई थी। और साथ कैसे दिया जाता है, यह तुम मुझसे ज्यादा अच्छी तरह से जानती हो।'

विनोदिनी - 'दिन को तो किसी तरह से कॉलेज भेज कर निश्चिं‍त हो जाती थी - मगर साँझ को किसी भी तरह से छुटकारा नहीं। किताब पढ़ कर सुनाओ, और-और न जाने क्या-क्या? पूछो मत, मचलने का तो अंत नहीं।'

आशा - 'आई न काबू में! जब जी बहलाने में पटु हो, तो लोग छुट्टी क्यों दें?'

विनोदिनी - 'मगर सावधान बहन, भाई साहब कभी-कभी तो ऐसी अति कर बैठते हैं कि धोखा होने लगता है, शायद मैं जादू-मंतर जानती हूँ।'

आशा - 'जादू तुम नहीं जानतीं तो कौन जानता है! तुम्हारी विद्या जरा मुझे आ जाती, तो जी जाती मैं।'

विनोदिनी - 'क्यों, किसके बंटाधार का इरादा है! जो सज्जन घर में है, उन पर रहम करके किसी और को मोहने की कोशिश भी न करना।'

विनोदिनी को तर्जनी दिखा कर आशा बोली - 'चुप भी रह, क्या बक-बक करती है!'

काशी से लौटने के बाद पहली बार आशा को देख कर महेंद्र ने कहा - 'तुम्हारी सेहत तो पहले से अच्छी हो गई है। काफी तंदुरुस्त हो कर लौटी हो।'

आशा को बड़ी शर्म आई। उसकी सेहत अच्छी नहीं रहनी चाहिए थी- मगर उस गरीब का बस नहीं चलता।

आशा ने धीमे से पूछा - 'तुम कैसे रहे?'

पहले की बात होती तो महेंद्र कुछ तो मजाक और कुछ मन से कहता - 'मरा-मरा'। मगर अभी मजाक करते न बना - गले तक आ कर अटक गया। कहा - 'बेजा नहीं, अच्छा ही था।'

आशा ने गौर किया, महेंद्र पहले से कुछ दुबला ही हो गया है। चेहरा पीला पड़ गया है, आँखों में कैसी एक तेज चमक है। कोई भीतरी भूख मानो आग की जीभ से उसे चाटे जा रही हो। आशा पीड़ित हो कर सोचने लगी - 'स्वामी अपने दुरुस्त नहीं रहे यहाँ, मैं क्यों काशी चली गई। पति दुबले हो गए और खुद वह तगड़ी हो गई' - इसके लिए उसने अपनी सेहत को धिक्कारा।

महेंद्र देर तक सोचता रहा कि अब कौन-सी बात की जाए। बोला - 'चाची मजे में हैं?'

उत्तर में कुशल-क्षेम पा कर पूछने को दूसरी बात मन में लाना उसके लिए मुहाल हो गया। पास ही एक फटा-पुराना अखबार पड़ा था, उसे उठा कर वह अनमना-सा पढ़ने लगा। आशा सिर झुकाए सोचने लगी, 'इतने दिनों के बाद भेंट हुई, लेकिन उन्होंने मुझसे ठीक से बात क्यों नहीं की? बल्कि लगा, मेरी ओर उनसे ताकते भी न बना।'

महेंद्र कॉलेज से लौटा। जल-पान करते समय राजलक्ष्मी थीं। आशा भी घूँघट निकाले पास ही दरवाज़ा पकड़े खड़ी थी - लेकिन और कोई न था।

राजलक्ष्मी ने परेशान-सी हो कर पूछा - 'आज तेरी तबीयत कुछ खराब है क्या, महेंद्र?'

जैसे ऊब गया हो, महेंद्र बोला - 'नहीं, ठीक है।'

राजलक्ष्मी - 'फिर तू कुछ खा क्यों नहीं रहा है?'

महेंद्र फिर खीझे हुए स्वर में बोला - 'खा तो रहा हूँ - और कैसे खाते हैं?'

गर्मी की साँझ। बदन पर एक हल्की चादर डाल महेंद्र छत पर इधर-उधर घूमने लगा। बड़ी उम्मीद थी कि इधर जो पढ़ाई नियम से चल रही थी, वह वैसी ही चलेगी। 'आनंदमठ' लगभग खत्म हो चला है। गिने-चुने कुछ अध्याय रह गए थे। यों जितनी भी निर्दयी हो विनोदिनी, ये बाकी अध्याय वह जरूर पढ़ कर सुनाएगी। लेकिन शाम हो गई और महेंद्र को कुछ हासिल न हुआ तो वह सोने चला गया।

सजी-सँवरी शरमाई आशा धीरे-धीरे कमरे में आई। देखा, महेंद्र बिस्तर पर सोया है। वह यह न सोच पाई कि किस तरह से आगे बढ़े। जुदाई के बाद जरा देर के लिए एक नई लज्जा होती है - जहाँ पर से जुदा होते हैं, दोनों, ठीक वहाँ पर मिलने से पहले एक-दूसरे को नए संभाषण की उम्मीद होती है। अपनी उस चिर-परिचिता सेज पर आशा आज बे-बुलाए कैसे जाए? दरवाजे के पास देर तक खड़ी रही। महेंद्र की कोई आहट न मिली। धीमे-धीमे पग-पग बढ़ी। अचानक किसी गहने की आवाज हो उठती तो मारे शर्म के मर-सी जाती। धड़कते हृदय से वह मच्छरदानी के पास जा खड़ी हुई। लगा, महेंद्र सो गया है। उसका सारा साज-शृंगार उसे सर्वांग के बंधन-सा लगा। उसकी यह इच्छा होने लगी कि बिजली की गति से भाग जाए और जा कर और कहीं सो रहे।

अपने जानते भरसक चुपचाप संकुचित हो कर आशा बिस्तर पर गई। फिर भी इतनी आवाज जरूर हुई कि महेंद्र अगर सचमुच ही सोया होता, तो जग पड़ता। लेकिन आज उसकी आँखें न खुलीं, क्योंकि दरअसल वह सो नहीं रहा था। वह पलँग के एक किनारे करवट लिए पड़ा था। लिहाजा आशा उसके पीछे लेट गई। पड़ी-पड़ी आशा आँसू बहा रही थी। उधर मुँह करके सोने के बावजूद महेंद्र को इसका साफ पता चल रहा था। अपनी बेरहमी से वह चक्की की तरह कलेजे को पीस कर दुखा रहा था। लेकिन वह क्या कहे, कैसे स्नेह जताए - यह उसकी समझ में ही नहीं आ रहा था।

लेकिन आशा ने खुद ही उसकी यह मुसीबत भगा दी। वह तड़के ही अपमानित साज-शृंगार लिए उठ कर चली गई। वह भी महेंद्र को अपना मुँह न दिखा सकी।

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